चल पड़ी भारतीय अँग्रेजी

- नलिनी खंडेलवाल

बुकर पुरस्कारों तथा अंतरराष्ट्रीय ख्याति व धन से मालामाल लेखकों ने भारतीय अँगरेजी क डंका तो बजा दिया है, लेकिन सवाल यह है कि हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को ऐसा रूतबा कब मिलेगा!

अँगरेजी के साथ भारत का रिश्ता बड़ा अजीब-सा रहा है। अँगरेज जब व्यापारी बनकर आए तो भारत ने पहले-पहल इसे व्यापार की भाषा के रूप में जाना। यहाँ के एक छोटे-से व्यापारी वर्ग ने शुद्ध आवश्यकता के चलते अँगरेजी को अपनाया। जब वही अँगरेज हमारे शासक बन बैठे तो उनकी भाषा शासन की भाषा और प्रकारांतर से सामाजिक-राजनीतिक दबदबे की भाषा बन गई। तब इस दबदबे के आकांक्षियों ने अँगरेजी को अपनाना शुरू किया।

सन्‌ 1947 में अँगरेज शासकों की बिदाई हो गई, लेकिन उनकी भाषा यहीं बस गई। यूँ यह कहना भी पूरी तरह ठीक नहीं है, क्योंकि जो यहाँ बस गई, वह अपनी अँगरेजियत बरकरार रखते हुए भी भारतीय रंग में रंग रही थी। ग्रहण करने और परिवर्तन के लिए तैयार एक जीवंत भाषा का मिलन सभी को अपनाने को तत्पर एक उदार और वैविध्यपूर्ण संस्कृति से हुआ था। हालाँकि भारत का अँगरेजिदाँ वर्ग तब भी देश की कुल जनसंख्या के मुकाबले बहुत छोटा था और आज भी छोटा ही है, लेकिन इस वर्ग के लिए इसे विदेशी भाषा कहना बेमानी ही रहा है।

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अँगरेजी ने भारत में सिर्फ पैठ ही नहीं बनाई बल्कि भारत के अँगरेजी भाषियों ने अपने ही किस्म की एक अँगरेजी भी तैयार कर ली। आज भारतीय अँगरेजी विश्व के साहित्यिक व बौद्धिक जगत में भी अपनी पहचान बना चुकी है। वैसे तो अँगरेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों ने कई दशक पहले ही अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया था।

मुल्कराज आनंद, आरके नारायण तथा राजा राव की त्रयी का लेखन देश के बाहर भी पढ़ा और सराहा गया, लेकिन उसे काफी हद तक एक सुदूर, अजब-गजब देश की झाँकी के रूप में देखा गया। बाद के दौर में आए सलमान रुशदी, अनिता देसाई, शशि थरूर, विक्रम सेठ, अमिताव घोष, अरुंधति रॉय, किरण देसाई, पंकज मिश्र आदि। सलमान रुशदी ने 1981 में 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' के लिए अँगरेजी विश्व का सबसे प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार जीतकर विश्व पटल पर भारतीय अँगरेजी की धाक जमा दी।

इसके बाद 1997 में अरुंधति रॉय (गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स) तथा 2006 में किरण देसाई (द इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस) ने बुकर जीता और विश्व स्तर पर भारतीय अँगरेजी लेखन की स्वीकार्यता पर मोहर लग गई। इस वर्ष रुशदी को बुकर ऑफ बुकर्स प्रदान कर अब तक का श्रेष्ठ बुकर विजेता घोषित किया गया। यही नहीं, इस वर्ष का बुकर भी एक भारतीय अरविंद अडिगा को उनके पहले ही उपन्यास 'द व्हाइट टाइगर' के लिए प्रदान किया गया। अब इस बात में कोई शक नहीं रह गया कि भारतीय अँगरेजी विश्व स्तर पर चल पड़ी है।

अडिगा के उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिलना एक प्रकार से भारतीय अँगरेजी लेखन के क्षेत्र में निर्णायक घटना है। इससे पहले जो भारतीय अँगरेजी लेखन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हुआ, उसमें भारतीय जीवन को विस्मय भरी नजर से देखने की भी भूमिका थी। अडिगा का उपन्यास विचित्र भारत या अनोखा भारत या 'शाइनिंग इंडिया' नहीं दर्शाता। यह आज के भारत का कड़वा यथार्थ दिखाता है और अपने संदेश तथा शिल्प की बदौलत ही अडिगा बुकर चयनकर्ताओं को प्रभावित करने में सफल रहे।

