आज के परिप्रेक्ष्य में कितने प्रासंगिक हैं श्रीराम
रामनवमी सारे जगत के लिए सौभाग्य का दिन है। क्योंकि अखिल विश्वपति सच्चिदानंद श्रीराम इसी दिन रावण जैसे दुर्दंत रावण के अत्याचार से पीडित पृथ्वी को सुखी करने के लिए और सनातन धर्म की स्थापना के लिए मर्यादापुरुषोत्तम के रुप में इस धरा पर प्रगट हुए थे। श्रीराम केवल हिन्दुओं के ही “राम” नही हैं, बल्कि वे अखिल विश्व के प्राणाराम हैं। सारे ब्रह्माण्ड में चराचर रुप से नित्य रमण करने वाले, सर्वव्यापी श्रीराम किसी एक देश या व्यक्ति की वस्तु कैसे हो सकते हैं ? वे तो सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयुक्त हैं और सर्वमय हैं। कोई भी जीव उनके उत्तम चरित्र का गान करता है, श्रवण करता है, अनुसरण करता है, निश्चय ही पवित्र होकर परम सुख की प्राप्ति करता है।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीराम के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि उन्हें राज्याभिषेक की बात सुनकर न तो प्रसन्नता होती है और न ही वनवास की सूचना पर दुःख का अनुभव करते हैं। मां कौशल्या श्री रामजी से कहती हैं “तात जाउं बलि वेगि नहाहू, जो मन भाव मधुर कछु खाहू। पितु समीप तब जाएहु भैया, भै बड़ि बार जाइ बलि मैया।
अर्थात हे पुत्र ! शीघ्र ही स्नान करके जो भी इच्छा हो कुछ मिष्ठान्न खालो। पीछे पिताजी के पास जाना, बड़ी देर हो गई है। यहां माता कौशल्या को पता ही नहीं चल पाया कि विमाता कैकेई ने उन्हें वन भिजवाने का पक्का प्रबंध कर रखा है। श्रीराम इस बात को जान चुके थे। प्रसन्नवदन श्रीराम मां से कहते हैं-
धर्म की धुरी श्री रघुनाथजी ने धर्म की दशा को जाना और माता से अत्यंत ही मृदु शब्दों में कहा- पिताजी ने मुझे वन का राज्य दिया है, जहां मेरा सब प्रकार से कार्य सिद्ध होगा।
फिर कहते हैं - आयसु देहि मुदित मान माता, जेहिं मुद मंगल कानन जाता, जनि सनेह बस डपसि भोरें, आनंदु अंब अनुग्रह तोरे।
हे माता ! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिए जो वन जाते प्रभु मुझे हर्ष और मंगलकारी हों, स्नेह के वश भूलकर भी न डराना। हे माता ! आपके आशीर्वाद से मुझे सब प्रकार का सुख मिलेगा। महर्षि वाल्मीक इस प्रसंग को बडी ही कुशलता से लिखा कि पिता की दशा देखकर श्रीराम दुखी हो जाते हैं। वे माता कैकेई से विनम्रतापूर्वक उसका कारण जानना चाहते हैं। तब वे कहती हैं -
“तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम, गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्दैव राघव। (”सर्ग १८/३३)
राघव ! मैंने महाराज से यह याचना की है कि भरत का राज्याभिषेक हो और आज ही तुम्हें दण्डकारण्य भेज दिया जाए।
“वह अप्रिय तथा मृत्यु के समान कष्टदायक वचन सुनकर भी शत्रुसूदन श्री राम व्यथित नहीं हुए। उन्होंने कैकेई से कहा- मां ! बहुत अच्छा ! ऐसा ही हो। मैं महाराज की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए जटा और चीर धारण करके वन में रहने के निमित्त अवश्य यहां से चला जाऊंगा।”
श्रीरामजी का पूरा जीवन संघर्ष व झंझावतों से घिरा रहा फिर भी वे सन्मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। उनके सदगुण और निर्णय आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक हैं, जिनसे हमें शिक्षा लेने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से आज चारों ओर मानवीय मूल्यों का तेजी से विघटन हो रहा है। पारिवारिक मूल्यों की स्थिति यह है कि नई पीढ़ी अपने माता-पिता, जिन्होंने उसे जन्म ही नहीं दिया, बल्कि लालन-पालन कर शिक्षा प्रदान की और स्वावलंबी भी बनाया, वे उन्हें घर के कोने तक ही सीमित कर देती है या वृद्धाश्रमों में, अनाथालयों में पहुंचा देती है। हमारे यहां मातृ देवी भव, पितृदेवो भव माना जाता है। आज कौन पिता को देवता और माता को देवी मान रहा है।
