प्रवासी साहित्य का संबंध प्रवासी लोगों द्वारा लिखे साहित्य से है। प्रश्न यह उठता है ये प्रवासी लोग कौन हैं और इनके साहित्य की विशेषता अथवा सुंदरता क्या है, इसी से जुड़ा है इस साहित्य का स्वरूप और सौंदर्यशास्त्र।
आजकल साहित्य में कई विमर्श प्रचलित हैं। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श की भांति इधर प्रवासी विमर्श ने भी जगह बनाई है। प्रवासी विमर्श की विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत रचनात्मक साहित्य अधिक लिखा गया है। इसके आलोचनात्मक पक्ष पर उतना बल नहीं दिया गया है।
कमलेश्वर ने प्रवासी साहित्य पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'रचना अपने मानदंड खुद तय करती है इसलिए उसके मानदंड बनाए नहीं जाएंगे। उन रचनाओं के मानदंड तय होंगे।'
प्रवासी लोगों की 3 श्रेणियां बनाई जा सकती हैं। एक श्रेणी में वे लोग हैं, जो गिरमिटिया मजदूरों के रूप में फिजी, मॉरीशस, त्रिनिडाड, गुआना, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भेजे गए थे। दूसरी श्रेणी में 80 के दशक में खाड़ी देशों में गए अशिक्षित-अर्द्धशिक्षित, कुशल अथवा अर्द्धकुशल मजदूर आते हैं। तीसरी श्रेणी में 80-90 के दशक में गए सुशिक्षित मध्यवर्गीय लोग हैं जिन्होंने बेहतर भौतिक जीवन के लिए प्रवास किया।
इन तीन तरह की श्रेणियों में से, साहित्य के वर्तमान समय में, अंतिम श्रेणी का ही प्रभुत्व जैसा दिखाई देता है। गिरमिटिया मजदूरों की बाद की पीढ़ियों में से अधिकांश ने रोजगार तथा अन्य कारणों से हिन्दी या भोजपुरी के अलावा दूसरी अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को अपना लिया। मॉरीशस के अभिमन्यु अनत ही एक ऐसे लेखक हैं जिनको उल्लेखनीय माना जाता है। उनके उपन्यास 'लाल पसीना' ने काफी प्रशंसा पाई है। फिजी, त्रिनिडाड, अफ्रीका अथवा गुआना से कोई ऐसा लेखक चर्चित नहीं हुआ जिसको प्रवासी लेखन में ख्याति प्राप्त हुई हो।
इन दो वर्गों के लेखन को ही प्रवासी साहित्य की संज्ञा दी गई है। वस्तुत:, पराए देशों में पराए होने की अनुभूति और उस अपरिचित परिवेश में समायोजन के प्रयास, नॉस्टेल्जिया, सफलताएं और असफलताओं को ही प्रवासी साहित्य का आधार माना जा सकता है। राजेन्द्र यादव ने प्रवासी साहित्य को इसीलिए 'संस्कृतियों के संगम की खूबसूरत कथाएं' कहा है। हालांकि यह केवल संगम नहीं है बल्कि कई अर्थों में तो मुठभेड़ है।
साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि प्रवासी साहित्य, नॉस्टेल्जिया के रचनात्मक रूपों के समुच्चय है। नॉस्टेल्जिया को प्रथम दृष्टया नकारात्मक मूल्य माना जाता है, परंतु यह उचित नहीं होगा। नॉस्टेल्जिया का अर्थ है- घर की याद या फिर अतीत के परिवेश में विचरना।
प्रवासी साहित्य में नॉस्टेल्जिया या पराएपन की अनुभूति, रचनात्मक यात्रा का केवल पहला चरण है। दूसरे चरण में, इस मन:स्थिति से संघर्ष शुरू होता है और तीसरे चरण में अपनी नई पहचान को स्थापित करने की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है।
