आँख खुलती ही सुमधुर ध्वनि से है। जी हाँ! वहाँ सुबह होती है मंदिर से आने वाली वैदिक मंत्रों, शंखनाद व घंटियों की सुमधुर प्रतिध्वनि के साथ। यह पावन सी सुबह कितना सुकून देती है। मन शांत, ताजा और प्रफुल्लित हो जाता है। हो भी क्यों नहीं? यही तो है हमारी सांस्कृतिक विरासत, जिसे दक्षिण भारत गर्व के साथ सहेजे हुए है। उसी का प्रमाण है कि अब भी विदेशी पर्यटक भारत की कला को न केवल देखने आते हैं, बल्कि उसके आगे नतमस्तक भी हो जाते हैं। दक्षिण भारत प्राकृतिक दृष्टि से जितना सुरम्य है, उसमें वहाँ का प्राचीन शिल्प, वैभव, आस्था और संस्कार चार चाँद लगा देते हैं। दक्षिण का दर्प-शिल्प सौंदर्ययुक्त भव्य मीनाक्षी मंदिर देखने के बाद लगा अब तक हम जिन्हें भव्य कहते आए थे, वे इसके पासंग भी नहीं हैं।
तमिलनाडु के मध्य में स्थित मदुरै नगर की कला एवं संस्कृति की भव्यता राष्ट्र का गौरव कही जा सकती है। धान के विस्तृत खेतों, आकर्षक पाम और नारियल के पेड़ों से सुशोभित, अपने गगनस्पर्शी गोपुरों द्वारा दूर से ही पहचानी जाने वाली मदुरै भारतीय जीवन पद्धति और विचार शैली, संस्कृति परंपरा को अक्षुण्ण रखे हुए है। मीनाक्षी मंदिर को केंद्र में रखकर नगर की रचना कमल के फूल की आकृति में की गई है। दक्षिण भारतीय शिल्पकला का बेहतरीन नमूना माता मीनाक्षीदेवी मंदिर मदुरै की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी है।
भारत के प्राचीन राज्यों में से ऐसा कोई नहीं रहा, जिसका राजवंश मदुरै के पांड्य राजवंश जितनी लंबी अवधि तक लगातार विद्यमान रहा हो। ईसा से चार-पाँच सौ वर्ष पहले से लेकर 14वीं सदी ईस्वी के पूर्वार्द्ध तक पांड्य राजाओं ने मदुरै पर राज किया। अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने मदुरै पर अधिकार किया था और मीनाक्षी मंदिर, सुंदरेश्वरम की बाहरी दीवार एवं बुर्ज तोड़ दिए थे। सौभाग्य से भीतर के मंदिर बच गए थे। बाद में बाहर वाले बड़े गोपुर फिर बनवाए गए।
सोलहवीं सदी के मध्य में विजयनगर के राजा ने विश्वनाथ नायक को मदुरै का शासक बनाकर भेजा, जिसके साथ प्रसिद्ध सेनापति आर्यनायक मुठली भी गया। नायक वंश में सबसे प्रतापी तिरुमलई नायक हुआ, जिसने सन् 1659 तक राज किया। उसने भव्य इमारतों से मदुरै को सँवारा। कहा जाता है कि पांड्य नरेश कुलशेखर की विनती से प्रसन्न भगवान शिव की जटाओं से निस्सारित मकरंद से 'मधुरा' नगरी कमल के स्वरूप में विकसित हुई। पांड्य राजाओं की यह राजधानी 'दक्षिण भारत की एथेंस' कहलाई।
मीनाक्षी मंदिर का वर्तमान स्वरूप कई राजाओं द्वारा किए गए विकास का परिणाम है। यहाँ अनेक छोटे-बड़े मंदिर, पवित्र स्थान, भव्य कलात्मक प्रतिमाएँ, स्तम्भ, परकोटे मिलकर लगभग 240 मीटर लंबे और 260 मीटर चौड़े परिसर का निर्माण करते हैं। यह विशालता किसी भूल-भुलैया से कम नहीं लगती। दोहरे मंदिर के दक्षिण में मीनाक्षीदेवी का मंदिर है। देवी के निजी मंदिर श्री मीनाक्षी सन्निधि में देवी मीनाक्षी की श्यामवर्णा सुंदर प्रतिमा पूर्वाभिमुख खड़ी है। भीतर और भी कई देव मूर्तियाँ हैं। सन्निाधि के आगे सोने का मुलम्मा किया हुआ एक स्तम्भ है, जिसके उत्तर में सुंदरेश्वरम् मंदिर का छोटा गोपुर है।
