मनोरमा नदी के अस्तित्व पर मंडरा रहे हैं खतरे के बादल

- डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 
 
 
मनोरमा नदी का दर्द

भारतवर्ष में अवध व कोशल का नाम किसी से छिपा नहीं है। भगवान राम का चरित्र आज न केवल सनातन धर्मावलंबियों में, अपितु विश्व के मानवता के परिप्रेक्ष्य में बड़े आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी जन्मभूमि को पावन करने वाली सरयू मइया की महिमा पुराणों में भी मिलती है तथा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आदि हिन्दी कवियों ने बखूबी व्यक्त किया है। हो क्यों ना, आखिर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के चरित्र से जो जुड़ा है। 


 
परंतु क्या किसी पुराणकार या परवर्ती साहित्यकार ने राम को धरा पर अवतरण कराने वाले मखौड़ा नामक पुत्रेष्ठि यज्ञ स्थल और उसको पावन करने वाली सरस्वती (मनोरमा) के अवतरण व उनके वर्तमान स्थिति के बारे में सोचा है?
 
पूर्वी उत्तरप्रदेश के बस्ती जनपद के मूल निवासी कवि, पत्रकार तथा 'दिनमान' पत्रिका के पूर्व संपादक स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपने गांव के निकट बहने वाली 'कुआनो नदी का दर्द' विषय पर कविताओं की एक सीरीज लिखकर उसे जीवंत बना दिया है। ठीक इसी प्रकार इस क्षेत्र की मनोरमा, आमी, रोहिणी, रवई, मछोई, गोरया, राप्ती व बूढ़ी राप्ती अन्य छोटी-बड़ी अनेक नदियां अपनी बदहाल स्थिति में आंसू बहाते हुए अपना दिन गुजार रही हैं।
 
ये सब नदियां बरसात के दिनों में ही हंसती-खिलखिलाती देखी जाती हैं और इनमें से कुछ तो महाभयंकर तांडव भी कर डालती हैं, लेकिन इनमें से कुछ आज या तो ये गंदा नाला बन गई हैं या बिलकुल सूख-सी गई हैं। 
 

इनके उल्लेख पुराणों व बौद्ध साहित्य में मिलने के बावजूद न तो किसी साहित्यकार ने और न किसी सरकारी मशीनरी- पर्यटन, संस्कृति या धर्मार्थ विभाग ने इस तरफ कोई ध्यान दिया है। इनमें कुछ विलुप्त हो गई हैं और कुछ विलुप्ति की कगार पर हैं। आज मैं इनमें मनोरमा, जिसे 'मनवर' भी कहा जाता है, के बारे में आप सबका ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा।
 
उत्तर कोशल का बस्ती एवं गोरखपुर का सरयूपारी क्षेत्र प्रागैतिहासिक एवं प्राचीनकाल से मगध, काशी, कोशल तथा कपिलवस्तु जैसे ऐतिहासिक एवं धार्मिक नगरों से जुड़ा रहा है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम तथा भगवान बुद्ध के जन्म व कर्मस्थलों को भी इसने अपने आंचलों में समेट रखा है। 
 
महर्षि धौम्य, आरुणि, उद्दालक, विभांडक श्रृंगी, वशिष्ठ, कपिल, कनक तथा क्रकुंछंद जैसे महान संत गुरुओं के आश्रम कभी यहां की शोभा बढ़ाते रहे हैं। हिमालय की ऊंची-नीची वन संपदाओं को समेटे हुए, बंजर, चरागाह, नदी-नालों, झीलों-तालाबों की विशिष्टता से युक्त यह एक असामान्य प्राकृतिक स्थल रहा है।


 

 

मखौड़ा धाम : पौराणिक संदर्भ में एक उल्लेख मिलता है कि एक बार उत्तर कोशल में संपूर्ण भारत के ऋषि-मुनियों का सम्मेलन हुआ था। इसकी अगुवाई ऋषि‌ उद्दालक ने की थी। वे सरयू नदी के उत्तर- पश्चिम दिशा में टिकरी बन प्रदेश में तप कर रहे थे। यहीं उनकी तपस्थली थी। पास ही मखौड़ा नामक स्थल भी था। 
 
