जनम के फेरे

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लावण्या शाह 22 नवंबर 1950 को बंबई (अब मुंबई) में जन्म। समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में बीए ऑनर्स। पिता प्रख्यात गीतकार पं. नरेन्द्र शर्मा। काव्य संग्रह फिर गा उठा प्रवासी प्रकाशित

पेरिस एयरपोर्ट से जब तक हवाई जहाज ने उड़ान भरी, शोभना अपने आँसुओं से गीला चेहरा, अपनी सीट के साथ लगी खिड़की से सटाए, विवशता, क्षोभ और हताशा के भावों में डूबती-उतराती रही। फिर अपना छोटा-सा मखमली रुमाल, कोट की जेब से निकालकर उसने लाल हो रही आँखों से लगाया। आँसू सोखे ही थे कि फिर कुछ बूँदें निकलकर बह चलीं! पेरिस हवाई अड्डे की रोशनियाँ विमान के टेक ऑफ की तेज गति के साथ उड़ान भरते ही धुँधलाने लगीं...

उसने आसपास नज़रें घुमाईं तो देखा कि कुछ यात्री अपनी सीटों के हत्थों को कसकर थामे हुए थे। कुछ लोगों ने आँखें भींच ली थीं। किसी ने दाँत से होंठों को दबा रखा था तो कुछ लोग बुदबुदा रहे थे! शायद प्रार्थना कर रहे हों! हर मज़हब के देवता से दया की भीख माँग रहे थे ऐसे समय में फँसे ये सारे इंसान जो उसके सहयात्री थे।

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शोभना ने मन ही मन कहा- 'ये पृ्थ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बढ़ती जा रही यान की दूरी का प्रभाव था जो ये हाल किए था तब एक माँ मैं भी तो हूँ! मुझसे अलग होते मेरे बच्चों को क्या मेरी कमी नहीं खलती?' शोभना पर विमान की उड़ान का कोई खास असर नहीं हुआ। वह अपने आसपास की घटना से मानो बेखबर थी क्योंकि उसका मन तो भारत में अपनी ससुराल के द्वार पर विवश होकर मानो वहीं ठिठका हुआ अब भी खड़ा था।

शोभना सालों बाद भारत लौटी थी। भारत! उसका प्रिय भारत मानो किसी दूसरे सौरमंडल का कोई ग्रह या एक सितारा बन गया था उसके लिए! उसकी पहुँच से बाहर! अरे! सितारे और सारे ग्रह, नक्षत्र तो वो भी देख लेती थी स्याह होते आकाश में टिमटिमाते हुए। जब भी, देर से, सारा दिन काम करके थकी-माँदी अपने वृद्ध माता-पिता के साथ जब वह कोंडो के लिए लौटती थी तब नज़रें आकाश की ओर उठ जाती थीं और वह सोचती, बच्चे भारत में शायद सूर्य को देख रहे होंगे। अगर यहाँ रात घिर आई है तो। भारत तो बस अब उसके सपनों में दिख जाता था और दिखाई देते थे उसके दो बेटे।

दिव्यांश और छोटा अंशुल।

कितने जतन करके बड़ा किया था अंशुल ने उन्हें। हाँ सासुजी मधुरा माहेश्वरी भी अपने दोनों पोतों पर जान छिड़कती थीं। देवरजी सोहन भैया भी कितना प्यार करते थे दोनों बच्चों को!

'हमारे प्रिंस हैं ये' हमेशा ऐसा ही कहा करते थे। उसके साथ शोभना को यह भी याद आया कि फैले हुए भरे-पूरे ससुराल के कुनबे के रीति-रिवाजों, त्योहारों, सालगिरह के जश्न जैसे उत्सवों के साथ उसे 24 घंटों का दिन भी कम पड़ जाया करता था। परिवार के लोगों का भोजन, चाय, नाश्ता तैयार करवाना, बड़ी बहू होने के नाते हर धार्मिक अनुष्ठान में उसका मौजूद रहना अनिवार्य था। साथ-साथ बड़ों की आवभगत, मेहमानों के लिए सारी सुख‍-सुविधाएँ जुटाना- ये सारे कार्य उसी के जिम्मे थे।

रात देर से चौका निपटाकर वह सोने जाती तब तक उसके पति धर्मेश पीठ किए सो रहे होते- कई बार खिन्न मन से चारपाई पर लेटते मन में उभरे अवसाद को वह कहीं गहरे गाड़ देती और ईश्वर को नमन करके थक के चूर हुई शोभना को कब नींद आ घेरती उसे पता ही नहीं चलता।

सालों बीत गए, उसे पता ही चला। शोभना का वैवाहिक जीवन मझधार में डूबती-उतरती नैया की मानिंद हिचकोले खा रहा था। इस बात से शोभना मुँह मोड़ न पाती थी।

