मैं उन्‍हें पहचान न सकी

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- अर्चना पैन्‍यूली

17 मई, 1963 को कानपुर में जन्म. गढ़वाल विश्वविद्यालय, देहरादून से एमएससी, पचास से अधिक कहानियाँ, लेख, कविताएँ और साक्षात्कार प्रकाशित. 'परिवर्तन' नाम से उपन्यास प्रकाशित। साहित्यिक संस्था, महिला मंच, देहरादून ने साहित्य में योगदान के लिए सम्मानित किया। इंडियन कल्चरल एसोसिएशन कोपनहेगन ने प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्तमान में आप गेरशोल्म इंटरनेशनल स्कूल, डेनमार्क में अध्‍यापिका हैं। डेनमार्क आने से पूर्व मुंबई में लगभग नौ वर्षों तक शिक्षण कार्य किया।


निशांत ने जब बताया कि उसके रिसर्च डिपार्टमेंट में कोई डॉ. कृष्णन मुंबई से सीनियर एनर्जी प्लानर के पद पर एक वर्ष के लिए आ रहे हैं तो जेहन में खुशी की लहर सी दौड़ गई। निशांत के रिसर्च डिपार्टमेंट में पंद्रह लोग पंद्रह देशों के, मतलब हमारे लिए सभी विदेशी थे। उनसे एक दूरी व हिचक थी, ऐसे में यह पता चलना कि अपना एक भारतवासी उसके दफ्तर में सहकर्ता बनकर आ रहा है तो खुशी होना स्वाभाविक थी। डॉ. कृष्णन के आने में अभी डेढ़ माह का समय था, हम पति-पत्नी के बीच वो चर्चा का विषय बन गई। अक्सर उनकी ईमेल आ जाती। कभी- कभार फोन कर लेते। हमसे शहर, मौसम, डेनिश लोगों के बारे में जानकारी लेते। और भी न जाने क्या-क्या पूछते रहते। नई जगह वो एक नया जीवन शुरू करने आ रहे थे, उनके मन में कौतुकता थी, और हमें उनका डेनमार्क पहुँचने का इंतजार। उनके लिए दो कमरों का एक छोटा-सा फर्निस्ड मकान हमने ही बुक करवाया। वो अकेले ही एक साल के कॉन्ट्रेक्ट पर कोपेनहेगन आ रहे थे। बड़े मकान की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी। उनकी पत्नी मुंबई में एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका थीं, वे साथ नहीं आ रही थी।

जिस दिन डॉ कृष्णन इंडिया से कोपेनहेगन पहुँचे निशांत, मेरा पति, उन्हें कार से एयरपोर्ट लेने गए। शाम का वक्त था, उनका सामान उनके घर पहुँचाकर निशांत उन्हें भोजन के लिए सीधे हमारे घर ले आया। सत्तावन वर्षीय डॉ कृष्णन तमीलियन थे, मगर पिछले तीस सालों से मुंबई में रह रहे थे। वहाँ एक शैक्षिक संस्था में प्रोफेसर थे।उनकी हिंदी में तमिल का पुट था, साथ ही मुंबईया हिंद‍ी का भी प्रभाव थामैंने व बच्चों ने उन्हें अभिवादन किया। उन्होंने हमें आशीष दिया। वो हमारे लिऐ केले के चिप्स व नारियल की मिठाई लेकर आए थे। जो उन्होंने आते ही बच्चों को पकड़ा दिए। विदेशी प्रचलन के अनुसार हमने कोक, कोला या बाजार में बिकने वाले संघरित जूस के लिए पूछा। उन्होंने मना किया। निशांत ने उन्हें बीयर व व्हिस्की के लिए पूछा मैं कोई मदिरा नहीं लेता, वो बोले
' तो आप क्या लेंगे?'

तुम्हारे घर में हरी चाय, पोदिना या मीठी नीम में से कुछ है? मैने व निशांत ने एक दूसरे को देखा 'पोदिना है' मैं बोली तो पोदिने की चाय बना दो पोदिने की चाय?

