इस बस्ती के इक कूचे में

- इब्ने इंशा

GN
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशं नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया, मशहूर है उसका अफसाना

उस नार में ऐसा रूप न था, जिस रूप से दिन की धूप दबे
इस शहर में क्या-क्या गोरी है, महताब-रुखे गुलनार-लबे

कुछ बात थी उसकी बातों में, कुछ भेध थे उसकी चितवन में
वह भेद की जोत जगाते हैं, किसी चाहने वाले के मन में

उसे अपना बनाने की धुन में, हुआ आप ही आप से बेगाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम की दीवानी

न चंचल खेल जवानी के, न प्यार की अल्हड़ घातें थीं
बस राह में उनका मिलना था, या फोन पर उनकी बातें थीं
इस इश्क पे हम भी हँसते थे, बे-हासिल-सा बे-हासिल था?
इक जोर बिफरते सागर में, न किश्ती थी न साहिल था
जो बात थी उसके जी में थी, जो भेद था यकसर अनजाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

इक रोज बरखा रुत में, वह भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समंदर के, यह देखने वालों ने देखा
मस्ताना हाथ में हाथ लिए, वो एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई, जब सैलानी घर लौट गए
क्या रात थी वह जी-चाहता है उस रात पे लिखें अफसाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

हाँ उम्र का साथ निभाने के थे अहद बहुत पैमान बहुत
वो दिन पे भरोसा करने में कुछ सूद नहीं, नुकसान बहुत

वह नार यह कहकर दूर हुई 'मजबूरी साजन मजबूरी'
यह वहशत से रंजूर हुए और रंजूरी-सी रंजूरी?
उस रोज हमें मालूम हुआ, उस शख्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

गो आग से छाती जलती थी, गो आँख से दरिया बहता था
हर एक से दुख नहीं कहता था, चुप रहता था गम सहता था
नादान हैं वो जो छेड़ते हैं, उस आलम में नादानों को
उस शख्स से एक जवाब मिला, सब अपनों को बेगानों को
'कुछ और कहो तो सुनता हूँ, इस बाब में कुछ मत फरमाना'
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना

अब आगे की तहकीक नहीं, गो सुनने को हम सुनते थे
उस नार की जो-जो बातें थीं, उस नार के जो-जो किस्से थे
इक शाम जो उसको बुलवाया, कुछ समझाया बेचारे ने
उस रात यह किस्सा पाक किया, कुछ खा ही लिया दुखियारे ने
क्या बात हुई किस तौर हुई, अखबार से लोगों ने जाना
इस बस्ती के इक कूचे में, इक इंशा नाम का दीवाना।

साभार - गर्भनाल