धार्मिक उत्सवों पर, परिवार के लिए सास-ससुरजी पानी की तरह पैसा बहा देते। जब-जब उसे बच्चों की स्कूल फीस के लिए या डॉक्टर परिमल सेठना के पास उन्हें ले जाना होता या स्वयं की दवाई के लिए पति से पैसे माँगती तो धर्मेश का दो टूक जवाब होता बाबूजी से जाकर माँग लो।

कई बार वह हारकर बाबूजी के पास या मधुराजी से कहती तो वे टाल जाते। जब माँगने पर भी पैसा नहीं मिलता तो हताशा खीझ में बदल जाती। कई बार ऐसे बहाने भी बनाए जाते कि कुछ दिनों बाद बिल दे देंगे बहू, कुछ दिनों बाद ले जाना।

बार-बार ऐसा होने पर उसे संकोच होने लगता और वह तिलमिला उठती- कोल्हू के बैल की तरह बनी बड़ी बहू की यही औकात है! आखिर हर बार मिन्नतें करनी होगी मुझे। बच्चों से सभी प्यार करते हैं तब उनकी देखभाल, शिक्षा की जिम्मेदारी भी क्या संयुक्त परिवार का जिम्मा नहीं? ये कहाँ का न्याय है? नहीं-नहीं ये सरासर अन्याय है। कब तक इस तरह घुटती रहूँगी मैं?

वह सोच-सोचकर परेशान हो जाती। संयुक्त परिवार में ऐसे भी होता है, किसी का दम घुट जाता है तो कोई जिसके हाथ में सत्ता की बागडोर है, पैसों का व्यवहार जो थामे हुए हो वे मौज करते हैं। मनमानी करते हैं और शांत घरों में, सभ्य रीत से फैलता है एकाकीपन!

ये विडंबना ही तो है आधुनिक युग की। कबीरदासजी ने सही कहा था- दो पाटन के बीच में बाकी बचा न कोई। यहाँ कोई अदालत नहीं, जो न्याय, व्यवस्था देखे। एक दिन जब उसने अपनी माँ रमादेवी से दबी जबान में कहा कि माँ मुझे रुपयों की जरूरत है। तब रमादेवी भाँप गई कि उनकी लाडली दो कुल की लाज बचाने के लिए माँ से माँग रही है। माँ ने काँपते हाथों से उसे रुपए दे दिए। बेटी की इज्जत माँ ही तो ढँकती है आखिर।

माँ के कहने पर कुछ दिनों बाद उसके पिताजी एक दिन उससे मिलने आए थे। उसकी ससुराल और आवभगत से निपटकर शोभना को अपने साथ एक स्थानीय बैंक में ले जाकर कई हजार रुपए जमा कराए और कहा था- बेटी जब भी जरूरत हो इसी खाते से ले लेना। और प्यार से माथा सहलाते कहा- मेरी प्यारी बिटिया।

धीमे से कहकर वे लंबे-लंबे डग भरते हुए, पीछे मुड़कर देखे बिना, तेजी से शोभना को बैंक के बाहर अकेली खड़ा छोड़कर चले गए थे। उनकी सीधी पीठ को गली के बाहर ओझल होता देखती रही थी वह। और फिर लंबी साँस लेकर घर लौट आई थी। हाँ घर वही ससुराल ही तो अब एक ब्याहता का घर होता है। ऐसे उदार पिता धनपतराय उसे मिले जो बिटिया का संसार एक बारगी फिर सँवारकर चले गए थे। सज्जन मनुष्य ऐसे ही होते हैं। नेक चलन के भले इंसान बाबा ने शादी के समय भी समधियों की खूब आवभगत की थी। हर तरह से संतुष्ट करके ही बेटी को बिदा किया था उन्होंने।

राजशाही ठाठ से संपन्न हुई थी शादी। बेटी पराया धन होती है। यह सोचकर रमादेवी और धनपतराय ने अपने इस पराए धन में कुछ और धन जोड़कर अपनी 'कन्यादान' किया था। अपना जन्म पुण्यशाली बनाने का गौरव अवश्य प्राप्त कर लिया था उन्होंने। कन्या को ससुराल भेजकर मन को यही क हते हुए सांत्वना दी थी कि यही जग की रीति है।

धर्मेश को बैंक खाते के बारे में कुछ दिनों बाद पता चला जब शोभना ने ससुराल के किसी भी सदस्य से पैसे माँगना बंद कर दिया। तब अचानक धर्मेश को यह विचार आया कि मामला क्या है? शोभना के मन में कोई छल नहीं था। वह बैंक की पासबुक अपनी साडि़यों के साथ सामने ही कबाट में रखती, जो उसने देख ली थी, लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