इन तीनों ही चरणों में, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियों का चित्रण होता है। खान-पान, पहनावा, बोली-भाषा, पर्व-त्योहार का भी उल्लेख आता है। प्रवासी साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास, गजल आदि विधाओं में मुख्यत: लिखा गया है। परंतु कहानी इस विमर्श की प्रधान विधा बन गई है।
सुषम बेदी, सुधा ओम ढींगरा, जकिया जुबैरी, नीना पॉल, दिव्या माथुर, उषा वर्मा, जय वर्मा और उषा राजे सक्सेना ने प्रवासी लेखिकाओं के रूप में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई है।
सुषम बेदी का हवन और मैंने नाता तोड़ा उपन्यास काफी चर्चा में रहा। इसमें अमेरिका के परिवेश में एक विधवा स्त्री के जीवन को दिखाया गया है। इसके अलावा उनके कहानी संग्रह चिड़िया और चील ने भी पर्याप्त ख्याति पाई है।
जकिया जुबैरी के कहानी संग्रह सांकल में स्त्री मन की कशमकश को चित्रित किया गया है। जकियाजी की कहानियों में नॉस्टेल्जिया और वहां परिवार के बीच की स्थितियों का मार्मिक चित्रण मिलता है। मां और बेटी के अलावा, मां और पुत्र के बीच स्वाभिमान को बहुत ही संवेदनशील ढंग से उकेरा गया है। सांकल के अलावा मारिया और लौट आओ तुम ऐसी ही कहानियां हैं।
नीना पॉल ने दो उपन्यास तलाश और कुछ गांव-गांव कुछ शहर-शहर लिखे हैं। इसके अलावा उनके दो कहानी संग्रह भी हैं। कुछ गांव-गांव कुछ शहर-शहर उपन्यास में इंग्लैंड के लेस्टर शहर के बनने की कहानी के साथ-साथ गुजरातियों के वहां जमने और संघर्ष करने को गूंथा गया है। उपन्यास में निशा के माध्यम से एक गुजराती परिवार की तीन पीढ़ियों का संघर्ष दिखाया गया है। निशा, उसकी मां सरोज बेन और निशा की नानी सरला बेन। गुजरात से युगांडा और युगांडा से लेस्टर पहुंचे हैं। इन भारतीयों की कठोर मेहनत करने की क्षमता और कुशल व्यापार बुद्धि ने एक नए देश में भी धीरे-धीरे उन्हें इज्जत दिला दी।
इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसमें उपन्यासकार ने संतुलित और निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाया है। भारतीयों के साथ हुए भेदभाव तो दिखाए ही गए हैं, परंतु अंग्रेज के कानून के पाबंद होने को भी ईमानदारी से दिखाया है। साथ ही, लेस्टर के इतिहास और भूगोल के सुंदर चित्र खींचे गए हैं। उपन्यास को पढ़कर लेस्टर का पूरा नक्शा स्पष्ट हो जाता है।
दिव्या माथुर की शुरुआती कहानियों में कहानी का शिल्प कम और संवेदना अधिक है अर्थात कहानी में चरित्र-चित्रण, संवाद, वातावरण की अपेक्षा, वे कथ्य पर फोकस करती हैं। जो उन्हें कहना है, वही उनके लिए मुख्य रहता है। तमन्ना कहानी में एक ऐसी भारतीय बहू की कथा है, जो लगातार तनाव में है। झांसी में उसका एक सड़कछाप प्रेमी था, जो शादी के बाद भी उसे धमकीभरे खत लिखता है। सास उसे समझाती है। पंगा और अन्य कहानियां तथा 2050 जैसी कहानियों तक पहुंचते-पहुंचते उनके कहानियों में शिल्प का प्रबल आग्रह दिखाई देने लगता है।
