कम्प्यूटर साइंस में स्नातकोत्तर। साहित्य के अलावा गायन, चित्रकला में रुचि, कविताएँ देश-विदेश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाअओं, जालघरों और रेडियो स्टेशन में प्रकाशित-प्रसारित। संप्रति- प्रबंधक (इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी)
अब मेरे आँचल में तृणों की लहराई डार नहीं न है तुम्हारे स्वागत के लिए ढेरों मुस्काते रंग मेरा जिस्म। ईंट और पत्थरों के बोझ तले दबा है
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उस तमतमाए सूरज से भागकर जो उबलते इंसान इन छतों के नीचे पका करते हैं तुम नहीं जानते कि एक तुम ही हो जिसके मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें बादल तुम बरस जाना अपनी ही बनाई कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग अपनी शर्म धोने अब कहाँ जाएँ?
आईना काश! के तुम आईना ही बन जाते मैं ठिठकी खड़ी रहती और तुम मेरा चेहरा पढ़ पाते मेरे एक-एक भाव से होती रहती मैं जाहिर तुम अपलक निहारते मुझे और बाँचते मेरे माथे की लकीर मेरे हाथ बढ़ाए बिना तुम मुझे एकाकार कर लेते हर प्रश्न का उत्तर तुम्हारी आँखों में मेरा चेहरा होता मेरे शब्द बिन वाणी के नहीं मरते।