समस्याओं के बीच विकास की तलाश

माना जा सकता है कि संगठन की राजनीति से सीधे मुख्यमंत्री बने शिवराजसिंह चौहान की नजरें सालभर में पैनी हुई हैं। ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के माध्यम से वे प्रदेश का विकास संजोने के लिए प्रयासरत हैं। उन्हें विरासत में जो समस्याएँ मिली हैं, वे सवाल बनकर हर कदम पर उनका पीछा कर रही हैं।

लोग आसानी से मानने को तैयार नहीं हैं कि एक लाख करोडके निवेश जमीनी हकीकत बन सकेंगे। पुराने एमओयू के हश्र की इबारत दोहराई नहीं जाएगी। औद्योगिक विकास की पिछली कहानियों के सबक उनके सामने हैं। उनकी नीयत पर शक करने की गुंजाइश नहीं है, लेकिन यह सब उसी वक्त कारगर होगा, जबकि वे उनके पीछे खड़ी मशीनरी की मंशाओं (?) का माकूल इलाज कर सकेंगे।

वे दृढ़ शब्दों में कहते हैं कि ग्लोबल समिट उनके लिए कोई कर्मकांड नहीं है। विकास की राह पर मध्यप्रदेश का सफर देर से शुरू हुआ है, लेकिन प्रयासों की रफ्तार किसी भी सूरत में कम नहीं होगी।

समिट से ऐन पहले एक विशेष साक्षात्कार में उन्होंने बेहिचक कहा कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कई उद्योग बंद हो गए। ये सभी बाहर जाने की तैयारी में थे, अब यह सिलसिला थमा है। एमओयू को वे दिखावा नहीं मानते, कहते हैं इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। 'बीमारू राज्य' के दर्जे से पिंड छु़ड़ाने को वे ऐसी उपलब्धि मानते हैं, जो ग्लोबल समिट में उनकी पीठ थपथपाएगी।

उद्योगपतियों की तकलीफों का जिक्र करने पर वे कहते हैं- नियमों का पालन तो हर किसी को करना होगा, परंतु इस व्यवस्था को पुख्ता किया जा रहा है कि कोई अधिकारी मनमानी नहीं कर सके।

चुनाव के बाद सरकारों के बदलने के उद्योगपतियों के अंदेशे पर वे कहते हैं कि वे मुद्दे कभी नहीं बदलेंगे, जिनमें प्रदेश का स्थायी लाभ निहित है। प्रदेश में कनेक्टिविटी और इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसी समस्याओं पर वे कहते हैं हम काम कर रहे हैं और नतीजे दिखने लगे हैं।

उड़ान के लिए देर से टेक -ऑफ किया

मुख्यमंत्री यह मानते हैं कि अन्य प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेश ने औद्योगिक विकास की उड़ान भरने के लिए टेक-ऑफ देर से किया। साथ ही यह भी कहते हैं कि ग्लोबल समिट जैसे आयोजन केवल कर्मकांड या खानापूर्ति नहीं हैं।

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए विंध्याचल और सतपुड़ा की पर्वतमालाओं में अवसर मौजूद हैं। कान्हा, किसली और बाँधवगढ़ जैसे नेशनल पार्क हैं, जिन्हें विश्व धरोहर कहा जाता है। इंदिरा सागर के रूप में एशिया की सबसे बड़ी वाटरबॉडी हमारे पास है।

इसीलिए निवेश के लिए बारह सेक्टर बनाकर हमने काम शुरू किया है। उद्योगों के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने का काम हमने शुरू किया है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कई उद्योग बंद हो रहे थे या बाहर जाने की तैयारी में थे। यह प्रक्रिया अब रुक गई है।

ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के पहले भी हमने खजुराहो में निवेश लाने की कोशिशें की थीं। उसके परिणाम आना शुरू हो गए हैं। पिछले एक साल में एक लाख करोड़ के प्रोजेक्ट हमारे पास आए हैं। इनमें तीस हजार करोड़ का काम शुरू हो चुका है।

प्रश्न- मप्र के औद्योगिक विकास पर एमओयू संस्कृति हावी है? पिछले चार सालों में कितने एमओयू जमीन पर उतरे, कितने लोगों को रोजगार मिला? सरकार एमओयू के प्रति कितनी गंभीर है?

