ईद-उल-अजहा : कुर्बानी का प्रतीक

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014 (10:05 IST)
कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानी अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्योहार ईद-उल-जुहा जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं। 
 

 
यूं तो इस्लाम मजहब में दो ईदें त्योहार के रूप में मनाई जाती हैं। ईदुलब फित्र जिसे मीठी ईद भी कहा जाता है और दूसरी ईद है बकर ईद। इस ईद को आम आदमी बकरा ईद भी कहता है। शायद इसलिए कि इस ईद पर बकरे की कुर्बानी की जाती है। वैसे इस ईद को ईदु्ज्जोहा और ईदे-अहा भी कहा जाता है। 
 
क्या है इतिहास-
ईद-उल-जुहा का इतिहास हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। उन्होंने आवाज उठाई तो कबीले वाले दुश्मन बन गए। उनका जीवन जनसेवा में बीता। 90 साल की उम्र में भी उनकी औलाद नहीं हुई तो खुदा से उन्होंने प्रार्थना की और उन्हें चांद सा बेटा इस्माइल मिल गया। इस्माइल की उम्र 11 साल भी न होगी कि हजरत इब्राहीम को एक सपना आया। 
 
उन्हें आदेश हुआ कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। उन्होंने अपने प्यारे ऊंट की कुर्बानी दी। फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। तीसरी बार वही सपना फिर आया। वह समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और पत्नी हाजरा से कहा कि नहला-धुला कर बच्चे को तैयार करें। 
 
जब वह इस्माइल को बलि के स्थान पर ले जा रहे थे तो इब्लीस (शैतान) ने उन्हें बहकाया कि- क्यों अपने जिगर के टुकड़े को मारने पर तूले हो, मगर वह न भटके। छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे बेटे ने बाप की आंखों पर रुमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए। 
 
बाप ने छुरी चलाई और आंखों से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए। बेटा तो उछल-कूद कर रहा है और उसकी जगह एक भेड़ की बलि खुदा की ओर से कर दी गई है। हजरत इब्राहीम ने खुदा का शुक्रिया अदा किया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है इस दिन आमतौर से बकरे की कुर्बानी की जाती है। 
 
क्या है इसकी खासियत- 
उस दिन अल्लाह का नाम लेकर जानवर को कुर्बान किया जाता है। इसमें नियम यह है कि कुर्बान किया जाने वाला बकरा एक दम तन्दुरूस्त और बगैर किसी ऐब का होना चाहिए। यानी उसके बदन के सारे हिस्से वैसे ही होने चाहिए जैसे खुदा ने बनाए हैं। सींग, दुम, पांव, आंख, कान वगैरा सब ठीक हो, पूरे हो और जानवर में किसी तरह की बीमारी भी न हो। कुर्बानी के जानवर की उम्र कम से कम एक साल हो। इसी कुर्बानी और गोश्त को हलाल कहा जाता है। 
 
इस गोश्त के तीन बराबर हिस्से किए जाते हैं, एक हिस्सा खुद के लिए, एक दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा ग़रीबों और मिस्कीनों के लिए। मीठी ईद पर सद्‍का और जकात दी जाती है, तो इस ईद पर कुर्बानी के गोश्त का एक हिस्सा गरीबों में तकसीम किया जाता है। हर त्योहार पर गरीबों का खयाल जरूर रखा जाता है ताक‍ि उनमें कमतरी का एहसास पैदा न हो। 
 
इस तरह यह ईद जहां सबको साथ लेकर चलने का पैगाम देती है, वहीं यह भी बताती है कि इंसान को खुदा का कहा मानने के लिए, सच्चाई की राह में अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

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