उन्होंने ही मुझे समझाया कि पोदिने की चाय कैसे बनती हैं। मैं उनके लिए बताए अनुसार उनके लिए उनकी हर्बल चाय बनाकर ले आई ।

सुना है आपकी पत्नी मुंबई में नौकरी करती हैं इसलिए वह आपके साथ नहीं आ पाई। चाय का प्याला उन्हें थमाते हुए मैंने पूछा। नौकरी से तो उन्हें सालभर की छुट्टी मिल सकती है, मगर माँ है मेरी अस्सी साल की। उन्होंने इस उम्र में विदेश आने से इंकार कर दिया सो पत्नी को उनकी देखभाल के लिए उनके पास रूकना पड़ा, वो बोले आपके बच्चे उन्होंने चाय का घूँट भरा, बोले ' बस एक लड़की है। उसकी शादी हो चुकी है। वह पति के साथ अमेरिका में रहती है। माँ की जिम्मेदारी पत्नी पर डालकर यहाँ आ गया हूँ।' फिर मजाक करते हुए से बोले

मैं अभी इतना बूढ़ा नहीं हुआ हूँ, यहाँ अकेले रह सकता हूँ, वहाँ माँ अकेली नहीं रह सकती है हम हँसने लगे। साथ में वो भी स्निग्ध व पवित्र हँसी। मैं उन्हें देखती रही। इस उम्र में भी उनके सभी दाँत एकदम पंक्तिबद्ध, श्वेत धवल व स्वस्थ थे।

सहसा उन्होंने अपने होंठ सिकोड़े। गंभीर होकर मेरे पति से बोले 'पर निशांत, मैं यहाँ सिर्फ तुम्हारी वजह से आया हूँ। मुझे जब पता चला कि यहाँ ऑफिस में एक इंडियन भी है तभी मैंने नौकरी का ऑफर स्वीकार किया'

हम जिंदगी में एक बदलाव के लिए, नई जगह, नई परिस्थितियों में रहने के लिए अपनी जगह से परदेश आते हैं। मगर परदेश में भी अपनों को ही तलाशते हैं।खैर, रोज ही शाम को जब निशांत ऑफिस से लौटता तो साथ में डॉ. कृष्णन भी होते। वो हमारे साथ चाय पीते, भोजन करते, हमसे बतियाते रहते-बदलते हुए भारत की कई नई बातें हमें बताते -इकोनॉमी ग्रोथ, तकनीकी उत्थान व सामाजिक बदलाव। शुरू में तो मुझे उनका रोज आना अच्छा लगा, लेकिन जब यह एक नियम-सा बन गया तो मुझे अखरने लगा। एक तो वे विशुद्ध शाकाहारी होने के अलावा कितनी ही तरह की सब्जियाँ भी नहीं खाते थे। कहते थे कि लहसुन, प्याज, बैंगन व मशरूम तामसिक हैं। बटर व चीज हाजमे के लिए ठीक नहीं है। फ्रीज में रखी फ्रोजन सब्जियाँ सेहत के लिए अच्छी नहीं डॉ कृष्णन के लिए मुझे एक विशेष प्रकार का भोजन बनाना पड़ता, जो मुझे चिड़चिड़ा देता।
निशांत को डॉ कृष्णन से एक गहरा अपनत्व हो गया था। उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए मुझसे कहता, वे अकेले रहते हैं। इतने जवान भी नहीं रहे। उनके लिए उनकी पसंद का अगर थोड़ा-सा भोजन पका दो तो क्या हो जाएगा
खैर डॉ कृष्णन जितना हमारे घर खाते उसे किसी न किसी रूप में लौटाने की कोशिश करते। कभी चायपत्ती का डिब्बा ले आते, कभी इंडियन दुकान से ताजी तरकारियाँ, तो कभी बासमती चावल का पाँच किलो का पैकेट ही तोहफे में दे देते, कभी बच्चों को उनकी पसंद के गिफ्ट दे देते।

