अमरीका में भी हिन्‍दी का महत्‍व

- डॉ. जवाहर कर्नाव

हॉलैंड में जन्मे डॉ. हर्मन वॉन ऑल्फन अमरीका में बस गए हैं और वहाँ हिन्दी पढ़ाते हैं। ऐसे दौर में, जब भारत में ही हिन्दी की स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है, एक गैर भारतीय द्वारा भारत के बाहर हिन्दी के प्रसार में जुटना सुखद अहसास कराता है।

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डॉ. हर्मन वॉन ऑल्फन, टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन (अमरीका) में गत चार दशकों से हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन कर रहे हैं। उन्होंने हिन्दी के क्रियापदों के अलावा हिन्दी की संरचना एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं पर भी शोध कार्य किया है। पिछले दिनों अमरीकी राष्ट्रपति बुश द्वारा घोषित राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा पहल (नेशनल सेक्यूरिटी लैंग्वेज इनिशिएटिव) हेतु हिन्दी-उर्दू भाषा के फ्लैगशिप कार्यक्रम के भी वे निर्देशक हैं। उनसे अमरीका में हिन्दी शिक्षण और हिन्दी की वैश्विक स्थिति पर लंबी बातचीत हुई। धाराप्रवाह हिन्दी में व्यक्त उनके विचारों के प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत हैं-

अमरीका में रहते हुए आप हिन्दी की ओर कैसे आकर्षित हुए?

अमरीका में सभी लोग कोई न कोई विदेशी भाषा सीखते हैं। भाषा सीखना तो एक प्राकृतिक कार्य होता है। कक्षाओं में बड़ी उम्र में भी भाषा सीखी जाती है। हमारे लिए स्नातकोत्तर स्तर पर यह अनिवार्य था कि एक गैर योरपीय भाषा सीखें। संयोग से 40 वर्ष पूर्व मैंने हिन्दी को चुन लिया।

अमरीका में रहते हुए आप हिन्दी की ओर कैसे आकर्षित हुए?

अमरीका में सभी लोग कोई न कोई विदेशी भाषा सीखते हैं। भाषा सीखना तो एक प्राकृतिक कार्य होता है। कक्षाओं में बड़ी उम्र में भी भाषा सीखी जाती है। हमारे लिए स्नातकोत्तर स्तर पर यह अनिवार्य था कि एक गैर योरपीय भाषा सीखें। संयोग से 40 वर्ष पूर्व मैंने हिन्दी को चुन लिया।

क्या वह अमरीका में हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने का शुरुआती दौर था?

सन्‌ 1958 में रूसियों ने जब 'स्पूतनिक' छोड़ा तो उसकी हलचल अमरीका में भी हुई। विज्ञान और भाषा की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया जाने लगा। वर्ष 1958 में अमरीका के कुछ चुने हुए विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण शुरू हुआ और पाठ्य पुस्तकें भी तैयार की गईं। मैंने स्वयं हिन्दी के क्रियापदों पर एक पुस्तक तैयार की। दरअसल उस समय प्रवासी भारतीयों की संख्या कम थी। विश्वविद्यालयों में बहुत सीमित कार्य था और छात्र भी कम थे। कोई भी अमरीकी प्रशिक्षक हिन्दी पढ़ाने वाला नहीं था। मेरे शिक्षक थे कामताप्रसाद दीक्षित। 1960 के बाद इसमें काफी प्रगति हुई किंतु फिर यह सिलसिला ढीला पड़ता गया। 11 सितंबर 2001 की घटना के बाद इस कार्य ने फिर गति पकड़ी है। अमरीकी कार के फ्लैगशिप कार्यक्रम के अंतर्गत परियोजना है कि यहाँ के विद्यार्थी अपने विषय के साथ एक अन्य भाषा में भी निपुण हों, जिसमें हिन्दी भी शामिल है।

अमरीकी सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा पहल कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?

