परित्यक्ता - भाग 1

- कुसुम सिन्हा

GN
साहित्य में अभिरुचि पिता से विरासत में मिली। पटना विवि से एम.ए.बी.एड.। लगभग 25 वर्षों तक हिंदी पढ़ाती रहीं। 1997 में अमेरिका आईं। भारत की नामी पत्रिकाअओं के अलावा अमेरिका से निकलने वाली विश्वा, साहित्य कुंज, सरस्वती सुमन आदि में रचनाएँ प्रकाशित। भाव नदी की कुछ बूँदें काव्य संग्रह प्रकाशित। दो किताबें प्रकाशाधीन

बस से उतरकर तेजी से पाँव बढ़ाती वंदना जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहती थी। दिनभर बार-बार उसके दिल में यह ख्याल आ रहा था कि नन्हा अतुल रो रहा होगा और वह घर तक की दूरी दौड़कर तय कर ले। अतुल कितना बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा? उसे भी कहाँ अच्छा लगता था उसे छोड़कर इतनी देर तक घर से बाहर रहना? सिर्फ तीन साल का नन्हा-सा अतुल। उसे तो अभी माँ की गोद में ही रहना चाहिए। लेकिन मजबूरी मनुष्य से क्या-क्या नहीं करा लेती?

अपनी मजबूरी पर उसे रोना आ जाता पर वह अपने आँसू किसी को दिखाना नहीं चाहती थी। जब भी वह उदास होती उसे अमर के वे शब्द पिघले शीशे जैसे कानों में जलन पैदा करने लगते। उसे सब कुछ याद आने लगता जब अमर ने दो टूक फैसला सुनाते हुए कहा था‍ कि अब वह रुचि के साथ रहेगा। वह उसे प्यार करता है और उसके बिना नहीं रह सकता। उसका एक-एक शब्द हथोड़े की तरह पड़ता रहा और वह चूर-चूर होती हुई भी खड़ी रही। उसने कारण जानना चाहा लेकिन कहाँ अमर ने कुछ कहा। न उसकी कोई कमी बताई और न कोई कारण। अमर की माँ ने चौंकते हुए पूछा- क्या कह रहा है? जिसके साथ सात फेरे लिए उसे इस तरह कैसे छोड़ सकता है? शादी-ब्याह क्या गुड्डियों का खेल है? बोलते-बोलते रो पड़ी।

GN
बोली- क्या किया है मेरी बहू ने? तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? मेरे खानदान में कभी ऐसा हुआ है? फिर क्या गलती की है इसने? क्या करेगी, कहाँ जाएगी कुछ सोचा है? और यह बच्चा उसके बारे में सोचोगे? ऐसे ही कह दिया किसी और के साथ रहूँगा? यह कोई मजाक है?

अमर ने तीखे स्वर में कह दिया- मैं इस बारे में कुछ बात नहीं करना चाहता। उसका एक-एक शब्द हथोड़े की तरह वंदना के हृदय को चूर-चूर करता रहा। अमर की माँ बहुत देर तक बुरा-भला कहती रही पर वह घर से बाहर चला गया। वंदना रातभर रोती रही। उसे तो चारों ओर अंधकार ही अंधकार नजर आ रहा था। कहाँ जाएगी? क्या करेगी?

सुबह उसकी आँखें लाल देखकर अमर की माँ उसे कलेजे से लगाकर रो पड़ी। वंदना को सांत्वना तो दे रही थी पर खुद कितनी विचलित थी वही जानती थी। उन्होंने कहा- मैं आज से उस नालायक की माँ नहीं हूँ। उसके साथ नहीं रहूँगी। तुम परेशान न हो बेटी मैं हूँ न तुम्हारे पास। तुम मत रो।