डॉ कृष्णन अक्सर एक बात कहते ' सबसे अधिक साधन-संपन्न युक्त प्राणीजगत का मनुष्य होता है। एक इंसान दूसरे इंसान की मदद लिए बगैर जी ही नहीं सकता। अत: हमें सभी से अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश करनी चाहिए। न जाने कौन किस रूप में, कब काम आ जाए।

हम छ: सालों से कोपेनहेगन में रह रहे थे, मगर डॉ कृष्णन को छ: हफ्तों में ही कोपेनहेगन में बसे भारतीयों के विषय में हमसे ज्यादा जानकारी हो गई। उन्हें एक तमिल संस्था के बारे में जानकारी हो गई। वो उसके सदस्य बन गए। समय-समय पर संस्था के होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। उनके कई तमिल मित्र बन गए। उनका हमारे घर आना क्रमश: कम होता गया। मैंने महसूस किया कि पहले मुझे उनका रोज अपने घर आना अखरता था और अब न आना अखरने लगा था

इंडियंस चाहे कहीं भी चले जाएँ, वे मद्रासी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी ही बने रहेंगे। एक दिन मैं निशांत से उलाहना से बोली 'केवल हिंदुस्तानी तो वे बनना ही नहीं चाहते। डॉ कृष्णन को लो, कितने पढ़े-लिखे इंसान हैं, लेकिन आते ही अपने मद्रासियों से जुड़ गए। उन्हीं के साथ ही उठने-बैठने लगे हैं।

डॉ कृष्णन के ऑफिस के लोगो से भी बहुत अच्छे संबंध थे निशांत बोला मार्या तो उन्हें बहुत पसंद करती थी

मार्या बेचारी निशांत की सहकर्मी, पैंतालीस वर्षीया चार बच्चों की माँ, एक लड़का अपाहिज, आजकल पति से ऐसका तलाक चल रहा, वह एक थकी हुई औरत, जिंदगी के बोझों ने उसकी मनस्थिति को बहुत बिगाड़ दिया था। डॉ कृष्णन उससे बतियाते रहते होंगे, उसका मन बहल जाता होगा, इसलिए यह उन्हें पसंद करती होगी

' ये विदेशी लोग विवाह की वचनबद्धता निभाना ही नहीं जानते' डॉ कृष्णन अक्सर गोरे विदेशियों को कोसा करते।
उन कारणों से तलाक ले लेते हैं, जो हमारी नजर में एकदम तुच्छ होते हैं मैं इनकी संस्कृति का अध्ययन करता रहता हूँ, बड़ी खोखली है इनकी संस्कृति। हमारी संस्कृति सबसे अच्छी है

मुझे लगता कि डॉ कृष्णन को भारतीय होने का बड़ा अभिमान है, साथ ही एक हिन्दू होने का, एक तमिल होने का और एक ब्राहमण जाति का होने का तो उन्हें जबरदस्त अभिमान है।

बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति थी उनकी, रोज सुबह चार बजे उठकर वो दो घंटों तक पूजा में लिप्त रहते। अपने माथे पर हमेशा चंदन, जिसे वो इंडिया से लाए थे, घिसकर लंबा सा टीका लगाए रखते। लोग जब कौतुकता से टीके के विषय में पूछते तो आनंदित होकर हिंदू धर्म नियमों का बखान शुरू कर देते। गर्मियों के मौसम में अपनी सफेद धोती पहनकर ही सड़कों पर चले जाते। खाना खाने से पहले वह अपनी कमीज के भीतर हाथ डालकर अपना जनेऊ पकड़ते और आँखे मूँदे कुछ मंत्र बुदबुदाते। यह वह विदेशियों के बीच भी करने से कतराते नहीं थे। विदेशी उन्हें हैरत से देखते। मुझे उनके इन आचार विचारों से बड़ी कोफ्त होती थीँ उनके व्यवहार से मुझे हमेशा एक कट्टरपंथी की बू महसूस होती थी।

ऐसे लोगो को इंडिया से बाहर नहीं आना चाहिए मैं निशांत से बोली थी। जब वे अपने आप को नहीं बदल सकते तो नए तौर-तरीके नहीं अपना सकते तो उन्हें अपनी जगह ही बने रहना चाहिए।

