लघुकथा : आखिरी पड़ाव का सफर

- सुकेश साहनी

'चल जीणें जोगिए!' तांगे वाले ने घोड़ी को संबोधित कर कहा और घोड़ी धीमी रफ्तार से सड़क पर दौड़ने लगी। सड़क पर बिलकुल सन्नाटा था। बाजार पूरी तरह बंद हो चुका था। आज चौंतीस साल की नौकरी के बाद वह सेवामुक्त हो गया था।

विदाई समारोह से वह अपने कुछ साथियों के साथ 'बार' में चला गया था और करीब चार-पांच घंटों की 'सिटिंग' के बाद अब तांगे पर बैठा घर लौट रहा था। 'लेकिन आज हर तरफ इ‍तना अंधेरा क्यों है?'

उसने सोचा। पहले भी कई बार वह इतनी देर से लौटा है पर... इतना... अंधेरा! अभी वह इस विषय में सोच ही रहा था कि उसे लगा, वह अकेला नहीं है। उसने गौर से देखा। चेहरा बिलकुल पहचाना हुआ था। कौन है... नाम क्या है? वह सोच में पड़ गया। अबकी उसने आंखें फाड़कर काफी नजदीक से देखा। वो अजनबी मुस्करा रहा था- 
 
'पहचाना?' एकाएक अजनबी ने उससे पूछ लिया।
 
 

'अ... ह... हां, क्यों नहीं! ... क्यों नहीं!' वह हड़बड़ा गया। आवाज भी तो बिलकुल पहचानी हुई थी।



 
'शुक्र है!' वह व्यंग्य से मुस्कुराया।
 
'क्या मतलब?' वह हैरानी में पड़ गया। 
 
'शुक्र है कि तुमने मुझे आज पहचान तो लिया। इससे पहले मैंने कई बार तुम्हें पीछे से आवाज दी, तुम अनसुनी कर निकल गए। मैं कई बार जान-बूझकर तुम्हारे सामने पड़ा, तुम कन्नी काटकर निकल गए। दरअसल, तब तुम्हारे पास मुझे मिलने का वक्त ही नहीं था, पर अब मेरे सिवा...' 
 
'ऐसा कैसे हो सकता है?' वह असमंजस में पड़कर बुदबुदाया
 
खैर... छोड़ो, आज बहुत उदास हो?
 
नहीं तो... आज तो मैं बहुत खुश हूं। मैंने अपनी जिंदगी के चौंतीस साल जनता की सेवा में सफलतापूर्वक बिताए हैं। मैं बहुत संतुष्ट हूं। 
 
जनता की सेवा! वह हंसने लगा- कितना खूबसूरत झूठ बोल लेते हो!
 
क्या बकते हो? गुस्से से उसका दिमाग भन्नाने लगा।
 
मैं सच कह रहा हूं... याद करो... चौंतीस साल तक अपना मेज के नीचे फैला हुआ हाथ! ... इतने ही बरसों तक पल-पल अपनी कुर्सी पर उठक-बैठक लगाते तुम! ... जी साब... हां साहब... ही... ही... ही... पहुंचा दूंगा साहब... चिंता न करें साहब... मैं 'वो' कर लूंगा हुजूर! ...एड्जस्ट हो जाएगा साहब... जी हूजूर! जी! जी हां... जी हां... जी... जी... इन्हीं बातों का घमंड था तुम्हें!'
 
'यह मेरा अपमान है! उसने गुस्से से चिल्लाकर कहना चाहा, पर आवाज गले से बाहर नहीं निकली। कपड़ों के भीतर वह ठंडे पसीने से नहा गया था।
 
एकाएक तांगे वाला चुटकी बजाते हुए ऊंची आवाज में गाने लगा- 'ओ बल्ले-बल्ले नी हौले-हौले जांण वालिए... ओ...' वह बुरी तरह चौंक पड़ा। वह तांगे पर बिलकुल अकेला था और बेहद डरा हुआ भी। उसे अपनी कमजोरी पर बेहद हैरानी हुई। उसने कांपते हाथों से सिगरेट सुलगाई और सोचने लगा- आज हर तरफ इतना अंधेरा क्यों है, यह तांगे वाला इतना उदासीभरा गीत क्यों गा रहा है...'।

साभार- हिन्दी चेतना 

 

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