फिर कुछ महीने आराम से बीते। ऊपर से शांत लग रहे वातावरण में भी भीतर ही भीतर मानसिक संताप की दहकती लकीर, कहीं गहरे फिर भी जल रही थी। उनके परिवार में एक तरह की उद्विग्नता प्रवेश कर चुकी थी।

इसी बीच शोभना ने बीएड का डिप्लोमा हासिल करने का कोर्स शुरू कर दिया। बच्चे अब सारे दिन की स्कूल में जाने लगे थे और दोपहर बाद जब वे घर लौटते, शोभना भी भागती-पड़ती अपना कोर्स निपटाकर उनका होमवर्क लेने, अगले दिन का पाठ तैयार करने और उन्हें नाश्ता खिलाने घर पहुँच ही जाती। खूब मेहनत कर रही थी वह भी। ससुराल के फैले भरे-पूरे परिवार के पर्व, उत्सव, अतिथि सत्कार पूर्ववत चलते रहे।

कई बार अतिथि समुदाय को नाश्ता देकर शोभना अपने बेटों को बंद कमरे में पढ़ाया करती। कई बारे सोचती- टीचर का कोर्स करना सही समय पर लाभ दे रहा है जिससे वह अपने बच्चों को सही मार्गदर्शन दे पाती। अब ‍बच्चों को लाभ हो रहा था। वे क्लास में टॉप करने लगे। इस बात का श्रेय भी बहू को न मि‍लता, परिवार यही कहता कि यह तो हरेक माँ का फर्ज है।

शोभना चाहकर भी कभी यह नहीं कह पाती कि धर्मेश निठल्लू है काम करने से कतराते हैं। उनका परिवार भी कुछ नहीं कहता। काम पर जाते-जाते दोपहर हो जाती। सुबह उठकर स्नान के बाद पूरे चार घंटों तक धर्मेश पूजा-पाठ करते मानो अपना नाम ही ‍चरितार्थ करते! शोभना को यह सब अजीब लगता पर वह खामोश रहती। उसी अर्से में ससुरजी का हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। सारा परिवार शोक-संतप्त। देवरजी सोहन ने घर के व्यवसाय पर पकड़ मजबूत करते हुए सारा अपने कब्जे में कर लिया। दूसरी ओर धर्मेश संसार में रहते हुए मानो संन्यासी बन गए।

शोभना के साथ उसके संबंध सिर्फ पूजा की सामग्री ग्रहण करने में या बरामदे में पुरखों के समय के लगे बड़े से काठ के झूले पर बैठे-बैठे रात्रि की प्रतीक्षा में उमसभरे बोझिल दिनों की पूर्णाहुति करते हुए़, इतने सघन हो उठते कि शोभना को अपना जीवन व्यर्थ लगने लगता। उसका जीवन मानो बियाबान रे‍गिस्तान में तब्दील हो चुका था जिसके अंत का कोई छोर न था।

जैसे-तैसे जिंदगी ऐसी ही मन:स्थिति में शोभना ने गुजार दी। बच्चों को यंत्रवत पढ़ाती, घर के कार्य निपटाती, गृहस्थी का भार उठाती वह युवावस्था में वृद्ध-सा महसूस करने लगी थी। थकी-थकी रहती।

माता-पिता भी उसी अर्से में भाइयों के पास अमेरिका चले गए थे। तब तो वह और भी अकेली पड़ गई थी। एक दिन धर्मेश ने ही सुझाव रखा कि तुम्हारे बाबा जो पैसा जमा करवाकर गए हैं, उन्हीं से कुछ बाँधणी साडि़याँ, राजस्थानी अलंकार वगैरह लेकर क्यों न हम अम‍ेरिका जाएँ और वहाँ प्रदर्शनी करें, अवश्य मुनाफा होगा। तब शोभना विस्मय से देखती रह गई पर आखिर मान गई क्योंकि पहली बार उसके पति ने कोई नया काम करने के प्रति उत्साह दिखलाया था और उसे सहमत होना सही लग रहा था

खैर दोनों ने ठीक जैसा सोचा था वही किया- बच्चों को सासुजी के पास छोड़कर वे अमेरिका चले गए। माँ, बाबूजी और भाइयों ने खूब स्वागत किया और सारा इंतजाम भी करवाया। सच में मुनाफा भी खूब हुआ। एक दिन रात को भैया के घर धर्मेश ने सारा पैसा गिनकर सहेजा और कहा- कल मैं यहाँ बैंक में जाकर खाता खुलवा देता हूँ।

पता नहीं क्या हुआ कि शोभना के धैर्य का बाँध टूट गया। वह बिफर पड़ी- ना! ये मेरे बाबा का दिया पैसा था धर्मेश। उन्हें उनका पैसा लौटा दो और बाकी का मुनाफे का हिस्सा मुझे दे दो।