भाइयों और अन्य संबंधियों मे अलगाव, जलन,घृणा और विद्वेष के भाव ही सब जगह लक्षित हो रहे हैं। दरअसल यहीं पर श्रीराम का चरित्र प्रासंगिक हो जाता है। मर्यादित पुरुषोत्तम श्रीरामजी ने सामाजिक मूल्यों का निर्वहन आजीवन निभाया। वे वास्तव में माता-पिता को देवतुल्य मानते थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है -
प्रातःकाल उठि के रघुनाथा, गुरु पितुमातु नवावहिं माथा।
वे अपने अनुजों से भी प्रगाढ़ प्रेम करते थे। उनके सभी भाई उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय थे। तुलसीदासजी लिखते हैं - अनुज सखा संग भोजन करहीं*मातु पिता अग्या अनुसरहीं (बालकांड-२०४/२
बेद पुरान सुनहिं मन लाई* आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई.................. ३
आयसु मागि करहिं काजा* देखि चरित हरषै मन राजा...... .४
लक्ष्मणजी के प्रति उनका स्नेह कुछ ज्यादा ही था। वाल्मीकजी लिखते हैं- लक्ष्मणो लक्ष्मसम्पन्नो बाहिःप्राण इवापर* न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः*मुष्टमन्नमुपानीतमश्राति न हि तं विना...............बालकाण्ड..३०
पुरुषोत्तम राम को लक्षमण के बिना नींद नहीं आती थी। यदि उनके पास उत्तम भोजन लाया जाता, तो वे उसमें से लक्ष्मण को दिए बिना नहीं खाते थे।
यह सर्वविदित ही है कि पिता के आदेश मात्र पर उन्होंने राजसिंहासन को त्याग करने का निर्णय ले लिया था। जब राज्याभिषेक की बात चली तो उन्होंने सोचा कि उनके रघुकुल में बड़े राजकुमार को ही राजा बनाने की रीति दोषपूर्ण है। जब भरत को राजा बनाने की बात मां कैकेई ने की तो वे बड़े प्रसन्न हुए थे। मेघनाथ के शक्ति प्रहार से मुर्छित लक्ष्मण को देखकर वे फबक कर रो पड़े थे और रोते-रोते उन्होंने यहां तक कह दिया था कि यदि वे ऐसा जानते कि वन में भाई को खोना पड़ेगा, तो वे अपने पिता की आज्ञा मानने से भी इनकार कर देते।
आज स्थिति सर्वथा प्रतिकूल है। भाई, भाई का दुश्मन है। संयुक्त परिवार खंड-खंड हो रहे हैं। आज समाज में मानवता का पतन, परिवारों में विघटन और आपसी बैर का बोलाबाला है। परिवार में अशांति का जहर घुल रहा है. लोभ-स्वार्थ- नफ़रत-केवल और केवल धन कमाने की लिप्सा ने आदमी को जकड़ रखा है। पास-पड़ोस के लोग कभी परिवार की तरह रहा करते थे। आज भागमभाग की जिंदगी में कौन पड़ोस में रह रहा है, यह जानने तक की फुर्सत नहीं है।
इस संदर्भ में श्रीराम द्वारा प्रस्तुत उदाहरण अनुकरणीय है। उनके लिए छूत-अछूत, धनी-दरिद्र, ऊंच-नीच के बीच कोई भेदभाव नहीं था। हमारे देश के कर्णद्धार दलित, अतिदलित,अनुसूचित जनजातियों, वनवासियों के कल्याण के लिए केवल विकास का ढिंढोरा पीटते हैं और उनके बीच वैमनस्यता के बीज बो रहे हैं।
शबरी के जूठे बेरों को प्रेम से खाना, केवट निषादराज को गले लगाना,वानर, भालू, रीछ जैसी जनजातियों को प्यार-स्नेह देकर उन्हें अपना बनाना और उनके जीवन में उत्साह का संचरण करना, कोई राम से सीखे।
रामराज्य में किसी को अकारण दंडित नहीं किया जाता था और न ही लोगों के बीच पक्षपात व भेदभाव था। क्या आज की नई पीढ़ी श्रीराम के इस सदाशय से कोई शिक्षा ग्रहण करेगी ? श्रीराम के समान आदर्श पुरुष, आदर्श धर्मात्मा, आदर्श नरपति, आदर्श मित्र, आदर्श भाई, आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श पति, आदर्श स्वामी, आदर्श सेवक, आदर्श वीर,,आदर्श दयालु, आदर्श शरणागत-वत्सल, आदर्श तपस्वी, आदर्श सत्यव्रती, आदर्श द्रढप्रतिज्ञ तथा आदर्श संयमी और कौन हुआ है? जगत के इतिहास में श्रीराम की तुलना में एक श्रीराम ही हैं।
साक्षात परमपुरुष परमात्मा होने पर भी श्रीराम जीवों को सत्पथ पर आरुढ़ कराने के लिए ही आदर्श लीलाएं की, जिनका अनुसरण सभी लोग सुखपूर्वक कर सकते हैं।
जो श्रीरामजी को साक्षात भगवान और अपना आदर्श मानते हैं, श्रीराम-जन्म का पुण्योत्सव बड़ी धूमधाम से मनाना चाहिए। श्रीराम को प्रसन्न करना और उनके आदर्श गुणों को अपने जीवन में उतारकर श्रीराम-कृपा प्राप्त करने का अधिकारी बनना चाहिए।