अर्थ- जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है, वह सैकडों बार तीर्थस्नान करके भी शुध्द नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता।
2. दोहा :
धर्मशील गुण नाहिं जेहिं, नहिं विद्या तप दान ।
मनुज रूप भुवि भार ते, विचरत मृग कर जान ॥
अर्थ- जिस मनुष्य में न विद्या है, न तप है, न शील है और न गुण है ऎसा व्यक्ति पृथ्वी पर बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश है।
अर्थ- बिना समझे-बूझे खर्च करने वाला मनुष्य अनाथ, झगडालू होता है और सब तरह की स्त्रियों के लिए बेचैन रहने वाला मनुष्य देखते-देखते चौपट हो जाता है।
4. दोहा :
लेन देन धन अन्न के, विद्या पढने माहिं ।
भोजन सखा विवाह में, तजै लाज सुख ताहिं ॥
अर्थ- जो मनुष्य धन तथा धान्य के व्यवहार में, पढने-लिखते में, भोजन में और लेन-देन में निर्लज्ज होता है, वही सुखी रहता है।
5. दोहा :
दानशक्ति प्रिय बोलिबो, धीरज उचित विचार ।
ये गुण सीखे ना मिलैं, स्वाभाविक हैं चार ॥
अर्थ- मनुष्य के अंदर दानशक्ति, मीठी बातें करना, धैर्य धारण करना, समय पर उचित-अनुचित का निर्णय करना, ये 4 गुण स्वाभाविक सिद्ध हैं, ये सीखने से नहीं आते।
6. दोहा :
विद्या गृह आसक्त को, दया मांस जे खाहिं
लोभहिं होत न सत्यता, जारहिं शुचिता नाहिं ॥
अर्थ- जिस तरह गृहस्थी के जंजाल में फंसे व्यक्ति को विद्या नहीं आती, मांस का भोजन करने वाले के हृदय में दया नहीं आती, लोभी-लालची के पास सचाई नहीं आती, उसी तरह कामी पुरुष के पास पवित्रता नहीं आती।