पहली बार हक जताते हुए कुछ ऊँची आवाज में शोभना ने यह कहा तो धर्मेश भौंचक्का रह गया।
'क्या कहा तुमने?'
इतना ही बोल पाया तो साहस बटोर कर शोभना ने कहा- पैसा बच्चों पर ही आज तक मैंने खर्च किया है।

तब धर्मेश ने शोभना को उसी के भाई के घर में खूब खरी-खोटी सुनाई, खूब डाँटा। शोभना उसके कापुरुष को उसके मुखौटे को उतरा हुआ हताशा से भरकर देखती रही। यही था उनके आपसी पति-पत्नी के रिश्ते का अंत। वे खूब झगड़े थे... उस रात, सारे बंधन टूट गए थे और बात तलाक शब्द पर आ रुकी। तलाक शब्द धर्मेश ने ही पहले कहा और रोती हुई शोभना को छोड़कर टैक्सी मँगवाकर माँ-बाबूजी या भाई से मिले बगैर रात के अँधेरे में भारत जाने के लिए निकल पड़ा तब शोभना को उसके भग्न हृदय और टूटे रिश्ते का अहसास हुआ।

और अहसास हुआ अपनी आँखों के तारे दोनों बेटों के भारत में रह जाने का। बाद में धर्मेश के वहाँ पहुँचने के बाद सासुजी और देवरजी ने बच्चों को बहकाया कि 'तुम्हारी मम्मी को डॉलर पसंद हैं तुम नहीं! पर तुम हमें तो पसंद हो।'

सालों तक शोभना अपने पैरों पर खड़ा होने का संघर्ष करती रही। बच्चों से बात करने के लिए गिड़गिड़ाती रही परंतु सब व्यर्थ। बैंक में नौकरी करती रही। क्रिसमस के दिन जब अमेरिका छुट्टी मनाता है तब भी वह ओवरटाइम करती रही।

आखिर जब पैसे जुड़े तब भारत गई। ससुराल के किसी भी सदस्य ने उसे अब कुमार हो चुके बेटों से मिलने नहीं दिया।

सोहन की शादी हो चुकी थी। घर के रसोइए ने बताया कि नई बहूजी बच्चों का बहुत ख्याल रखती है।

हजार मिन्नतें कीं शोभना ने पर किसी ने नहीं सुनी। ‍तब हारकर वह अमेरिका वापसी के लिए दु:खी मन से प्लेन में आकर बैठ गई। भारत से प्लेन उड़ा तब तक वह संज्ञाहीन हो गई थी परंतु रीफ्यूलिंग के बाद पेरिस रुककर दोबारा जब प्लेन उड़ा तब रुलाई ऐसे शुरू हुई कि रुकी ही नहीं।

हाँ, जीवन में ऐसी यात्राएँ भी होती हैं।

आज का सम
अब शोभना अपना खुद का सफल व्यवसाय चलाती है। ड्रायक्लीनिंग का बिजनेस है। लोन लेकर शुरू किया था। काफी कर्ज वह दे चुकी है, संपन्न हो गई है। अपने बाबूजी और माँ को नए बड़े घर में अपने साथ रहने के लिए भाइयों से आग्रह करके लिवा लाई है। मर्सडीज कार भी खरीद ली है। स्वाभिमान की स्वतंत्र और मेहनतकश जिंदगी जी रही है

अकेलापन आज भी उसके साथ है क्योंकि उसने किसी दूसरे ‍मर्द को अपने पास आने ही नहीं दिया कभी। काम ही उसके जीवन का पर्याय बन गया है। उसके ससुराल में उसे धोबन कहकर संबोधित किया जाता है, जब दिव्यांश और अंशुल की मम्मी जो अम‍ेरिका में रहती है, उसके बारे में चर्चा या बात निकल आती है तब!

दोनों बेटों की कॉलेज की पढ़ाई का खर्च शोभना ने ही यहाँ से मनीऑर्डर करके भेज दिया। इसे वहाँ किसी ने साइन करके ले लिया। अब बच्चे उसके साथ कभी-कभार बात करने लगे हैं। शोभना नियमित उन्हें फोन करती रहती है।

शोभना को दृढ़ विश्वास है कि यह बच्चों का ‍भविष्य सँवारने में एक दिन अवश्य सफल होगी। धर्मेश आज भी पूजा-पाठ में घंटों गुजारते। उनके परिवार का काम सोहन ही देखते हैं। सासजी अपनी दादी की भूमिका में दिन-रात नई पी‍ढ़ी को कोसती रहती कि हमारे जमाने में ऐसा तो न था। ... और विश्व के सबसे समृद्ध देश अमेरिका में मेहनत करती शोभना शादी-ब्याह को आज भी जनम-जनम के फेरे मानती है।

- गर्भनाल से साभार