प्रवासी कविता : याद तुम्हारी...

- लावण्या 
 
जब काली रात बहुत गहराती है, तब सच कहूं, याद तुम्हारी आती है।
जब काले मेघों के तांडव से, सृष्टि डर-डर जाती है, 
तब नन्ही बूंदों में, सारे अंतर की प्यास छलक आती है 
 
जब थककर, विहंगों की टोली, सांध्य गगन में खो जाती है, 
तब नीड़ में दुबके पंछी-सी याद मुझे अकुलाती है।
 
जब भीनी रजनीगंधा की लता खुद-ब-खुद बिछ जाती है, 
तब रातभर, माटी के दामन से मिल, याद मुझे तड़पाती है।
 
जब हौले से सागर पर मांझी की कश्ती गाती है, 
तब पतवार के संग कोई याद दिल चीर रह जाती है।
 
जब पर्बत के मंदिर पर घंटियां नाद गुंजाती हैं,
तब मन के दर्पण पर पावन मां की छवि दिख जाती है।
 
जब कोहरे से लदी घाटियां कुछ पल ओझल हो जाती हैं,
तब तुम्हें खोजते मेरे नयनों के किरन पाखी में समाती हैं
 
वह याद रहा, यह याद रहा, कुछ भी तो ना भूला मन,
मेघ मल्हार गाते झरनों से जीत गया बैरी सावन।
 
हर याद संजोकर रख ली हैं मन में, 
याद रह गईं, दूर चला मन, ये कैसा प्यारा बंधन।
 

वेबदुनिया पर पढ़ें