एक दिन मैंने अचानक सुना कि डॉ कृष्णन का लड़का इंडिया से आ रहा है। मैं थोड़ा आश्चर्य से भर गई, क्योंकि डॉ कृष्णन ने बताया था कि उनकी सिर्फ एक लड़की है, जो शादीशुदा है और अमेरिका में अपने पति के साथ रहती है। उनका लड़का कहाँ से आ गया? मैंने निशांत से पूछा।
वह उनका अपना लड़का नहीं है। डॉ कृष्णन ने उसे सिर्फ पढ़ाया-लिखाया है, निशांत ने जवाब दिया।

डॉ.कृष्णन का कोपनहेगन में अपना एक बड़ा तमिल समुदाय बन गया था। ऑफिस के सहकर्ताओं से जहाँ हमारे औपचारिक संबंध थे, उनके बड़े अंतरांग बन गए थे। मगर उन्हें जब भी कोई जरूरत पड़ती, किसी काम से कहीं जाना पड़ता तो मेरा पति निशान्त ही उन्हें नजर आता। उनके तथाकथित लड़के को एयरपोर्ट से लाने के लिए निशान्त ही अपनी गाड़ी से उनके साथ गया। मैं भुनभुनाती कि जरूरत पड़ने पर निशान्त, नहीं तो और लोग इनके अपने है। ऐसा यूज करते हैं निशान्त को! मैं यह सुन चुकी थी उन्होंने कई बार अपने तमिल मित्रों को अपने घर बुलाकर पार्टी दी है। लेकिन हमें एक बार भी उन्होंने बुलाया नहीं था। बस एक-दो बार रसम या सांभर बनाकर हमारे घर ले आए थे। उनके उस रसम व सांभर को चखकर ही मैंने अंदाजा लगा लिया थाकि वो एक बहुत निपुण कुक हैं। उनके घर खाना खाने की मेरी दिली तमन्ना थी- ताजे नारियल की चटनी के साथ उत्पन। मगर कोई निमन्त्रण नहीं।

एक बार मजाक में मैंने उनसे अपनी दिल की बात भी कही, 'अंकल, नए लोगों से मिलने की आतुरता में पुरानों को दरकिनारे मत करो। यह मत भूलो कि आपका परिचय इस शहर में हमसे ही शुरू हुआ था।'

वो एक स्निग्ध मुस्कुराहट के साथ निशान्त की ओर देखते हुए बोले, 'निशान्त तो मेरा यहाँ सबसे पुराना व अन्तरंग दोस्त है।'

निशान्त भी उनके लिए कोई भी काम करने के लिए हमेशा तत्पर रहता। मेरी कुड़कुड़ाहट निशान्त को रोकती नहीं, बल्कि उसे मुझसे ही खफा कर देती। डॉ. कृष्णन कितनी ही बार हम पति-पत्नी के बीच बहस का कारण बने।

खैर उनका लड़का मुम्बई से आया था। एक बार उन्हें फिर उनके लड़के समेत अपने घर भोजन पर बुलाना पड़ा। उन्होंने बड़ी गर्भजोशी से अपने लड़के को मुझसे परिचित करवाया। 'विजय, माय ब्यॉय,' वो फख्र से बाले।

डॉ. कृष्णन तो साँवले रंग के थे। मगर विजय, उनका तथाकथित लड़का, बड़ा गोरा-चिट्टा था। आकर्षक स्वरूप, चौबीस-पच्चीस की जवान उम्र।

'आपने कभी बताया नहीं कि आपका कोई लड़का भी है, मैं शिकायती लहजे में उनसे बोली।

उन्होंने जवाब में विजय की ओर देखा। विजय मुस्कुरा दिया। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। मैं समझ गई कि उनके बीच एक अभिन्न रिश्ता तो है, मगर यह कैसे, किन परिस्थितियों में बना उसका खुलासा नहीं करना चाहते। मैंने कुरेदना ठीक नहीं समझा। इतनी शिष्टता मुझमें है।

