प्रवासी कविता : पहले और अब

- हरिबाबू बिंदल
 


 
पहले कहती थी, 'सुनिए'!
अब कहती है, 'सुनीये'?
पहले कहती थी, 'चलिए'!
अब कहती है, 'चलिये'?
 
तब पूछती थी, 'कहां थे'!
अब पूछती है, 'थे कहां'?
तब रोज नास्ता गर्म-गर्म
अब सब जाने गया कहां।
 
पहले कहती थी, 'आइए'!
अब कहती है, 'जाइये'?
तब कहती थी, 'आ जाइए'!
अब कहती है, 'चले जाइये'?
 
तब मेरी बांह, ही तकिया
अब सारा बदन तकिया।
तब सुई धागा, मेरा बटन
अब है तन मेरा बखिया।
 
तब फाये सी, अब ज्यों कोड़ा
तब थी, हॉट, अब त्यों सोड़ा?
तब थी घोड़ी, हम थे घोड़ा
तब वह राह, अब है रोड़ा।
 
तब पत्ती सी, अब साख सूखी
तब थे सुखी, अब है दु:खी
वह चंद्रमुखी, हुई सूर्यमुखी
अब बनी वही, ज्वालामुखी।


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