और अब 4-5 अगस्त की रात से जम्मू-कश्मीर की जनता एक बार फिर 2003 के दौर में पहुंच चुकी है, जब न ही मोबाइल फोन थे और न ही इंटरनेट। अब हालत यह है कि करीब 95 प्रतिशत क्षेत्रों में सरकार द्वारा स्थापित 'मोबाइल बूथों' से ही लोगों को अपनों की खबर लेनी पड़ रही है और खबर देनी पड़ रही है।
जम्मू, सांबा, कठुआ और उधमपुर जिलों को छोड़कर बाकी सब क्षेत्रों में मोबाइल, लैंडलाइन और इंटरनेट अभी भी बंद हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में ऐसा इसलिए किया गया है ताकि अनुच्छेद 370 को हटा दिए जाने के बाद कोई रोष व्यक्त करने के लिए इन संचार संसाधनों का इस्तेमाल न कर सके।
यूं तो श्रीनगर में 7 दिन पहले ही ऐसे मोबाइल बूथों की स्थापना हो गई थी, पर राजौरी, पुंछ, बनिहाल, रामबन, डोडा, किश्तवाड़ आदि वे क्षेत्र जो कश्मीर वादी से सटे हुए हैं, नसीब वाले नहीं थे। कुछेक तहसील मुख्यालयों में 19 दिनों के बाद ऐसे बूथों की स्थापना हुई है। इन बूथों की सच्चाई यह है कि सुबह 10 से शाम 5 बजे के बीच इनका इस्तेमाल करने के लिए लोगों को सैकड़ों किमी का सफर करना होगा।
ऐसा भी नहीं है कि जम्मू समेत जिन जिलों में मोबाइल सेवा जारी है, उसकी हालत अच्छी हो बल्कि पिछले 19 दिनों से लोग सिग्नल की आंख-मिचौनी से तंग आ चुके हैं। स्थिति यह है कि एक कॉल करने के लिए कई बार सिग्नल का इंतजार करना पड़ रहा है और कई बार तो बात करते-करते आवाज ही दब जाती है।
और 21वीं सदी में लोग बिना इंटरनेट के कैसे जीवन काट रहे हैं, यह जम्मू-कश्मीर के लोगों से पूछा जा सकता है, जहां बिजनेस और व्यापार भी बिन इंटरनेट सब सुन्न की स्थिति में हैं।