शिल्प का ऐसा ही प्रयोग उन्होंने अपने पहले उपन्यास में किया है। शाम भर बातें नाम के इस उपन्यास में शुरू से आखिर तक केवल संवाद ही संवाद हैं अर्थात बातें ही बातें हैं। इन बातों के बीच ही इंसान की इंसानियत और हैवानियत, व्यवस्था के विद्रूप तथा परिस्थितियों के पेंच सामने आते हैं। उपन्यास एक पार्टी में खुलता है और उसका अंत भी पार्टी के साथ ही होता है। यह पार्टी मकरंद मलिक और मीता मलिक के घर में हो रही है। हैरानी की बात यह है कि लंदन शहर में चलने वाली इस पार्टी में लगभग सभी मेहमान भारतीय हैं। इसकी समाजशास्त्रीय पड़ताल की जरूरत है कि आखिर क्या वजह है कि वहां भारतीय समुदाय और दूसरे समुदायों के बीच समाजीकरण की प्रक्रिया एकदम मंद है। युवा पीढ़ी में जरूर यह बदलाव दिखता है, परंतु भारतीय पीढ़ी पूरी तरह से बंद जीवन जीती है। उनके रहन-सहन और सोचने के तरीके भी भारतीय मध्यवर्गीय चरित्रों की तरह हैं। उच्चायोग से आए अधिकारी अपने को बहुत उच्च स्थान पर मानते हुए अन्य भारतीयों के साथ तुच्छ व्यवहार करते हैं। शामभर बातें उपन्यास में लंदन में बसने वाले अधिकांश भारतीयों की मनोवृत्ति और सामाजिक व्यवहारों का सूक्ष्म चित्रण किया गया है।
सुधा ओम ढींगरा ने कौन सी जमीन अपनी कहानी संग्रह से अपनी जगह बनाई। सुधाजी का लेखन एक सांस्कृतिक सेतु की तरह है। अमेरिका में मस्त और व्यस्त भारतीय पीढ़ी के बीच त्रस्त पीढ़ी के भी चित्र उनकी कहानियों में दिखाई देते हैं। उनकी कहानियों में भारत की स्मृति के क्षण भी हैं तो अमेरिका में अपनी पहचान जमाने के चित्र भी हैं। टारनेडो कहानी भारत की याद और उसकी खुशबू की कहानी है, वहीं क्षितिज से परे कहानी में एक प्रताड़ित स्त्री के विद्रोह को दर्शाया गया है। कौन सी जमीन अपनी कहानी की शुरुआत ही अपने वतन की याद से होती है। 'ओये मैंने अपना बुढ़ापा यहां नहीं काटना, यह जवानों का देश है, मैं तो पंजाब के खेतों में, अपनी आखिरी सांसें लेना चाहता हूं।' जब वह अपने बच्चों को कहता, तो बेटा झगड़ पड़ता, 'अपने लिए आप कुछ नहीं सहेज रहे और गांव में जमीनों पर जमीन खरीदते जा रहे हैं।'
यह कहानी एक तरफ नॉस्टेल्जिया की भावुकता को प्रकट करती है तो दूसरी ओर यथार्थ की वीभत्स जमीन को भी उजागर करती है। मनजीत सिंह अपनी पत्नी मनविंदर के साथ अमेरिका में रहता है। दो होनहार बच्चे हैं, जो डॉक्टरी और वकालत पढ़कर वहीं विवाह कर लेते हैं। बेटा और मां दोनों ही मनजीतसिंह को समझाते रहते हैं कि पंजाब में अपने भाई को जमीन खरीदने के लिए बार-बार पैसा न भेजा करे, परंतु वह मानता ही नहीं। बच्चों की शादी के बाद जब वह और उसकी पत्नी मनविंदर नवांशहर, पंजाब अपने पैतृक गांव पहुंचते हैं तो उनके साथ मेहमानों की तरह व्यवहार किया जाता है। मनजीत को यह अटपटा लगता है। छोटा भाई ही नहीं, मां और बाप भी बदल जाते हैं।
