लखनऊ। दूसरे मेलों के मुकाबले बटुक भैरव मंदिर में भाद्रपद माह के अन्तिम रविवार को लगने वाले इस मेले का माहौल बड़ा अलग होता है। भैरवजी को मदिरा खूब जमकर चढ़ाई जाती है और मिलीजुली मदिरा प्रसाद के रूप में बंटती रहती है। सपेरे बीन बजाते रहते हैं। भादों के अंतिम रविवार को ब्रह्ममुहूर्त में श्री बटुक भैरव का महाभिषेक होने के उपरांत श्रद्धालुओं, द्वारा पूजन-अर्चन का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है।
गोलागंज गुइन रोड पर स्थित श्री बटुक भैरव मंदिर में भाद्रपद माह के अन्तिम रविवार को लगने वाला मेला लखनऊ का प्राचीनतम मेला है। न जाने कब से यह मेला लगता आ रहा है, इसका पांच सौ वर्षों का इतिहास तो मौजूद है, लेकिन बताया जाता है कि यह मेला और अधिक पुराना है। मेले के अवसर पर देवालय क्षेत्र में दर्जनों दुकानें सजती हैं, झूले लगते हैं, विभिन्न फनकार अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। वहीं मेलार्थियों के लिए विशाल भण्डारे का आयोजन होता है।
मेले भारतीय संस्कृति की 'आत्मा' हैं। तेजी से सबकुछ बदलने के बाद भी अनेक ऐसे मेले हैं जो सैंकड़ों वर्षों से परम्परानुसार लगते चले आ रहे हैं। मेलों का स्वरूप तो बहुत कुछ बदलता रहा है, लेकिन इस सबके बावजूद इनका आकर्षण कम नहीं हुआ है। ऐसा ही मेला है 'बड़े इतवार का' जो भादों माह के अंतिम रविवार को लगता है।
भगवान शिव के पांचवें अवतार भैरवजी की कलियुग में पूजा-अर्चना अत्यन्त फलदायी मानी गई है। जिस तरह शिव-पूजा के लिए सावन माह को विशिष्ट माना जाता है, ठीक उसी तरह भाद्रपद माह को भैरव-पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। यही कारण है कि भाद्रपद माह के रविवार को 'बड़ा रविवार' मानते हुए बहुत से श्रद्धालु इस दिन भैरवजी की प्रसन्नता के लिए व्रत रखते हैं। भैरवजी की आराधना के लिए रविवार का दिन विशेष महत्व का होता है।
'बड़ा इतवार' के इस विशेष महत्व को देखते हुए सैकड़ों वर्ष पूर्व यहां मेले का आयोजन प्रारम्भ हुआ जिसे मुगलकाल में 'रजिस्टर्ड मेले' का दर्जा प्राप्त हुआ। उस समय लखनऊ में दो ही मेले रजिस्टर्ड थे। एक भैरव मेला और दूसरा अलीगंज हनुमान मंदिर पर लगने वाला मेला। प्रभु भैरव के रूप में शिव अपने भक्तों को सभी कुछ प्रदान करते हैं। वह भय को हरने वाले हैं। वह पाप का भक्षण करने वाले हैं। कलियुग में कदम-कदम पर प्रचुर मात्रा में भय और पाप हैं। इनसे मुक्त होना असम्भव सा है। भैरव कृपा से ही यह सम्भव है। इसीलिए कलियुग में भगवान शिव के भैरव स्वरूप की आराधना वस्तुतः अनिवार्य है। तंत्रशास्त्र ने इसीलिए भैरव आराधना को प्राथमिक माना है।
मान्यता है कि प्रभु भैरव की पूजा की प्रेरणा अगर साधक को हासिल हो गई तो समझिए समृद्धि और सौभाग्य के द्वार खुल गए। भैरव भक्त के लिए कुछ भी असम्भव नहीं होता। भैरव आराधना का रस चखते ही नए-नए अनुभव होने लगते हैं। परम तत्व की समीपता का साक्षात् अनुभव भैरव भक्त के सभी भय और अभावों को हर लेता है। कामनाएं उत्पन्न होते ही पूर्ण होने लगती हैं। अपने भक्त को प्रभु भैरव स्वयं आस्था का अनंत सागर प्रदान करते हैं और फिर तो भैरव भक्त धीरे-धीरे बंधनों से मुक्त हो जाता है।
श्री बटुक भैरव देवालय भारत राष्ट्र की प्राचीनतम सिद्धपीठ है। यहां अनेकानेक सिद्धों ने तपस्या की। मंदिर परिसर में अनेक समाधियां अभी भी मौजूद हैं। मेले के अवसर पर देशभर से साधु, संत, सिद्ध यहां आते रहते हैं। इस मेले से लोक आस्था बहुत गहरे तक जुड़ी हुई है। श्रद्धालुओं में सहज मान्यता है कि वर्षभर में पुण्य-अर्जन का यह विशिष्ट अवसर एक बार ही आता है। मेले में आने से ही बटुक भैरव की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है।
सुरों के राजा : श्री बटुक भैरव सुरों के राजा कहलाते हैं। इन्हीं के आशीर्वाद से लखनऊ घराने के कथिकों ने कला अर्जित की। कथक की तीर्थ कालका-बिंदादीन ड्योढ़ी मंदिर के बगल में ही है। इस देवालय में लखनऊ घराने के सभी दिग्गज नर्तकों के घुंघरू बंधे हैं। शम्भू महाराज, लच्छू महाराज और बिरजू महाराज जैसे अनेक महान कथक कलाकारों ने अपने पांव में घुंघरू सबसे पहले यहीं मंदिर में बांधे थे। लखनऊ के कथक साम्राज्य का ऐश्वर्य और वैभव इसी मंदिर की देन माना जाता है। बड़े इतवार की रात को घुंघरू वाली रात भी कहा जाता है क्योंकि इस दिन कथक के बड़े-बड़े कलाकार पैरों में घुंघरू बांधकर अपने नृत्य से सुरों के राजा को रिझाने, मनाने, प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद हासिल करने का प्रयत्न करते थे।
सुरों के राजा के इस मंदिर में गुरु अपने शिष्य को घुंघरू प्रदान कर उन्हें अपना शिष्य विधिवत बनाते थे। शंभू महाराज यहां रात-रातभर प्रोग्राम कराते थे। कलाकारों में बाबा भैरव के दरबार में रातभर हाजिरी देने की होड़ लगी रहती थी। पिछले कुछ वर्षों से इस परम्परा को कुमकुम आदर्श ने पुनजीर्वित किया और अपने शिष्यों को मेले के अवसर पर घुंघरू प्रदान किए जाते हैं।
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