प्रेम काव्य : जवां जब चांद इठलाया...

- रजनी मोरवाल 


 
न पूछो किस तरह कटी विरह में चांदनी की रात
परेशां मन भटककर रह गया जैसे अधूरी बात।
 
नहीं संयम रहा खुद पर
जवां जब चांद इठलाया,
खिली चंपा की खुशबू ने
महकता इत्र बिखराया। 
 
सिसकती रात में बस कांपता है मौन पीपल पात।
 
कि सिरहन ने गवाही दे रहे
तन पर कसे तेवर,
लगा खुलकर बिखरने को हुए
ढीले पड़े जेवर।
 
दमकती कामनाओं ने दबे पांवों लगाई घात।
 
हुई बेचैन अब सांसें
ठिकाने को तरसती-सी,
मिलन की आस में
ठहराव के दर पर बरसती-सी।
 
मगर यौवन संभलकर दे रहा था लालसा को मात।

 
साभार- हिन्दी चेतना

 

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