वंदना ने उनके पाँव पकड़कर कहा- आप पिछले जन्म में मेरी माँ तो नहीं थीं? मैंने तो अपनी माँ का मुँह नहीं देखा पर आपको देखकर ऐसा लगता है कि आप ही मेरी माँ थीं। अमर की माँ ने उसे गले लगाते हुए कहा- हाँ बेटी मैं ही तेरी माँ थी। औलाद के नालायक होने का दु:ख बहुत बड़ा होता है। उसने तो मेरे दूध की लाज भी नहीं रखी। अपने पोते को और तुम्हें छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊँगी।

बहुत रोने-धोने के बाद वंदना ने निश्चय किया कि वह अपने पैरों पर खड़ा होकर अतुल तथा अपना जीवन निर्वाह करेगी। इस पराजय स्वीकार नहीं करेगी। पढ़ी-लिखी है। कहीं न कहीं तो नौकरी मिल ही जाएगी। नौकरी के आवेदन तो बहुत पहले ही दे दिया था किंतु अमर ने मना कर दिया था ‍नौकरी करने को। पर अब जब अमर ने ही उसे इस तरह छोड़ दिया है तो फिर वह क्या करे? उसने बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला और नौकरी करने का निश्चय किया। माँ के पास नन्हे अतुल को छोड़कर चल पड़ी साक्षात्कार के लिए।

अपनी विवशता पर उसे बड़ा रोना आ रहा था और बार-बार आँखें भर आ रही थीं। यह तो ईश्वर की कृपा थी कि उसे अच्छी नौकरी जल्द ही मिल गई। जीने के लिए पैसे तो चाहिए ही। शुरू में उसे अतुल को छोड़कर जाना बहुत बुरा लगा। पल-पल पहाड़ की तरह बीतता, लेकिन धीरे-धीरे मन को समझा लिया। दूसरी अच्छी बात यह थी कि अतुल दादी के साथ बहुत हिला हुआ था और मजे के साथ उनके पास रह लेता था। कभी खिलौनों से खेलता कभी दादी की कहानियाँ सुनता- सुनाता और सो जाता, लेकिन वंदना का तो एक-एक पल भारी था, वह माँ जो थी।

उसे अमर की बातें फिर याद आने लगीं। एक पल को भी वह उसे भूल नहीं पाती थी। हर पल, हर क्षण उसकी बातें, उसके साथ बिताए पल, दिन उसके हृदय को घावों की तरह जैसे नोंच डालते थे। वंदना के पाँव अचानक एक गड्ढे में पड़ गए। गिरत-गिरत बची। अपने को संभालकर उसने इधर-उधर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा? कोई नहीं था पर सामने की खिड़की में बैठी एक छोटी लड़की उदास आँखों से देख रही थी।

पता नहीं किस चिंता में अपने गालों पर हाथ रखे बैठी थी। वंदना ने गौर से उसकी ओर देखा इस उम्र में बच्चों की आँखों में जो चंचलता रहती है वह वहाँ नहीं थी। वहाँ तो निराशा और दु:ख ही दिखाई दे रहा था। वंदना ने उसकी ओर देखा और हाथ हिलाया। लड़की के होठों पर छोटी-सी मुस्कान आ गई। यह देखकर वंदना को खुशी हुई। फिर तो रोज ही का क्रम बन गया और उसकी मुस्कान से वंदना का दु:ख पलभर के लिए ही सही गायब हो जाता।

उस दिन बृहस्पतिवार था और दफ्तर के एक कर्मचारी की फेयरवेल पार्टी के बाद छुट्टी हो गई थी। वंदना ने कुछ चाकलेट आदि खरीदी और चल पड़ी घर की ओर। यह एक घंटा उसे एक उपहार की तरह लग रहा था। वह जल्द से जल्द अतुल के पास पहुँच जाना चाहती थी। व ह लकड़ी आज भी वैसे ही खिड़की में बैठी थी। वंदना ने पास जाकर पूछा- चाकलेट खाओगी? पता नहीं वंदना उसे प्यार करने के लिए उतावली क्यों रहा करती है? (क्रमश:)

साभार- गर्भनाल