प्रवासी कविता : तुझसे ही पाया है जीवन
सीता-सा आह्वान कर
तुम्हारी छवि मन में उतारूं
मेरे विश्वास का तिनका
जिसे थाम मैं प्रार्थना करती
किसी दिन जब भाग्य में होगा
दाना-पानी तेरे आंगन में
मैं लौट, लौटा लाऊंगी बचपन
कि यह दो तरफा जिंदगी
अब जी नहीं जाती !
मन में लालसा रहती है सदा
क्या कभी लौट पाएंगे वह दिन
अपहरण ही हुआ है शरीर का
मन तो सदा लगा रहता है तेरे में
वह आंगन, वह झूला हिंडोले लेता
बचपन का भोलापन जिज्ञासाओं से घिरा
चांद, सूरज, तारे, आसमान सपनों में
छत पर बिस्तर डाल ताका करती उन्हें
हाथ बढ़ा छू लेने की ख़्वाहिशें
अब भी थोड़ी-सी ख़्वाहिशें बची हैं
कि यह दो तरफा जिंदगी
अब जी नहीं जाती !
याद आता है किसी गरीब का दर्द
तेज गर्मी, बारिश, ठंड में हाथ फैला
मांगा करता था सूखी रोटी
कितना छोटा था दिल, सहता नहीं था
उस गरीब को चौखट पर
आज भर आती हैं आंखें याद कर
याद आती है चौखट और एक दर्द
उंडेल दूं छप्पन भोग उस झोली में
कदम पड़ जाएं एक बार उस चौखट पर
एक रोटी का टुकड़ा खाकर शायद
मन तृप्त हो जाएगा
कि यह दो तरफा जिंदगी
अब जी नहीं जाती !
दादा खटिया पर आसपास बैठा बच्चों को
परियों के लोक की सैर करा लाते
पापा बांहों के झूले में सारा जहान घुमाते
दादी के अचार, पापड़, इमली, दूध-मलाई
कान्हा बन चुरा लेने में अथाह आनंद पाते हम
गांधी, मदर टेरेसा, सुभाषचंद्र, भगतसिंह
किताबों से निकल आसपास दिख जाते
सातों जहान घूम लिए हैं, कहीं नहीं मिला
देखने को तेरी मिट्टी पर बसा वैसा संसार
कि यह दो तरफा जिंदगी
अब जी नहीं जाती !
पंद्रह अगस्त को हाथों में उठा तिरंगा
गाते थे तेरी जय जयकार हम
जोश की लहरें उठती थी सीने में
भर वीरों का लहू नसों में
साहस शहीदों का
कोई आंख उठाकर जो देखे तुझे
छुड़ा देंगे छक्के हर दुश्मन के !
जोश की लहरें आज भी उठती हैं सीने में
सात समंदर पार, तू सलामत रहे सदा !
उज्वल हो भविष्य और चमकता रहे सूरज
आजादी का तेरे माथे पर अनंत काल तक
निकलती है दुआ रोम-रोम से,
धन्य हुआ है जीवन जन्म तेरी मिट्टी में लेकर
तेरे संस्कार की सौगात विरासत में
हर संघर्ष सद्कर्म से जीता है
भारत मां! तुझसे ही पाया है जीवन
कि यह दो तरफा जिंदगी
अब जी नहीं जाती !
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