चूंकि इस्लाम मज़हब एकेश्वरवाद (ला इलाहा इल्लल्लाह) को मानता है और हज़रत मोहम्मद (सअवस) को अल्लाह का रसूल (मोहम्दुर्र रसूलल्लाह) स्वीकारता है, इसलिए रोजा मुसलमान पर फ़र्ज़ की शक्ल में तो है ही, अल्लाह की इबादत का एक तरीक़ा भी है और सलीक़ा भी।
तक़्वा (पुण्य कर्म और साधनों की शुद्धता) तरीक़ा है रोजा रखने का। सदाक़त (सत्य-निष्ठा), सलीक़ा है रोज़े की पाकीज़गी का। सब्र, सड़क है रोजदार की। कात (दान), पुल है रोजदार का। ऐसा पाकीज़ा रोजा रोजदार के लिए दुआ का दरख़्त है।