जिस तरह देखा है अब

- अनवर महमूद खालिद

1 मार्च, 1940 जन्म। गवर्नमेंट कॉलेज, फैसलाबाद में लेक्चरार। सोलह बरस के दौरान लिखी रचनाओं का पहला संग्रह 'अहद-नामा'(1973) में प्रकाशित। ऊहापोह को दिशाहीनता की बजाय युगधर्म माना है। एक ऐसे दौर में जीने का नतीजा जहाँ कोई चीज, कोई फलसफा, कोई तेवर, इत्मीनान नहीं बख्शता। अनवर की बेचैनी एक शापग्रस्त यक्ष की भटकन है। चरित्रहीन शब्दकार की गैर-जिम्मेदार ठिठोली नहीं।

GN
जिस तरह देखा है अब, पहले कभी देखा न था
इतनी शिद्दत से उसे मैंने कभी चाहा न था
देखते-ही-देखते नजरों से ओझल हो चला
मैंने तो जी-भर के भी उसको अभी देखा न था
जानता था कि यह होनी है जुदाई एक दिन
वह अचानक यूँ बिछड़ जाएगा - यह सोचा न था
पहले पाने की खुशी थी, अब उसे खोने का दु:ख
ख्वाब की लज्जत में गुम, ताबीर का धड़का न था
नौहा -उन आँखों का, जो तकते हुए पथरा गईं
मातम-उस आँसू का,मिज़गाँ पर से जो ढलका न था
आईने-से ख्वाब मेरे रेजा-रेजा हो गए
मैं तिलस्मे-बेहिसी को तोड़कर निकला न था
क्यों मेरी जूए-तलव्वुन के रवाँ पानी पे हूँ
मैं तो मोती था तेरे दिल का, कोई तिनका न था
मौजे-ग़म उठी तो साहिल को भिगोकर आ गई
दिल समंदर था, किनारों में घिरा दरिया न था
सिलसिला-दर-सिलसिला हैं सब सराबे-जिन्दगी
जहर चखने का यह खालिद तजुर्बा पहला न था।

साभार - गर्भनाल