मनजीत जब अपने पैसों से खरीदी हुई जमीनों के हक की बात करता है तो भाई बुरी तरह क्रोध में आ जाता है। रात में मनजीत को भाई की फुसफुसाहटभरी आवाज से पता चलता है कि उसकी योजना दोनों की हत्या कर ठिकाने लगाने की बन चुकी है। इसमें वह पुलिस को भी शामिल होने की बात कहता है। उसका मन छलनी हो जाता है। इसी द्वंद्व में, वह एक रात पानी पीने उठा, तो नीचे के कमरे में कुछ हलचल महसूस की, पता नहीं क्यों शक-सा हो गया। दबे पांव वह नीचे आया, तो दारजी के कमरे से फुसफुसाहट और घुटी-घुटी आवाजें आ रही थीं। दोनों भाई दारजी को कह रहे थे- 'मनजीत को समझाकर वापस भेज दो, नहीं तो हम किसी से बात कर चुके हैं, पुलिस से भी साठगांठ हो चुकी है। केस इस तरह बनाएंगे कि पुरानी रंजिश के चलते, वापस लौटकर आए एनआरआई का कत्ल।' मनजीत और मनविंदर रात को ही चुपचाप घर छोड़कर निकल जाते हैं। मनजीत चलते वक्त मनविंदर से पूछता है- 'जान नहीं पा रहा हूं कि कौन सी जमीन अपनी है।'
सुधा ओम ढींगरा की कहानियों की यही विशेषता है कि उसमें आदर्श का संसार भी है, परंतु वह मूल रूप से यथार्थ की जमीन पर खड़ा है। आदर्श जल्द ही यथार्थ से खंडित हो जाता है। उनके यहां कुछ कहानियां ऐसी भी हैं, जो विदेश के ही चरित्रों और स्थितियों पर केंद्रित हैं। ये कहानियां वास्तव में एक भारतीय की नजर से विदेशी भूमियों को देखना है।
उनकी एक कहानी सूरज क्यों निकलता है, को पढ़ते हुए पाठक को सहसा ही प्रेमचंद के घीसू और माधव याद आने लगें, तो कोई आश्चर्य नहीं। घीसू और माधव के बरअक्स जेम्स और पीटर ज्यादा निर्लज्ज और अराजक हैं। घीसू और माधव कम से कम काम इसलिए नहीं करना चाहते कि वहां काम का कोई उचित मूल्य नहीं बचा है। इसलिए प्रेमचंद उन्हें ज्यदा विचारवान भी कहते हैं। परंतु सुधा ओम ढींगरा के ये दोनों पात्र काम करना ही नहीं चाहते और अय्याशी पूरी करना चाहते हैं। उनकी मां टैरो भी ऐसी ही थी और लगभग सभी भाई-बहन भी। वे होमलेस होने का बहाना कर भीख मांगते हैं, सूप किचन में मुफ्त में खाना खाते हैं, शैल्टर होम में सो जाते हैं। ये सब सुविधाएं अमेरिका की सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए प्रदान करती है।
एक भारतीय की नजर से इस यथार्थ को देखते हुए कहानीकार ने बहुत भी सूक्ष्म घटनाओं और गतिविधियों का ब्योरा दिया है। इसमें वेश्यावृत्ति, शराबखोरी की लत, ड्रग्स पैडलर्स आदि सब शामिल हैं।
जय वर्मा ने इधर कहानी के क्षेत्र में कदम बढ़ाया है, परंतु उनकी कहानियों ने एक संवेदनशील कथाकार की उम्मीद जगाई है। सात कदम उनकी ऐसी ही कहानी है, जो अपनी संरचनात्मक बुनावट और संवेदनात्मक कारीगरी के लिए याद रखने योग्य है।
उषाराजे सक्सेना की कहानी वो रात बेहद चर्चित कहानी रही। एक मां और उसके छोटे बच्चों के साथ कल्याणकारी राज्य की भूमिका पर केंद्रित इस कहानी की मर्मस्पर्शी संवेदना झकझोर देती है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि एक परिघटना के रूप में यह साफ दिखाई देता है कि पूरे प्रवासी साहित्य की बागडोर स्त्री रचनाकारों के हाथ में है। एक नई दुनिया का पता और उसकी आंतरिक गतिविधियों की सूचना इन कथाकारों की कहानियों और उपन्यासों से पाठकों को मिलाती है। इन कथाकारों की रचनाशीलता ने हिन्दी साहित्य का परिदृश्य और विस्तृत किया है।
संदर्भ-ग्रंथ सूची-
1. कुछ गांव-शहर कुछ शहर-शहर, नीना पॉल, यश पब्लिकेशन्स, 1/11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032।
2. कौन सी जमीन अपनी, डॉ. सुधा ओम ढींगरा, भावना प्रकाशन, 109-ए, पटपड़गंज, दिल्ली-110091।