प्रवासी कविता : मैं भारतीय हूं
यह अनमोल जिंदगी, इसकी अपनी पहचान है
जब इसने जन्म लिया, पतन हुआ गुलामी का
यह एक गर्वित एहसास है आजादी का
इसका अपना ठोस अस्तित्व है संसार में
यह जिंदगी सफल है, बिंदास मुस्कुराती है
चाय संग आलस में पांव पसार सुस्ताती है
कभी दुपट्टा खोंस कमर में सतर्क हो जाती है
जाने किन पलों पर बतियाती गप्पे लड़ाती है
कभी आंचल में छिप धूप से खुद को बचाती है
कभी आंचल फैला ममता की मूरत बन जाती है
कभी धूप सेंकती थरथराती सूरज को पुकारती
कभी छाते में थमकर, भीगने को होती है आतुर
दुःख-सुख में वक्त की पटरियों पर साथ भागती
खेतों में हल चला भूखे पेटभर, सहलाती है जीवन
असमय किसी विपदा की आहट से रख लेती है
अटारी के कोनों में सूखे प्याज और गर्म कपड़े
गुजर-बसर कर रही है गांव से शहरों तक चैन में
सहज-सरल अपनी ही धुन पर थिरकती शान से
दुआ बन प्रार्थनाओं में आ ठहरती है चौखट पर
अपनी पहचान का बोध कराती है, मैं भारतीय हूं
किसी धर्म की नजर न लगे, यह खुशहाल रहे
न घुटे दम इसका युद्ध में जलती लाशों से कभी
सांस लेती रहे विशुद्ध स्वच्छ पर्यावरण में खुलकर
यूं ही गूंजती रहे इसकी बिंदास हंसी विश्व पटल पर !
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