प्रवासी साहित्य : हिन्दी की लहर...

- श्रीमती आशा मोर


 
डेढ़ सौ वर्ष पूर्व
जो आए यहां
बोलते थे सब हिन्दी
धीरे-धीरे अंग्रेजी बोलने में
करने लगे गर्व
और भूल गए हिन्दी
 
इच्छा हर मां-बाप की होती
नहीं मिला जो उनको
मिल जाए उनके बच्चों को
लेकिन भूल जाते हैं
मां-बाप अहमियत इसमें
उस चीज की,
जो मिली उन्हें विरासत में
 
अंग्रेजों के झांसे में फंसकर
आए थे यहां छोड़ घर-बार
छोड़े अपने माई-बाप
भाई-बंधु और परिवार
 
आकर यहां फंसे कुछ ऐसे
न जा पाए फिर वो कभी
उस पार
कहानी है उनकी दर्दनाक
पर नहीं है शर्मनाक
 
छोड़े नहीं उन्होंने
अपने संस्कार
और रीति-रिवाज
 
बुजुर्गों की मेहनत का फल
वर्तमान पीढ़ी
उठा रही है आज
 
अब फिर से जागी है
उमंग मन में
सीखें हम अपनी भाषा
करने लगे वह
गर्व अपनी भाषा पर
और बढ़ने लगी जिज्ञासा
 
फिर से हिन्दी की
लहर आई है
करने को उनका उत्थान
फिर से वह अब
हिन्दी में पढ़ सकेंगे
रामायण और वेद-पुराण
 
है ईश्वर से यही प्रार्थना
बनी रहे उनकी अभिलाषा
तन और मन में बसी रहे
अपनी भाषा की गौरवगाथा।
 
साभार- गर्भनाल 

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