सुंदरेश्वरम् मंदिर के चारों ओर गोपुरम बने हैं, जिन पर अनेक हिंदू देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ बनी हैं। प्रत्येक गोपुरम नौ मंजिला है, जो कि एक बड़े आयताकार में स्थित है। इनके प्रवेश द्वार लगभग 20 मीटर ऊँचे हैं। 'कुम्बथड़ी मंडपम' में शिवजी की विभिन्न मुद्राओं में एवं अनेक देवताओं और ऋषियों की बहुत सी प्रतिमाएँ हैं। पास के कक्षों में मीनाक्षीदेवी एवं सुंदरेश्वरजी के वाहन रखे हैं। यहीं चाँदी से मढ़े हुए हंस और नंदी हैं। कुछ दूर मदुरै के शासक विश्वनाथ नायक के मंत्री आर्य नायक मुठली का बनवाया हुआ सहस्त्र स्तम्भ मंडपम है, जिसमें कुल 985 स्तम्भ हैं। इन पर उत्कीर्ण देवी-देवताओं, नृत्यांगनाओं, योद्धाओं की सजीव प्रतिमाएँ देखने योग्य हैं।
इस मंदिर के चार द्वार हैं। प्रवेश द्वार पर मंगल के प्रतीक श्री गणेशजी की विशाल प्रतिमा है। पूर्वी प्रवेश द्वार आस्था, शक्ति मंडपम तक ले जाता है, जिसका निर्माण 1625 ईस्वी में थिरुमल्लई नायक की पत्नियों रुद्रपथी, अम्मई और थोलाम्मई ने कराया था। किंवदंती है कि राजा मलयाजा पंड्या के कोई संतान नहीं थी।
संतान प्राप्ति हेतु राजा-रानी ने एक विशाल यज्ञ करवाया, जिसकी अग्नि में से तीन वर्षीय विलक्षण बालिका प्रकट हुई और रानी कंचलमाला की गोद में जा बैठी। युवा होकर इसी राजकुमारी मीनाक्षी ने दिग्विजय द्वारा आसपास के सभी राजाओं को युद्ध में परास्त कर अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय दिया। अंत में कैलाश पर्वत पर उन्होंने भक्ति और शक्ति द्वारा भगवान शिव को पति रूप में पाया।
श्री मीनाक्षीजी के निज मंदिर के पास स्वर्ण पुष्करणी नामक सुंदर सरोवर है, जिसके चारों ओर बने मंडपों में से मंदिर का चित्ताकर्षक नजारा देखा जा सकता है। फरवरी में एक ब़ेडे पर आसीन कर श्री मीनाक्षी एवं सुंदरेश्वरम् की उत्सव मूर्तियाँ स्वर्ण पुष्करणी सरोवर में तैराई जाती हैं।
मदुरै नगर से मात्र 18 किलोमीटर दूर अलगार पहाड़ी की तलहटी में मीनाक्षीदेवी के भाई अलगार का मंदिर है। कहा जाता है कि अलगार अपनी बहन के विवाह में शामिल होने आ रहे थे। जब वे मदुरै की सीमा में पहुँचे तो उन्हें सूचना मिली कि विवाह संपन्न हो गया। वे निराश हुए और मदुरै में पाँव रखे बगैर लौट गए। चैत्र में देवी मीनाक्षी और सुंदरेश्वरम का विवाहोत्सव होता है। मंदिर में पाणिग्रहण के पश्चात दिव्य वर-वधू की शोभायात्रा निकाली जाती है। अगले दिन जुलूस वैगा नदी तट पर जाता है, जहाँ अलगार मंदिर से अलगारजी की प्रतिमा नदी के दूसरे तट पर लाकर वापस ले जाई जाती है।