टेसू : ऋतुराज वसंत का श्रृंगार

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कहा जाता है कि ऋतुराज वसंत की छँटा टेसू के बगैर पूर्ण नहीं होती। यदि वसंत कामदेव का सहायक है तो टेसू यानी पलाश के फूल वसंत का श्रृंगार हैं। फाल्गुन की पूर्णिमा आते-आते टेसू के फूल पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं। हूबहू लौ (दीपक की ज्योति) के समान रंग, वैसी ही बनावट के कारण अंग्रेजी साहित्यकारों ने इसे फ्लेम ऑफ फारेस्ट (वन ज्योति) नाम दिया है। लाल केसरिया रंग के टेसू के फूल वसंत के उद्दीपनकारी रूप को परिलक्षित करते हैं। इन्हीं टेसूओं को पलाश या ढाक कहा जाता है।

पलाश पत्ता शुभ : पलाश के फूलों को किसी देव अर्चना से पृथक रखा गया है। इसके फूल देवी-देवताओं को नहीं चढ़ाए जाते, लेकिन पलाश के पत्तों से पत्तल व दोने बनाए जाते हैं। पत्तल भोजन करने के लिए पवित्र मानी जाती है। प्रसाद तथा पंचामृत के लिए भी इसके पत्ते शुभ माने जाते हैं।

फूल व जड़ें उपयोगी : टेसू के पेड़ पर सिर्फ फूल ही होते हैं फल नहीं। इन फूलों का भी आयुर्वेद में उपयोग है। पलाश के फूल गुर्दे की सूजन दूर करने में उपयोगी हैं। इसके पेड़ की जड़ें गहरी व मजबूत होती हैं। जड़ों से निर्मित कूची का इस्तेमाल चूने की पुताई में कूची बनाकर पहले बहुत किया जाता था, अभी भी कहीं इनका उपयोग होता है।

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कितने वसंत देखा पाएगा : धीरे-धीरे पेड़ों की कटाई तथा औद्योगिक क्रांति का खतरा पलाश पर भी मँडरा रहा है। कागज कारखानों में कच्चे माल की पूर्ति के लिए पलाश के पेड़ों की अंधाधुँध कटाई से यह चिंता सताने लगी है कि वसंत ऋतु का श्रृंगार यह पलाश और कितने वसंत देख पाएगा।

होली के लोकगीतों में रचा है : इसकी यह विशेषता रहती है कि इन दिनों पलाश के पेड़ पर डालियों पर पत्तियाँ नहीं बल्कि फूल ही फूल नजर आते हैं। इन सूर्ख चटकीले केसरिया, लाल रंग के पलाश पुष्प को कविवर हरिवंशराय बच्चन ने क्रांतिकारी नजरिए से देखा और लिखा- 'वह देखो पलाश के वन से उठ क्रांति पताका लहराई।'

जब टेसू के फूलों को वृक्ष अंजुलियों में भरकर भूमि पर न्योछावर करने लगता है तो नीरस जन का मन भी पुलकित हो उठता है। हालाँकि टेसू के फूलों में खुशबू नहीं होती परंतु उससे निर्मित रंग में हल्की-सी महक होती है। इन फूलों से निर्मित केसरिया-नारंगी रंग ब्रज की होली व उससे संबंधित लोकगीतों में खूब रचा-बसा है।

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