संजा पर्व अपने उत्तरार्द्ध पर है और मंगलवार से बनना शुरू हुआ किलाकोट। किलाकोट संजा की समग्र प्रस्तुति है। अश्विन कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक जिस तन्मयता से और भक्ति भावना से कन्याएँ किलाकोट बनाती हैं, वह दर्शनीय होता है। किलाकोट तेरस से शुरू किया जाता है और तीन दिन में उसे भरा जाता है।
12 दिनों की बनाई आकृतियाँ इसमें शामिल करने के अलावा हाथी-घोड़े, ऊँट, रथ, ढोली, रानी आदि बनते हैं, जिन्हें बनाने में काफी समय लगता है। इसलिए यह तीन दिन में पूरा किया जाता है। कोट का अर्थ घर माना गया है।
किलाकोट का आकार-प्रकार बनाने वाली की रुचि और क्षमता पर निर्भर करता है। कहते हैं इसके लिए पूरे एक चश्मे की दीवार का उपयोग किया जाता था, किंतु आजकल आमतौर पर 6 बाय 6 की भित्ति लेकर ही लड़कियाँ किलाकोट बनाती हैं तो कुछ इकहरी पंक्ति का।
गोबर से बनी इन पंक्तियों पर गुलतेवड़ी की हरी-हरी पत्तियाँ लगाई जाती हैं। इन पर ऊँगली के पोरों से गीले चूने की टिपकियाँ लगाते हैं। शाम के धुँधलके में ये सफेद टिपकियाँ खूब दमकती हैं। किलाकोट के नीचे की ओर पंक्तियों को खुला छोड़कर मुख्य द्वार बनाया जाता है।
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इसी के साथ संजा की बिदाई की तैयारी शुरू हो गई है, संजा को लेने उसका पति खोड़या ब्राह्मण आता है -
खुड़-खुड़ रे म्हारा खोड़या बामण, म्हारी संजा के लेवा आयो रे।