सत्य ही परमधर्म का मार्ग

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आजकल देश में सत्ता का संघर्ष दिखाई दे रहा है। एक राजनीतिक दल दूसरे दल को भ्रष्ट प्रमाणित करने के लिए नए-नए उपाय सोचता रहता है। ऐसा ही वातावरण यूनान में था। वहाँ एक प्रसिद्ध सत्यवादी संत (एंटी क्रेटस) सबको सत्यवादी और सदाचारी बनने का उपदेश दिया करते थे।

उनका कहना था कि सत्य ही ईश्वर की सबसे बड़ी देन है। वहाँ के नागरिकों ने संत की बात को अव्यावहारिक और एक आदर्शवादी का प्रलाप समझकर उपेक्षा कर दी क्योंकि वे मानते थे कि दैनिक जीवन में संभ्रांत नागरिक बनने के लिए सदाचरण जरूरी नहीं है बल्कि सत्य और धर्म की कल्पना तो की जा सकती है, उसे व्यवहार की भूमि पर उतारा नहीं जा सकता।

ऐसे में राजनीतिक लोगों के विचार उग्र होते गए, परिणाम यह हुआ राजनीति के साथ सत्य का समन्वय न होने के कारण संत को छह वर्ष के लिए देश से बाहर निकाल दिया। संत की अनुपस्थिति में सत्य का भव्य मंदिर निर्माण करा दिया गया।

सत्य बोलने की सजा काटने के बाद जब संत देश लौटे तो सत्य मंदिर को देखकर आश्चर्य में पड़ गए। संत ने पूछा कि मंदिर किसने बनवाया तो जवाब मिला कि सभी दलों के राजनीतिज्ञों ने। संत भी दर्शन करने भीतर गए। देखा बड़ी भीड़ एकत्रित है, वहाँ बहुत शोर हो रहा है।

किसी की कोई बात समझ में नहीं आती है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक दल अपने आपको सत्यवादी और सदाचारी व दूसरे को भ्रष्ट सिद्ध कर रहा है। मारपीट की नौबत आने ही वाली है। संत यह देखकर मंदिर से बाहर आ गए और एक कोने में खड़े होकर सोचने लगे कि अच्छा होता यदि सत्य और सदाचरण की खोज दूसरों के बजाय लोग अपने भीतर करते।

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भगवान्‌ श्रीकृष्ण धर्म में अपनी निष्ठा का परिचय देते हुए कहते हैं- मैं काम, क्रोध, द्वेष, लोभ व किसी प्रलोभन से धर्म नहीं छोड़ता।

मुनयः सत्यनिरता मुनयः सत्यविक्रमाः।
मुनयः सत्यश्पथास्तस्मात्‌ सत्यं विशिष्यते।

भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि संपूर्ण वेदों को धारण करने और समस्त तीर्थों में स्नान करने के सत्कर्म का पुण्य सदा सत्य बोलने वाले पुरुष के पुण्य के बराबर हो सकता है या नहीं, इसमें तो संदेह है लेकिन इनसे सत्य श्रेष्ठ है, इसमें संदेह नहीं।

हजार अश्वमेध यज्ञों का पुण्य और दूसरे पलड़े पर केवल सत्य रखा जाए तो सत्य भारी पड़ेगा। 'सर्वं सत्ये प्रतिष्ठतम्‌' समस्त ब्रह्मांड सत्य पर टिका हुआ है इसीलिए सत्य को परमधर्म भी कहा गया है।

आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का पहला सूत्र है - सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलं अर्थः, अर्थस्य मूलं स्वराज्यं/स्वराज्यस्य मूलं इंद्रियसंयमः इंद्रियसंयमस्य मूलं वृद्धोपसेवा।

वस्तुतः प्राणी सुख तो चाहता है पर धर्म से दूर भागता है और सुख-संपत्ति के लिए अधर्म, असत्य, स्तेय, भ्रष्टाचार, अनाचार का सहारा लेता है तो परस्पर द्वेष, संघर्ष और अशांति बढ़ती है।

व्यासजी ने सत्य से धर्म का जन्म स्वीकार किया है और अन्यत्र भी धर्म का लक्षण बताया है। 'नहि सत्यात्परो धर्मः' अर्थात् सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं परंतु झूठ बोलने से शीघ्र लाभ होने लगे तो लोग धर्म की बुराई करने लगते हैं।

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