शांति के लिए, शांतिमय तौर-तरीके ही अपनाने होंगे, क्योंकि यदि तरीके भी हिंसक हों तब लक्ष्य शांतिमय नहीं हो सकता। यदि मुक्ति लक्ष्य है, तो उसका प्रारंभ भी मुक्त होना चाहिए, क्योंकि अंत और शुरुआत दोनों एक ही बात है। आत्मज्ञान और बुद्धिमानी तभी हासिल हो सकती है कि जब बिलकुल आरंभ से ही स्वतंत्रता हो और सत्ता की स्वीकृति मुक्ति का नकार है।
इस सत्ता को उसके अनेक रूपों में पूजते हैं जैसे- ज्ञान, सफलता, अधिकार आदि। हम किशोरों के ऊपर सत्ता का उपयोग करते हैं और साथ ही साथ अपने से ऊपर की सत्ता से डरे रहते हैं। जब स्वयं में आंतरिक ज्ञान नहीं होता, तब बाहरी सत्ता और स्थिति का जोर बहुत बढ़ जाता है और तब व्यक्ति सत्ता एवं बाध्यता के अधीन होता जाता है, वह अन्यों का हथियार बन जाता है। हम इस प्रक्रिया को अपने चारों ओर घटते हुए देखते हैं, जैसे कि संकट के समय लोकतंत्री राष्ट्र अपनी शक्ल बदलकर तानाशाही अपना लेते हैं और अपने जनतंत्र को भूलकर जनता को अनुसरण करने के लिए दबाते हैं।
यदि प्रभुसत्ता जमाने की अथवा दबे रहने की इच्छा के पीछे की बाध्यता को हम समझ सकें तो हम सत्ता के झगड़े के प्रभावों से मुक्त हो पाएँगे। हम निश्चयात्मक, सही, सफल, जानकार माने जाने के लिए लालायित रहते हैं और निश्चितता एवं स्थायित्व की यह लालसा हमारे भीतर व्यक्तिगत अनुभव की सत्ता को गढ़ती जाती है, जबकि बाह्य रूप से वह समाज की, परिवार की, धर्म की सत्ताओं को रचती है, लेकिन सत्ता का महज नकार और उसके बाह्य प्रतीकों को झटकारकर बाहर करने भर से कुछ नहीं होगा।
निश्चिन्तता और सुरक्षा की लालसा स्व की एक बड़ी गतिविधि है और यही बाध्य करने वाली वह माँग है कि जिस पर निरंतर नजर रखना चाहिए एवं उसे किसी अन्य दिशा में दबाया या घुमाया नहीं जाना चाहिए और उसे मनचाहे रूप का अनुसरण नहीं करना चाहिए।
किसी एक परम्परा से छूट आना और किसी दूसरी परम्परा स्वीकार लेना, अथवा एक नेता को छोड़ दूसरे का अनुसरण कर लेना एकदम सतही स्वाँग है। यदि हमें सत्ता की समूची प्रक्रिया से अवगत होना है, यदि हमें उसकी आंतरिकता को देखना है, यदि स्थायित्व की अभिलाषा को समझना एवं उससे अनुभवातीत होना है तो हममें विशाल, चैतन्य और अंतर्दृष्टि होना चाहिए एवं हमें मुक्त होना चाहिए- अंत में नहीं, प्रारंभ में ही।
निश्चिन्तता और सुरक्षा की लालसा स्व की एक बड़ी गतिविधि है और यही बाध्य करने वाली वह माँग है कि जिस पर निरंतर नजर रखना चाहिए एवं उसे किसी अन्य दिशा में दबाया या घुमाया नहीं जाना चाहिए और उसे मनचाहे रूप का अनुसरण नहीं करना चाहिए। स्व, 'मैं', और 'मेरा' हममें से अधिकांश में अत्यंत प्रबल है, वह चाहे सोया हुआ हो चाहे जागा हुआ हो, वह सदैव चौकस है और अक्सर अपने स्वयं को मजबूत करता हुआ होता है, किन्तु जब स्व के बाबद चेतना हो और यह एहसास हो कि उसकी सारी गतिविधियाँ (जो कि चाहे जितनी सूक्ष्म हों) अपरिहार्य रूप से संघर्ष और दु:ख को बढ़ावा देगी तो निश्चिंतता के लिए और सनातनता के लिए लालसा का अंत हो जाएगा।
स्व के लिए हमें निरंतर चौकस रहना चाहिए कि वह अपने तौर-तरीकों का उद्घाटन करे, लेकिन जब हम उन्हें समझना शुरू करते हैं और सत्ता की गुत्थियों एवं उसकी (सत्ता की) स्वीकृति तथा अस्वीकृति में हमारी सारी युक्तियों को समझना चाहते हैं, तभी हम सत्ता के झाँसे से अपने को दूर कर सकते हैं।
जब तक मस्तिष्क अपनी सुरक्षा की लालसा के द्वारा स्वयं को प्रभावित और नियंत्रित होने देगा, तब और उसकी समस्याओं से मुक्ति नहीं मिल सकती है और इसीलिए मतान्धता या संयोजित विश्वास जिसे हम धर्म कहते हैं, उसके द्वारा स्व मुक्त नहीं हो सकता। मतान्धता और अंधविश्वास हमारे ही मस्तिष्क के प्रक्षेपण हैं। कर्मकांड, पूजा, ध्यान के तथाकथित रूपाकार तथा शब्दों व मुहावरों का रटन स्व और उसकी गतिविधियों से मस्तिष्क को मुक्त नहीं करते (गो कि वे कुछेक तुष्टिकारी अनुभूति भले ही प्रदान करें), क्योंकि स्व तो वस्तुतः मन के उद्वेलनों का प्रतिफल है। (क्रमश:)