उत्तर- जैसा कि मैंने कहा कि पिछले एक साल में एक लाख करोड़ के करारों में तीस हजार करोड़ के काम शुरू हो चुके हैं। इसकी सूची उपलब्ध है। एमओयू सरकार और उद्योगपति के बीच एक समझ होती है। दो छोरों को एक सूत्र में बाँधने की प्रक्रिया होती है। इसके मायने यह नहीं होते कि इधर समझौता हुआ, उधर काम शुरू हो जाए।

सरकार के छोर पर नियम प्रक्रियाओं के परिपालन का दायित्व होता है, तो उद्योगपति के छोर पर संसाधनों और आयोजना के कार्यों को अंजाम देना होता है। दोनों छोरों पर तारतम्य बैठाना होता है। हर उद्योग की अपनी जटिलताएँ होती हैं।

इसलिए कहीं ज्यादा वक्त लग जाता है, तो कहीं कम। इसके मायने यह नहीं होते कि सब कुछ ठप पड़ा है। एमओयू सिर्फ औद्योगिक विकास का फुगावा नहीं है। इनमें गंभीरता होती है और इन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए।

प्रश्न- आपने कहा कि मध्यप्रदेश बीमारू राज्यों की श्रेणी से बाहर निकल चुका है। ग्लोबल समिट में यह बात कितनी मददगार होगी?

उत्तर- बीमारू राज्यों की श्रेणी से बाहर निकलने की बात सिर्फ हम ही नहीं, बाकी लोग भी करते हैं। केंद्र सरकार ने हमारी कई योजनाओं की तारीफ की है। आप जानते हैं कि केंद्र में हमारे राजनीतिक दल की सरकार नहीं है। वहाँ हमारे विरोधी बैठे हैं, फिर भी तारीफ कर रहे हैं।

यदि उद्योग मध्यप्रदेश की ओर आकर्षित हो रहे हैं, तो वे हमारी कथनी और करनी का आकलन करने के बाद ही आ रहे हैं। मैं कोरी बात कहने वाला व्यक्ति नहीं हूँ। मैं बातों में नहीं, कामों में विश्वास करने वाला व्यक्ति हूँ। मैं बातों से नहीं, अपने कार्यों से स्वयं को सिद्ध करूँगा।

प्रश्न- मध्यप्रदेश की शासकीय मशीनरी और अधिकारियों की छवि से उद्योगपति बहुत घबराते हैं? आरोप है कि अफसरशाही काफी व्यवधान पैदा करती है? राजनीतिक इच्छाशक्ति को वह कई मर्तबा धूल चटा देती है?

उत्तर- यह सही है कि कतिपय अधिकारी (सब इस श्रेणी में नहीं आते हैं) प्रक्रियाओं में जटिलता पैदा करके मामले को उलझाते हैं। हमने नियम प्रक्रियाओं को सरल और पारदर्शी बना दिया है। उद्योग संवर्धन नीति में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किए हैं। यदि कोई नियम-प्रक्रिया विकास में आड़े आएगी, तो उसे बदलने में सरकार एक क्षण की देरी नहीं करेगी।

फिर मैं मध्यप्रदेश में पूँजी निवेश करने वाले प्रत्येक उद्योगपति के लिए हर सोमवार को शाम को पाँच से छह बजे तक उपलब्ध रहता हूँ। वे मुख्यमंत्री से आसानी से मिल सकते हैं। तकलीफें बता सकते हैं। हमारे सकारात्मक दृष्टिकोण के अच्छे परिणाम सामने आए हैं।

प्रश्न- गुजरात, महाराष्ट्र या कर्नाटक जैसी कार्य-संस्कृति मध्यप्रदेश में क्यों विकसित नहीं हो पाई? लोग मानते हैं कि इन प्रदेशों की उन्नति और खुशहाली के लिए ब्यूरोक्रेसी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है?