विजय हमारे घर आया नया अतिथि था। बातों का सिलसिला उसी पर केन्द्रित रहा। बड़े शिष्ट तरीके से वह निशान्त की बातों का जवाब दे रहा था। पता चला कि वह वास्तुकला की पढ़ाई कर रहा है, जो कुछ महीनों में पूरी हो जाएगी। डॉ. कृष्णन खामोश और मंत्रमुग्ध भाव से विजय को निशान्त से बात करते देख रहे थे। छः महीने उन्हें कोपनहेगन में हो गए थे लेकिन जो खुशी उनके चेहरे पर आज थी वह मैं पहली बार देख रही थी।

भोजन के बाद जब वे विदा लेने लगे तो डॉ. कृष्णन मुझसे बोले 'शीतल, तुमने मुझे बहुत बार खाना खिलाया है। अब विजय आ गया है, मैं तुम्हें अपने घर खाने में बुलाऊँगा।'

मैं और निशान्त दरवाजे पर खड़े होकर बड़ी देर तक डॉ. कृष्णन को विजय के साथ जाते देखते रे, जब तक वे आँखों से ओझल न हो गए। पलट कर घर में घुसे तो निशान्त उनकी तारीफ करता हुआ बोला, 'देखो कितने अच्छे इन्सान हैं। अपनी पत्नी को यहाँ नहीं बुलाया, माँ को नहीं बुलाया, बेटी को नहीं बुलाया, पर विजय को यहाँ बुलाया है। उसे नार्वे, स्वीडन पूरा स्केन्डिनेवियन घुमा रहे हैं।'

'तुम पर डॉ. कृष्णन का जरा ज्यादा ही अच्छा इम्प्रेशन है'
मैंने उलाहना दी।

'मैं उन्हें तुमसे ज्यादा जानता हूँ। मैं उनके साथ ज्यादा समय बिताता हूँ' निशान्त सकते में बोला।

'अच्छा-अच्छा छोड़ो। अब उस बुढ़ऊ के पीछे मुझसे लड़ना मत।' उनके सूने घर में मैं पहले भी दो दफा गई थी, उस दिन जब गई तो विजय की उपस्थिति से घर में ऐक अलग ही रंगत नजर आई। घर अत्यधिक व्यवस्थित लग रहा था। सुंदर ताजे फूलों के गमले सजे थे, मोमबत्तियाँ जल रही थी। डॉ. कृष्णन किचन में खाना पका रहे थे। विजय टेबल पर प्लेटें-गिलास लगा रहा था। म्यूजिक सिस्टम में फिल्मी गीतों की मधुर धुन बज रही थी।

हमारे दोनों बच्चे विजय से जा लगे। डॉ. कृष्णन के घर जाने से वे मुँह बनाते थे कि उनके घर उनका कोई साथ का नहीं है, मगर वे विजय को देखकर खुश थे।

हमारे अलावा उनके घर भोजन पर कई अन्य लोग भी आमंत्रित थे। एक ऑफिस की डेनिश सहकर्मी मार्या थी, जो अपनी दस वर्षीय लड़की के साथ आयी थी। एक मले (मलेशियन) परिवार था, और दूसरे परिवार के लोग सिंगापुरी तमिल थे। एक अफ्रीकन भी वहाँ मौजूद हुआ। एक अच्छा अन्तरराष्ट्रीय समूह वहाँ नजर आया। मुझे हैरत हुई कि डॉ. कृष्णन ने यहाँ किस-किस से दोस्ती कर ली।

विजय और डॉ. कृष्णन ने मिलकर बड़े शानदार तरीके से अतिथियों को स्वादिष्ट भोजन करवाया। उनके घर में किसी गृहणी की कमी महसूस ही नहीं हुई। दोनों पुरुष मिलकर ऐसे सहयोग व सरलता से काम निपटा रहे थे जैसे काम की बारीकियों के अलावा एक-दूसरे के भावों को भी समझते है, एक-दूसरे को पूरा-पूरा जानते हैं, इतनी समझदारी तो सगे बाप-बेटे के बीच भी शायद ही होती हो।