अमरीकी सरकार का मानना है कि विदेशी भाषाएँ सीखने और पढ़ाने में कमजोरी का अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा, कूटनीति, कानून व्यवस्था और सांस्कृतिक समझ पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इस कमी के चलते हम विदेशी मीडिया से प्रभावी संवाद नहीं कर पाते, आतंकवाद का मुकाबला करने की हमारी कोशिशों पर आघात लगता है, युद्ध झेल चुके क्षेत्रों के निवासियों और सरकारों के साथ काम करने की हमारी क्षमता पंगु हो जाती है और आपसी समझ भी नहीं बढ़ पाती। इसके अलावा विदेशों में प्रभावी संबंध बनाने और नए बाजारों सेजुड़ने की व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में भी रुकावटें आती हैं। इस चिंता का मुख्य कारण अमेरिका को इराक और अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ जंग में संदिग्ध आतंकवादियों से पूछताछ करने और उनकी बातचीत समझने में हुई परेशानी भी है, क्योंकि हमारे पास हिन्दी,उर्दू, पश्तो और दारी समझने वाले सुरक्षाकर्मी नहीं थे। ऐसे में उन्हें भारतीय मूल के लोगों से ही मदद लेनी पड़ी थी।

आज अमरीका में हिन्दी शिक्षण किस स्थिति तक पहुँच गया है?

अमरीका में फिलहाल सरकारी स्तर पर हिन्दी की पढ़ाई केवल विश्वविद्यालय स्तर पर ही हो रही है अर्थात हम शिक्षा के 13वें से 16वें वर्ष में हिन्दी पढ़ाते हैं लेकिन उद्देश्य है कि हाईस्कूल में भी हिन्दी की शिक्षा दी जाए। यूस्टन के बाद निजी स्तर पर तो अनेक स्थानों पर हिन्दी की पढ़ाई हो ही रही है और अब इसकी माँग भी बढ़ रही है। भाषा शिक्षण संबंधी वेबसाइट पर देशवासी अपनी भाषा के शिक्षण की व्यवस्था के लिए वोट डाल सकते हैं। हायर सेकंडरी स्तर पर हिन्दी पढ़ाने के लिए 10 लाख वोट डाले जा चुके हैं। हिन्दी, चीनी को तो अब व्यापार के लिए भी जरूरी माना जा रहा है। शनिवार-रविवार को भी हिन्दी की पढ़ाई होती है।

कुछ निजी संस्थाएँ जैसे यूएसए हिन्दी समिति आदि भी इस दिशा में प्रयासरत हैं?

जी हाँ, यूएसए हिन्दी समिति इस दिशा में काफी कार्य कर रही है। न्यूजर्सी में सबसे ज्यादा हिन्दुस्तानी लोग रहते हैं, अतः वहाँ इसका
अमरीकी सरकार का मानना है कि विदेशी भाषाएँ सीखने और पढ़ाने में कमजोरी का अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा, कूटनीति, कानून व्यवस्था और सांस्कृतिक समझ पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है
फैलाव सबसे ज्यादा है। 1994 में टेक्सास में वेदप्रकाश बटुक (बरकले विश्वविद्यालय) ने भी इसकी शुरुआत की थी। इसके अलावा अब तो हिन्दीके कवि सम्मेलन और कार्यक्रम भी बहुत होते हैं।

यह बात तो हुई भारतीय मूल के लोगों की, किंतु क्या अमरीकन विद्यार्थी भी हिन्दी पढ़ने की ओर अग्रसर हो रहे हैं?

अमरीकी छात्रों की संख्या कम है किंतु हम चाहते हैं कि उनका झुकाव इस ओर बढ़े। भाषा के फ्लैगशिप कार्यक्रम के माध्यम से उनका रुझान इस ओर बढ़ा भी है। इंजीनियरिंग, विज्ञान, चिकित्सा की शिक्षा की पढ़ाई के साथ-साथ प्रतिदिन एक-एक घंटा हिन्दी/उर्दू पढ़ाने की व्यवस्था भी की गई है। यदि छात्र एंथ्रोपोलॉजी पढ़ रहा है तो कुछ समय हिन्दी भी पढ़ेगा। इसमें उनकी मदद के लिए सहायक शिक्षक भी होंगे। शिक्षकों की संस्था भी बढ़ाई जा रही है।

अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने जिस राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा पहल कार्यक्रम की शुरुआत की है, उसके माध्यम से हिन्दी शिक्षण किस प्रकार आगे बढ़ सकेगा?

