मान्यतानुसार इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। यह पर्व अच्छी बारिश, अच्छी फसल और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से किया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में गेहूं के पौधे उग आते हैं, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। फिर रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाओं द्वारा इनकी पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को जल स्त्रोतों में विसर्जित किया जाता है। इस पर्व में रक्षाबंधन के दूसरे दिन एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं दी जाती है और घर के बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। कजलियों (भुजरियां) के दिन महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए और गाजे-बाजे के साथ तट या सरोवरों में कजलियां विसर्जन के लिए ले जाती हैं।