उत्तर- मध्यप्रदेश की मौजूदा स्थितियों के आकलन के लिए हमें इतिहास में झाँकना होगा। मध्यप्रदेश में काम नहीं हो पाने में ब्यूरोक्रेसी को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। प्रदेश का सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व भी इसके लिए उत्तरदायी है।

व्यावसायिक नेतृत्व भी इसमें भागीदार है। सभी लोगों को मिल-जुलकर प्रदेश की जितनी चिंता करना थी, वह नहीं की गई। विकास के लिए हर क्षेत्र में, हर क्षेत्र के लिए, हर क्षेत्र की ओर से जितने प्रयास किए जाना चाहिए थे, वे नहीं किए गए। यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति कछुआ चाल से चलेगी, तो समूची व्यवस्था की रफ्तार ही कछुए जैसी होगी।

राजनीतिक इच्छाशक्ति का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि अंततः व्यवस्था के सूत्र उसी के हाथों में होते हैं। जो सोच और रफ्तार राजनीतिक नेतृत्व की होती है, कमोबेश वही रफ्तार बाकी मशीनरी की होती है।

गुजरात या महाराष्ट्र में पिछले पचास सालों से विकास के काम हो रहे हैं। उसी के अनुसार उनकी कार्य-संस्कृति विकसित हुई है। दुर्भाग्य से मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं हो सका। इसीलिए मैंने प्रारंभ में ही कहा था कि मध्यप्रदेश ने औद्योगिक उड़ान भरने के लिए देर से टेक-ऑफ लिया है।

प्रश्न- उद्योगपतियों को आशंका है कि मध्यप्रदेश में अगले साल चुनाव हैं? यदि यहाँ सरकार बदल गई तो क्या होगा? उत्तरप्रदेश के उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं?

उत्तर- सबसे पहली बात यह है कि हमारी सरकार जिस तरह से काम कर रही है, उसके चलते प्रदेश की जनता अगली बार भी भाजपा को प्रदेश का नेतृत्व करने का मौका देगी। हमें यह भी सोचना चाहिए कि लोकतंत्र में राजनीतिक परिवर्तन अपरिहार्य प्रक्रिया है।

सरकारें बदलेंगी, मुख्यमंत्री बदलेंगे, अफसर बदलेंगे, लेकिन वो मुद्दे कभी नहीं बदलेंगे, जिनमें प्रदेश का स्थायी लाभ निहित है, जनता की भलाई समाहित है। उनमें विकास का मुद्दा सर्वोपरि है। मेरी सभी दलों के नेताओं से इन मसलों पर बात होती रहती है।

प्रश्न- मप्र में 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' और 'कनेक्टिविटी' को लेकर उद्योगपतियों की शिकायतें अकसर बनी रहती हैं?

उत्तर- कनेक्टिविटी के मामले में हम पहले से बेहतर हुए हैं। सड़कों का जाल बिछा है। मप्र में पिछले वर्षों में पच्चीस हजार किलोमीटर सड़कें बनी हैं, लेकिन यदि राष्ट्रीय राजमार्ग ठीक नहीं हुए तो अंदर चाहे जितने मार्ग दुरुस्त हों, बात नहीं बनती।

राष्ट्रीय मार्गों के रखरखाव का पैसा केंद्र से आता है। उतना ही हम भी लगाते हैं। हमने अपने बजट से राष्ट्रीय मार्गों को सुधारने के लिए पैसा दिया है। साथ ही इसके लिए 2250 मेगावाट बिजली का उत्पादन बढ़ाया है, लेकिन उत्पादन के साथ माँग भी बढ़ी है, जिसे पूरा करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

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