अटलजी को सादर नमन अर्पित करती कविता : देशप्रेम के गीत गुनगुनाऊंगा
एक अटल दीवाना ही तो था मैं
चल पड़ा हूं अब दूर क्षितिज में
नापा-तोला गया मुझे भावों में
शब्दों में रिश्तों में नातों में
सहारा गया मैं जज्बातों में
मेरे सिद्धांतों, उसूलों के दर्पण में
डूबा जमाना मेरे आदर्शवादों में
मेरा कर्म भी घिरा विवादों में
जनता के सवालों के कटघरों में
वही चलन सारा दुनियादारी में
कारगिल, पोखरण की उलझनों में
कहीं उलझा संभला दृढ़ मैं राहों में
राजनीती भी चली मृत्यु के साये में
मेरी शैली मेरी भाषा की दीवानगी में
बच्चे, बड़े, बुजुर्ग बंध जाते बंधन में
हंसता-मुस्कराता ख़ामोशी के संग में
मैं चला भारत मांके सुपुत्रों की कतारों में
संस्कारों, स्वभिमानों की गीतावली में
कई गीत अर्पण किए भारत मां के चरणों में
सेवा सदा लक्ष्य मेरा सादगी अधिकारों में
सगा सम्बन्धी मित्र क्षत्रु सभी मेरे अपनों में
मैं सभी का सभी मेरे भारत मां के आंचल में
लौ बन दीपक की जला सूरज के उजालों में
सांसों की संध्या से जीता पंद्रह के जश्न में
सोलहवें में विदाई ले समाया ब्रह्म काल में
एक अटल दीवाना ही तो था मैं
चल पड़ा हूं अब दूर क्षितिज में
समय चक्र में फंस कभी लौटा भी कल में
देशप्रेम के गीत गुनगुनाऊगां हर काल में!