मानस-मंथन कर ले ऐ मन तू अब पंछी बन कर उड़ जा दूर गगन की छाँव तले तू सात समंदर पार चला जा। आँखों भर तू सपने ले जा और राहों से यादें ले जा इस चंचल जग की तू माया बस अपनों का संगी बन जा।
तिल-मिल कर यह जलता जीवन
ढलती शामों का राही है
इस तन-मन का नहीं भरोसा
दुनिया आनी-जानी है
तेरे दम पर ही तो आज
अपनों की पीर जानी है
तू ही अपने हाथों मुझको
चिंता का अघट दे-दे
आँसू की शैया पर नाहक
विरह-तन बिसात दे दे।
नयन-दीप बुझने से पहले
दिल को यह सौगात दे जा
एक स्वेत जगत के भटके गामी को
अपने गुलशन की बहार दे जा।
ऐ मेरे मन बस अब तू
पखेरू बन के उड़ जा।
साभार- गर्भनाल