जब योग होता है तब संयोग होता है। संयोग में जो योग है, अद्भुत है, सुखदायक है। संयोग के बाद वियोग में भी योग है। यह प्रकृति का नियम है। संयोग भरपूर मिलता है तो वियोग भी भरपूर मिलता है।
वह भी इस तर्ज पर 'जीवन के सफर में, राही मिलते हैं बिछुड़ जाने को/ और दे जाते हैं यादें, तन्हाई में तड़पाने को।' जब तक कोई सामने रहता है उसकी कद्र नहीं होती है, उसके चले जाने के बाद उसकी कमी का अनुभव होता है। क्षणिक वियोग के बाद जब फिर संयोग होता है, उसका आनंद अनुपम होता है।
योग का मूलमंत्र ही यही है कि कर्मनिष्ठ बनो, धर्मनिष्ठ बनो, सत्यनिष्ठ बनो। योग सुयोग बन सके इस हेतु यह आवश्यक है कि हम अपनी शक्ति पहचाने और उसका सदुपयोग करें।