इस बीच हिन्दू धर्म में कोई भी मांगलिक कार्य शादी-विवाह आदि नहीं होते। देव 4 महीने शयन करने के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन उठते हैं इसीलिए इसे देवोत्थान (देवउठनी) एकादशी कहा जाता है।
देवोत्थान एकादशी तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में भी मनाई जाती है। इस दिन लोग तुलसी और शालिग्राम का विवाह कराते हैं और मांगलिक कार्यों की शुरुआत करते हैं। हिन्दू धर्म में प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी का अपना ही महत्व है। इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है, उसको दिव्य फल प्राप्त होता है।
उत्तर भारत में कुंआरी और विवाहित स्त्रियां एक परंपरा के रूप में कार्तिक मास में स्नान करती हैं। ऐसा करने से भगवान विष्णु उनकी हर मनोकामना पूरी करते हैं। जब कार्तिक मास में देवोत्थान एकादशी आती है, तब कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती हैं। पूरे विधि-विधानपूर्वक गाजे-बाजे के साथ एक सुंदर मंडप के नीचे यह कार्य संपन्न होता है। विवाह के समय स्त्रियां मंगल गीत तथा भजन गाती हैं।
कहा जाता है कि ऐसा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियों की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपतियों के संतान नहीं होती, वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं अर्थात जिन लोगों के कन्या नहीं होती उनकी देहरी सूनी रह जाती है, क्योंकि देहरी पर कन्या का विवाह होना अत्यधिक शुभ होता है। इसलिए लोग तुलसी को बेटी मानकर उसका विवाह शालिगराम के साथ करते हैं और अपनी देहरी का सूनापन दूर करते हैं।
प्रबोधिनी एकादशी अथवा देवोत्थान एकादशी के दिन भीष्म पंचक व्रत भी शुरू होता है, जो कि देवोत्थान एकादशी से शुरू होकर 5वें दिन पूर्णिमा तक चलता है इसलिए इसे भीष्म पंचक कहा जाता है। कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां या पुरुष बिना आहार के रहकर यह व्रत पूरे विधि-विधान से करते हैं।
इस व्रत के पीछे मान्यता है कि युधिष्ठिर के कहने पर भीष्म पितामह ने 5 दिनों तक (देवोत्थान एकादशी से लेकर 5वें दिन पूर्णिमा तक) राजधर्म, वर्ण धर्म मोक्ष धर्म आदि पर उपदेश दिया था। इसकी स्मृति में भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामह के नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित किया था। मान्यता है कि जो लोग इस व्रत को करते हैं, वे जीवनभर विविध सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
देवोत्थान एकादशी की कथा
एक समय भगवान विष्णु से लक्ष्मीजी ने कहा- हे प्रभु! अब आप दिन-रात जागा करते हैं और सोते हैं तो लाखों-करोड़ों वर्ष तक को सो जाते हैं तथा उस समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। अत: आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ समय विश्राम करने का समय मिल जाएगा।
लक्ष्मीजी की बात सुनकर भगवान विष्णु मुस्काराए और बोले- 'देवी! तुमने ठीक कहा है। मेरे जागने से सब देवों को और खासकर तुमको कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से जरा भी अवकाश नहीं मिलता इसलिए तुम्हारे कथनानुसार आज से मैं प्रतिवर्ष 4 मास वर्षा ऋतु में शयन किया करूंगा। उस समय तुमको और देवगणों को अवकाश होगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी। यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों को परम मंगलकारी, उत्सवप्रद तथा पुण्यवर्धक होगी। इस काल में मेरे जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे तथा शयन और उपादान के उत्सव आनंदपूर्वक आयोजित करेंगे, उनके घर में तुम्हारे सहित निवास करूंगा।'
पूजन विधि
भगवान विष्णु को 4 महीने की निद्रा से जगाने के लिए घंटा, शंख, मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीच ये श्लोक पढ़कर जगाते हैं-
उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।
त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत।।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।
हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमङ्गलम्कुरु।।
भगवान विष्णु को जगाने के बाद उनकी षोडशोपचार विधि से पूजा करनी चाहिए। अनेक प्रकार के फलों के साथ भगवान विष्णु को नैवेद्य (भोग) लगाना चाहिए। अगर संभव हो तो उपवास रखना चाहिए अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण कर उपवास करना चाहिए। इस एकादशी में रातभर जागकर हरि नाम-संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु के 4 महीने की नींद से जागने के बाद ही इस एकादशी से सभी शुभ तथा मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं और हिन्दू धर्म में विवाहों की शुरुआत भी इसी दिन शुभ मुहूर्त से होती है, जो कि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक चलते हैं। मान्यता के अनुसार प्रबोधिनी एकादशी के दिन विवाह करने वाला जोड़ा जीवनभर सुखी रहता है।