डॉ. कृष्णन डेनमार्क में विजय के लिए वास्तुकला की आगामी पढ़ाई का जुगाड़ करने में लगे थे। कहते कि वह मुंबई में बेचलर कर रहा है, मास्टर अगर डेनमार्क में कर ले तो उसके कैरियर के लिए अच्छा रहेगा। उसे अन्तरराष्ट्रीय देशों में रहने का अनुभव हो जाएगा। वो इससे मिलते, उससे मिलते। विजय डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन घूमकर इंडिया लौट कर चला गया, मगर उनका प्रयास उसे किसी वास्तुकला संस्था में प्रवेश दिलवाने का जारी रहा।

समय बहुत जल्दी निकल गया। हालाँकि ऑफिस डॉ. कृष्णन से इतना अधिक खुश था कि उनका कॉन्ट्रेक्ट और बढ़ाना चाहता था। मगर उन्होंने इनकार कर दिया। उनका कहना था कि उनकी माँ बहुत बूढ़ी हो गई है। वो अपनी माँ के पास लौटना चाहते हैं। उनके अन्त के तीन-चार माह कोपनहेगन में बहुत अधिक व्यस्तता भरे रहे। एक तो वो विजय के लिए बहुत भाग-दौड़ कर रहे थे, फिर उनका अपना मित्र मंडल भी काफी बड़ा हो गया था। हमारे घर आना उनका लगभग छूट चुका था।

वह उनका हमारे घर में अंतिम डिनर था। वो हमेशा के लिए भारत लौट कर जा रहे थे। वो अक्सर कहा करते थे कि इन्सान सबसे अधिक साधन सम्पन्न युक्त होते हैं। अगर किसी चीज की जरूरत पड़ती है तो एक इन्सान को दूसरे इन्सान के पास ही जाना पड़ता है। अपनी बात उन्होंने सिद्ध कर दी थी। विजय को कोपनहेगन की वास्तुकला संस्था में मास्टर कोर्स में प्रवेश मिल गया था। उन्होंने उसका रहने का इन्तजाम भी करवा दिया था, मार्यो के घर में। मार्यो का पति से तलाक हो गया था। उसके दोनो वयस्क लड़के घर छोड़ कर अपना अलग घरोंदा बसाने चले गए थे। उसका घर लगभग खाली था। वह विजय को अपने घर रखने को राजी हो गई। बदले में कोई किराया भी नहीं लेगी। मुझे सुनकर अचरज हुआ। दुनिया अभी भी अच्छे लोगों से भरी है!

'अंकल, आपको विजय कहाँ मिला?' टेबल पर खाना लगाते हुए मैंने सहसा प्रश्न दागा।

उनकी आँखे शून्य में खो गई। 'वह मुझे एक ढाबे में मिला था।' खोये स्वर में वो बोले। मैं टेबल पर खाना लगाते छोड़कर तुरन्त सोफे पर उनके सामने बैठ गई। 'अंकल, आप इंडिया लौट कर जा रहे हैं। दुबारा पता नहीं हमसे मिलते हैं कि नहीं। मेरे मन में हमेशा यह जानने की उत्कन्ठा रही कि विजय से आपका कैसा रिश्ता है।'

उन्होंने मुझे निर्दोष नजरों से कई पलों के लिए देखा, फिर बोलना शुरू किया, 'सत्रह साल पुरानी बात है वह आठ साल का था। मलाड में हाईवे पर बने एक ढाबे में बैरा बना हुआ था। मैं वहाँ से गुजर रहा था। एकाएक हाईवे पर मेरी कार खराब हो गई। कार मैकेनिक मेरी कार ठीक करने लगे और मैं पास के ही ढाबे में जाय पीने चला गया। विजय वहाँ ग्राहकों को चाय पिला रहा था। जूठे कप-प्लेट समेट कर धो भी रहा था। मेरे लिए भी चाय वह ही लेकर आया। मैंने उससे पूछा कि क्या वह स्कूल नहीं जाता। वह बोला, जाता था पर पिताजी के मरने पर पढ़ाई बंद हो गई। मैंने उससे पूछा कि क्या वह आगे पढ़ना चाहेगा। उसने चहकते हुए हामी भरी। उसकी आँखों में पढ़ने की एक ललक थी। एक शिक्षक होने के नाते मैंने वह ललक उसकी आँखों में तुरंत पढ़ ली। उस गन्दे ढाबे से निकाल कर मैंने उसे एक अच्छे स्कूल में भर्ती करवा दिया।'