यह एक बहुत बड़ा कार्यक्रम है जिसमें केजी से विश्वविद्यालय तक के विद्यार्थियों, यहाँ तक कि सरकारी कर्मचारियों में भी अरबी, चीनी, रशियन, हिन्दी, फारसी और अति आवश्यक भाषाएँ जानने वालों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि होगी। मैंने जिस फ्लैगशिप कार्यक्रम का जिक्रकिया था, वह पहले से अरबी, चीनी, कोरियन, रशियन आदि के लिए संचालित हैं। अब यह कार्यक्रम हिन्दी, उर्दू के लिए भी प्रारंभ किया गया है। इसके अलावा फुलब्राइट भाषा कार्यक्रम में हिन्दी विद्यार्थियों को भारत भेजा जाएगा और हिन्दी भाषा के शिक्षक अमरीका जाएँगे। इसके लिए उन्हें काफी पैसा और सुविधाएँ भी दी जाएँगी। यह आदान-प्रदान का कार्यक्रम 15-20 विद्यार्थियों से प्रारंभ होकर बढ़ता जाएगा। अमरीकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज के अंतर्गत जयपुर में हमारा केंद्र अमरीकी विद्यार्थियों को हिन्दी सिखाने के लिए पहले से ही कार्यरत है। अमरीका में मेरे अलावा रूपर्ट स्नैल (जो ब्रिटेन में हिन्दी के प्रसिद्ध शिक्षक रहे) भी आ गए हैं। कुछ और सहायक शिक्षक भी चुने जाने हैं

अमरीका में हिन्दी शिक्षण की मुख्य बाधा क्या है?

हिन्दी प्रशिक्षण के लिए बहुत-सी सामग्री तैयार करना है। साहित्य तो बहुत है, आरंभिक व्याकरण भी है, किंतु अब हम मीडिया का प्रयोग
जब तक देश में, यानी भारत में हिन्दी पूरी तरह स्वीकार नहीं होती, तब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे स्थापित होगी? यहाँ लोग मजबूरी में 'अंतरराष्ट्रीय' बनने की कोशिश करते हैं, जबकि दूसरे देशों में ऐसा नहीं है
ज्यादा-से-ज्यादा करना चाहते हैं। विद्यार्थी केवल पढ़े-लिखे ही नहीं, सुने भी। टीवी पर संस्कृति से संबंधित कार्यक्रम हों जिनका उपयोग भाषा शिक्षण के लिए किया जाए। भारत के सहयोग से यह कार्य भी हम करने जा रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की स्थिति के बारे में आप क्या महसूस करते हैं?

जब तक देश में, यानी भारत में हिन्दी पूरी तरह स्वीकार नहीं होती, तब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे स्थापित होगी? यहाँ लोग मजबूरी में 'अंतरराष्ट्रीय' बनने की कोशिश करते हैं, जबकि दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। चीन, अफगानिस्तान और अन्य देशों को देखें-वहाँ अपनी भाषा का ही प्रयोग होता है, इसलिए बाहर के लोगों को भी वहाँ चीनी-अरबी का ज्ञान हो जाता है किंतु हिन्दुस्तानी से मुलाकात होती है तो अँग्रेजी में ही बात करते हैं। हिन्दुस्तान बहुभाषित देश होने के कारण भी समस्या है। अँग्रेजी माध्यम की शिक्षा होने से भी विपरीत प्रभाव होता है। किंतु यह स्थिति बदलेगी नहीं, संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को लाने की कोशिश हो रही है किंतु जब तक भारतीय प्रतिनिधि वहाँ हिन्दी में बोलेंगे ही नहीं तो यह कैसे संभव होगा? अगर हिन्दी की स्थिति भारत में अच्छी होती तो विश्व हिन्दी सम्मेलन की जरूरत हीनहीं होती। देखिए, कोई चीनी सम्मेलन तो नहीं होता।

हिन्दी का आज बदला हुआ स्वरूप भी हमें दिखाई दे रहा है, खासकर अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग बहुत बढ़ गया है। आपके अनुसार भविष्य में हिन्दी का क्या स्वरूप होगा?

मुश्किलें तो बढ़ती जा रही हैं किंतु मैं जब टीवी पर अमिताभ बच्चन या महेश भट्ट को सुनता हूँ तो ये लोग तो बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैं। विज्ञापन की भाषा में हिन्दी का मानक प्रयोग नहीं हो रहा। कुछ लोग बहुत अँग्रेजी मिलाकर बोलते हैं तो कुछ क्षेत्रीय भाषा भी, जैसे पंजाबी में 'मैंने जाना है, तेरे को, मेरे को।' ये हिन्दी के मानक प्रयोग तो नहीं है। पाकिस्तानी उर्दू में भी पंजाबी के बहुत से शब्द आ जाते हैं। एक समाचार-पत्र में 'उन्होंने' के स्थान पर 'उनने' लिखा था। इस प्रकार भाषा में बदलाव आ रहा है। मैं हॉलैंड में पैदा हुआ और कई साल बाद वहाँ गया तो देखा कि डच भाषा बहुत बदल गई है। हर भाषा में परिवर्तन होंगे ही, इसमें चिंता की बात नहीं है। यह तो भाषा का स्वभाव है।