Bijnor Uttar Pradesh News : कहते हैं कि रिश्ते कभी खत्म नहीं होते, बस कभी-कभी वक्त की धुंध में धुंधले पड़ने लगते हैं। रक्षा कवच का यह पवित्र त्योहार भरोसे और प्यार का बंधन है। इस रक्षाबंधन पर बिजनौर जिले से एक सच्ची कहानी ने वक्त की धुंध को हटाते हुए भाई-बहन के मिलन की कहानी पेश की है। 60 साल पहले एक मेले में अपने परिवार से बिछड़ी बालेश आखिरकार अपने सगे भाई से मिल गई है और इस बार राखी का धागा सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि पुनर्मिलन की गवाही बन रहा है।
मेले में बिछड़ी बालेश की कहानी रूपहले पर्दे की तरह सुखद है, जो 1960 में गंगा स्नान मेले से शुरू होती है। जहां 9 साल की बालेश भारी भीड़ में अपने परिवार से बिछड़ गई। मेला खत्म हुआ, लेकिन परिवार से बिछड़ी बालेश और उनके परिवार की तलाश अधूरी रह गई। उसी दौरान इस बच्ची को एक अजनबी दंपति जबरन अपनी 'भानजी' बताकर फर्रुखाबाद जिले के पकाना गांव ले गए। वहीं से बालेश को एक नई पहचान मिली।
फर्रुखाबाद में बालेश ने यौवन की दहलीज पर कदम रखा, शादी और बच्चे हुए। शादी के बाद बालेश ने पति से भी कहा कि वह अपने बिछड़े परिवार से मिलना चाहती है, पति ने भी उसकी यह हसरत पूरी नहीं की। समय गुजरता गया, उसके पोते-पोती भी जवान होकर नौकरी करने लगे। 60 के दशक से अपने पैतृक परिवार की दूरी बालेश को अब भी खल रही थी, अपनों से मिलने की चाह में वो बेचैन हो उठती और दिल में खालीपन बना हुआ था।
वर्षों बीत जाने के बाद भी बालेश की यादों में बिजनौर की तस्वीर धुंधली नहीं पड़ी। कहानी में उस समय एक नया मोड़ आया, जब भारतीय सेना में कार्यरत पोता प्रशांत बालेश की कहानी सुन रहा था। पोते ने दादी की कहानी सुनी तो उसे लगा बिजनौर में खोए परिवार से उनको मिलवाना चाहिए। कहानी के टुकड़ों को जोड़कर उसने सच्चाई तक पहुंचने की ठान ली। बिना किसी को कुछ बताए वह बीती तीन तारीख में बिजनौर के कभोर गांव आ गया।
गांव में जानकारी लेते हुए दादी के भाई के घर पहुंचा और बताया कि वह बालेश का पोता है। पहले बालेश के भाई-भतीजों को विश्वास, वीडियो कॉल पर गांव की पहचान और पुरानी बातें पूछीं तो सब सच था, फिर बिछड़ी बहन को वापस लाने उसके भाई का परिवार बालेश के पास पहुंच गया। बालेश भाई के पोते के साथ जैसे ही गांव आई तो अनुभव की चाशनी में डूबी बुजुर्गों की आंखों ने एक झलक में बालेश को पहचान लिया। वह पल सिर्फ पहचान का नहीं, एक टूटे रिश्ते के फिर से जुड़ने का था।
कभोर गांव में बालेश के लौटने पर खुशी मनाई जाने लगी, रक्षाबंधन का पर्व कुछ घंटों बाद मनाया जाएगा, ऐसे में 60 वर्षों बाद बालेश अपने सगे भाई की कलाई पर राखी बांधेंगी। जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि रिश्तों की जिजीविषा, विश्वास और प्रेम की जीत है।
बालेश का अपने भाइयों से मिलना यह सिद्ध करता है कि खून के रिश्ते वक्त, दूरी और हालात से ऊपर होते हैं। वे टूटते नहीं, बस समय की परतों में छिप जाते हैं और जब भावनाएं सच्ची हों, तो एक दिन फिर सामने आकर खड़े होते हैं। कभोर गांव में बालेश और उसका बिछड़ा परिवार यादों और फिर से जुड़े रिश्तों की मिठास से बंध गए हैं।