अनकहे लफ्जों में

- अनवर महमूद खालिद

1 मार्च, 1940 जन्म. गवर्नमेंट ॉलेज, फैसलाबाद में लेक्चरार. सोलह बरस के दौरान लिखी रचनाओं का पहला संग्रह 'अहद-नामा' (1973) में प्रकाशित। ऊहापोह को दिशाहीनता की बजाय युगधर्म माना है। एक ऐसे दौर में जीने का नतीजा जहाँ कोई चीज, कोई फलसफा, कोई तेवर, इत्मीनान नहीं बख्शता.अनवर की बेचैनी एक शापग्रस्त यक्ष की भटकन है। चरित्रहीन शब्दकार की गैर-जिम्मेदार ठिठोली नहीं।

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अनकहे लफ्जों में मतलब ढूँढ़ता रहता हूँ मैं
क्या कहा था उसने और क्या सोचता रहता हूँ मैं
यूँ ही शायद मिल सके होने-न-होने का सुराग
1 अब मुसलमान खुद के अंदर झाँकता रहता हूँ मैं
मौत के काले समंदर में उभरते-डूबते
2 बर्फ के तोदे की सूरत डोलता रहता हूँ मैं
इन फजाओं में उमड़ती। फैलती खुशबू है वह
इन खलाओं में रवाँ बनकर हवा रहता हूँ मैं
जिस्म की दो गज जमीं में दफ्न कर देता है वह
3 कायनाती हद की सूरत फैलता रहता हूँ मैं
4 दोस्तों से सर्द-मेहरी भी मेरे बस में नहीं
5 और मुरव्वत की तपिश में खौलता रहता हूँ मैं
6 इक धमाके से न फट जाये कहीं मेरा वुजूद
अपना लावा आप बाहर फेंकता रहता हूँ मैं
चैन था खालिद तो घर की चारदीवारी में था
रेस्तोरानों में अबस क्या ढूँढ़ता रहता हूँ मैं

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1. लगातार। 2. ढेर। 3. सृष्टि की सीमा।
4. ठंडापन। 5. लिहाज। शील-संकोच।
6. अस्तित्व

साभार- गर्भनाल