वह एक होनहार लड़का था। वह पढ़ता गया और मैं उसे फीस, ट्यूशनें व किताबें बगैरह के लिए रुपए-दैसे देते गया

विजय मुंबई में कहाँ रहता है? मैंने पूछा

गोरेगाँव में अपनी विधवा माँ के साथ। हम लोग चैंबूर में रहते हैं।

वह मराठी है? मैंने पूछा

हाँ, उन्होंने गर्दन हिलाई।

एक बात और निशान्त थोड़ा झिझकते हुए बोला, वह अछूत जाति का भी है।

मैंने आश्चर्य से डॉ. कृष्णन की ओर देखा, वो शांत भाव से बोले, 'यह जाति वगैरह की दीवारे केवल हमारे देश में हैं। यहाँ नहीं। मार्या को ही देख लो। मैंने उससे बहुत कहा कि विजय को अपने घर रखने का वह हमसे किराया ले। पर उसे मालूम है कि विजय कौन है और उसका मुझसे क्या संबंध है। वह बोली कि मानवता का कुछ फर्ज मैं भी निभा लूँ तो अपनी ही नजरों में उठ जाऊँगी।'

मैं डॉ. कृष्णन को हमेशा एक कट्टर हिन्दू ब्राह्मण समझती थी। मगर अब सोचने को मजबूर हो गई कि हम कितनी जल्दी किसी के लिए मन में गलत धारणा बना लेते हैं। मुझ जैसे मामूली लोगों को डॉ. कृष्णन जैसी हस्तियों को पहचानने में समय लगता है।

सहसा डॉ. कृष्णन अपनी जिंदगी के उन निहायत व्यक्तिगत पलों की भी बातें बताने के लिए उत्सुक हो गई। अतीत में खोते हुए से बोले, 'मेरी और गीता की जब शादी हुई थी तो सुहागरात वाले दिन हमने मिलकर एक वचन लिया था कि हम एक अपना बच्चा पैदा करेंगे, एक किसी गरीब, अनाथ बच्चे की परवरिस करेंगे। हमारी बेटी मधुरा बड़ी होती गई। हम अपनी व्यस्तता में उलझे रहे। फिर जब ढाबे में विजय दिखा तो मुझे अपना वचन ध्यान आ गया।

वो पीठ घुमाकर पोजिशन बदलते हुए बोले, सच मधुरा को पढ़ाने में मुझे उतना मजा नही आया जितना विजय को पढ़ाने में आया।

उनके प्रति मैं एक अपार श्रद्धा से भर गई। स्नेह से उन्हें बोलते हुए मैं डायनिंग टेबल की ओर बढ़ी, 'आइये अंकल, खाना खाइए। ठंडा हो रहा है।

डॉ. कृष्णन सोफे से उठकर डायनिंग टेबल पर आकर बैठ गए। जब उन्होंने अपनी कमीज के अन्दर हाथ डालकर अपना जनेऊ पकड़ा और आँखे मूंद कर मंत्र बुदबुदाये तो मुझे जरा भी नहीं खला। जिस कमरे में बहुत-सी तसवीरें लटक रही हों वहाँ बहुत से विचार लटक रहे होते हैं, डॉ. कृष्णन एक ऐसा ही व्यक्तित्व था।

समय किसी के लिए थमता नहीं है। डॉ. कृष्णन अपनी नौकरी, पत्नी व माँ के पास मुंबई वापस चले गए। उनका होनहार लड़का विजय यहाँ कोपनहेगन आ गया - अपने मास्टर कोर्स के लिए। अब उसके साथ हमारा उठना-बैठना है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब हमारी चर्चा में डॉ. कृष्णन का जिक्र न होता हो।

- साभागर्भना


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