'द व्हाइट टाइगर' आज के भारत में संपन्ना तथा वंचित वर्ग के बीच की चौड़ी खाई पर प्रकाश डालती है। एक तरफ तो कॉर्पोरेट कामयाबी के बल पर धन कूटता अमीर वर्ग है और दूसरी तरफ आजीवन घोर गरीबी एवं वंचना को अभिशप्त वह वर्ग, जो शेयर बाजार की उड़ान, सरकारी आँकड़ों की बाजीगरी से आती कथित संपन्नता और नए युग की नई उड़ान के तमाम दावों से अप्रभावित है।

इसका नायक बलराम एक गरीब रिक्शा चालक का बेटा है। वह शहर के एक रईस की चमचमाती कार के ड्राइवर का काम करता है और अमीर-गरीब के बीच की खाई तथा शोषण को भली-भाँति महसूस करता है। वह अशिक्षित है, लेकिन आत्मविश्वास से भरा हुआ है। छल-कपट के माध्यम से वह बंगलोर के बिजनेस जगत में अपना स्थान बनाता है। पुस्तक का कथानक चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा से ठीक पहले बलराम द्वारा उन्हें लिखे गए 7 पत्रों के रूप में पाठक के समक्ष आता है। इस कहानी के बहाने अडिगा आज के भारत की खरी-खरी तस्वीर हमारे सामने रखते हैं।

भारत को एक उभरती हुई महाशक्ति के रूप में देखने-दिखाने के फेर में हम अक्सर उस विशाल तबके को अनदेखा कर जाते हैं, जिसे न परमाणु शक्ति से मतलब है और न ही सेंसेक्स के निराले खेलों से। बड़े-बड़े सेलेरी पैकेजों की कल्पना उसके लिए दूसरे किसी लोक की बात है। इस लोक की बात है तो यही कि उसे शोषित, अपमानित जीवन ही जीना है और इसी तरह मर-खप जाना है। अडिगा ने इस अप्रिय सचाई को अपने पहले ही उपन्यास के केंद्र में रखकर वाकई साहस का काम किया है।

बुकर के रूप में एक प्रकार से उनके लेखन ही नहीं, उनके साहस को भी पुरस्कृत किया गया है। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा लेखन कौशल, ऐसा साहस केवल अँगरेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों में ही पाया जाता है? भारतीय अँगरेजी जिस प्रकार चल पड़ी है, उसी प्रकार अन्य भारतीय भाषाएँ, खास तौर पर हिन्दी क्यों नहीं चल पड़ीं? जो पैसा, प्रतिष्ठा और पुरस्कार अँगरेजी लेखन में है, वैसा हिन्दी में क्यों नहीं? ऐसा तो निश्चित ही नहीं है कि भारतीय भाषाओं में लिखने वाले लेखकों में प्रतिभा की कमी है। ये लिख रहे हैं, खूब लिख रहे हैं और इनमें से कई बहुत अच्छा, बहुत अद्भुत लिख रहे हैं। यह बात और है कि इनमें से कइयों का लेखन पाठकों तक पहुँच ही नहीं पा रहा। अँगरेजी पुस्तकों को जैसा प्रचार मिलता है, वैसा हिन्दी पुस्तकों को कभी नहीं मिलता।

अँगरेजी में कोई पुस्तक बिके तो लेखक को अच्छी रॉयल्टी भी मिल जाती है। हिन्दी लेखक के लिए रॉयल्टी मिलना तो दूर, प्रकाशक की ओर से अक्सर यही जानकारी ठीक-ठीक नहीं मिल पाती कि उसकी पुस्तक की कितनी प्रतियाँ बिकी हैं! यहाँ तो कई बार "रॉयल्टी" की उल्टी गंगा भी बहती देखी जाती है, जब कोई प्रकाशक न मिलने पर लेखक स्वयं पैसा खर्च कर अपनी किताब छपवाता है! यदि किसी प्रकाशक ने पुस्तक प्रकाशित कर भी दी तो इस बात की गारंटी नहीं होती कि वह वास्तविक पाठकों तक पहुँचेगी ही। संभव है थोक खरीदी के ठेले पर सवार हो किसी गोदाम की धूल फाँकती रह जाए!

ऐसे में यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को कभी भारतीय अँग्रेजी लेखकों जैसा मान-सम्मान और 'दाम' मिले। कैसी विडंबना है कि बाहर से आकर अपनाई गई अँग्रेजी के रथ पर सवार हो भारतीय लेखक जैसी सफलता पा सकता है, वैसी हमारी अपनी धरती से उपजी भाषाओं के माध्यम से संभव ही नहीं दिखती! इसमें दोष किसी भाषा का नहीं है। दोष मानसिकता का है और इस मानसिकता को ठीक करके ही हम बुकर के समकक्ष किसी भारतीय भाषायी पुरस्कार तथा अडि़गा, रुशदी, अमिताव आदि के समकक्ष सफल भारतीय लेखकों की कल्पना कर सकते हैं।