आराधना किसे कहते हैं?

-डॉ. रामकृष्ण सिंगी
 
भक्ति तो एक मनोभाव है समर्पण का, परम विश्वास का, मनोरम रस-माधुर्य का, न्योछावर हो जाने का, तन्मयता के साथ अनुरक्त रहने का। यह भाव अपने इष्ट या आराध्य के चरणों में समर्पित कर भक्त उस भाव-धारा के पुण्य जल में निरंतर अवगाहन करता हुआ मगन रहता है।
 
आराधना भक्ति की निरंतरता, सातत्य और अविचलता के साथ कुछ और भी है। आराधना है अपने ईश के रूप, स्वरूप, गुण, महिमा का निरंतर स्मरण, मन में दुहराव, जप, कीर्तन, मनन तथा मानसिक और भौतिक पूजन द्वारा अपने आराध्य से यह कृपा प्राप्त करने का यत्न कि उसके स्वरूप की दिव्यता के तत्व हमारे व्यक्तित्व को भरसक प्रकाशित करें, हमारे चरित्र को आलोकित करें और हमारे कार्यों व संकल्पों में झलकें। उद्देश्य यह कि हमारा संपूर्ण जीवन सांसारिक गतिविधियों में लिप्त रहता हुआ भी उस दैवी-‍दिव्यता से तृप्त रहे, आप्यायित हो।




आराधना या उपासना को एक अन्य अर्थ में ही समझा जाना चाहिए। विभिन्न दैवी शक्तियों की आराधना इसलिए भी की जाती है कि हम उनसे अपने सांसारिक उपक्रमों में इच्छित सफलता प्राप्त करने का वरदान प्राप्त करें, सफलता प्राप्ति के बीच आने वाली बाधाओं का निवारण हो और हमारा प्रयत्न, उद्यम, तपस्या, उपक्रम, सुगम हो। दैवी शक्तियों की आराधना मनोबल देती है, आत्मविश्वास बढ़ाती है, उत्साह का संचार करती है और सफलता की संभावना बढ़ाती है। विद्या/ ज्ञान अर्जन के लिए गणेश व सरस्वती की आराधना, शक्ति के लिए देवी और हनुमान की आराधना, संकट निवारण के लिए शिव की आराधना इसके उदाहरण हैं। परंतु यह समझ लिया जाना चाहिए कि भौतिक चढ़ावों या धूप, दीप, भोग, दान से यह आराधना सफल नहीं होती। सफलता प्राप्त होती है अपने प्रयत्नों में कठोर परिश्रम से, एकाग्रता से, लगन से, तन्मय उद्यम से, इच्छित दिशा में किए गए सार्थक प्रयासों से।



सफलता प्राप्ति का मूल मंत्र है तपस्या। दैवी शक्तियां तो इस तपस्या की साक्षी होती हैं, मनोबल बढ़ाने का वरदान देती हैं और एक ऐसा सुखद अहसास देती हैं कि हमारे प्रयत्नों पर किसी दिव्य शक्ति की छत्रछाया है। इन शक्तियों की आराधना का मनोभाव हमारे प्रयत्नों को अनंत ऊर्जा से श्रृंगारित कर देता है, जो सफलता को अवश्यंभावी बना देता है। आराधना हमारे प्रयत्नों की सहकारिणी है, स्‍थानापन्न नहीं।

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