मखौड़ा ही वह स्थल है, जहां गुरु वशिष्ठ की सलाह तथा श्रृंगी ऋषि की मदद से राजा दशरथ ने पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था जिससे उन्हें राम आदि 4 पुत्र पैदा हुए थे। उस समय मखौड़ा के आसपास कोई नदी नहीं थी। यज्ञ के समय मनोरमा नदी का अवतरण कराया गया था। वर्तमान समय में यह धाम बहुत ही उपेक्षित है। मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। नदी के घाट टूटे हुए हैं। 84 कोसी परिक्रमा पथ पर होने के बावजूद इसका जीर्णोद्धार नहीं हो पा रहा है।


श्रृंगीनारी आश्रम : महर्षि विभांडक के पुत्र ऋषि श्रृंगी का श्रृंगीनारी आश्रम भी यहीं पास ही में है, जहां त्रेतायुग में ऋषि श्रृंगी ने तप किया था। वे देवी के उपासक थे। इस कारण इस स्थान को 'श्रृंगीनारी' कहा गया है। यह भी कहा जाता है कि श्रृंगी ऋषि ने सरस्वती देवी का आह्वान 'मनोरमा' के नाम से किया था। इससे वहां मनोरमा नदी की उत्पत्ति हुई थी। 
 
यहां हर मंगलवार को मेला लगता है। यहां दशरथ की पुत्री शांतादेवी तथा ऋषि का मंदिर व समाधियां बनी हैं। आषाढ़ माह के अंतिम मंगलवार को यहां बुढ़वा मंगल का मेला लगता है। माताजी को हलवा और पूड़ी का भोग लगाया जाता है। मां शांता ने यहां 45 दिनों तक तप किया था। वे ऋषि के साथ यहां से जाने को तैयार नहीं हुईं और यही पिंडी रूप में यही स्थायी रूप से जम गई थीं।


इटियाथोक का मनोरमा मदिर व उद्दालक आश्रम : उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में उत्तर दिशा में राप्ती व बूढ़ी राप्ती तथा दक्षिण में घाघरा नदी बहती हैं। इनके बीच में अनेक छोटी नदियां बहती हैं। राप्ती के दक्षिण सूवावान, उसके दक्षिण कुवानो फिर क्रमश: विसुही, मनवर, टेहरी, सरयू तथा घाघरा नदियां बहती हैं। 
 
गोंडा जिला मुख्यालय से 19 किमी की दूरी पर इटियाथोक नामक जगह स्थित है। यहां उद्दालक ऋषि का आश्रम मनोरमा मंदिर तथा तिर्रे नामक एक विशाल सरोवर है। इस स्थान की उत्पत्ति महाभारत के शल्य पर्व में वर्णित है। 
 
उद्दालक द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करके सरस्वती नदी को मनोरमा के रूप में यहीं प्रकट किया गया था। तिर्रे तालाब के पास उन्होंने अपने नख से एक रेखा खींचकर गंगा का आह्वान किया तो गंगा, सरस्वती (मनोरमा) नदी के रूप में अवतरित हुई थीं। 
 
इटियाथोक के पास स्थित उद्दालक के आश्रम के पास एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जहां विशाल संख्या में श्रद्धालु पवित्र सरोवर तथा नदी में स्नान करते हैं तथा सैकड़ों दुकानें 2 दिन पहले से ही सज जाती हैं। चीनी की मिठाई, गट्टा, बरसोला तथा जलेबी आदि यहां के मुख्य मिष्ठान्न हैं।

 

 

उद्दालक ऋषि के पुत्र नचिकेता ने मनवर नदी से थोड़ी दूर तारी परसोइया नामक स्थान पर ऋषियों एवं मनीषियों को नचिकेता पुराण सुनाया था। नचिकेता पुराण में मनोरमा माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
 
अन्य क्षेत्रे कृतं पापं काशी क्षेत्रे विनश्यति।
काशी क्षेत्रे कृतं पापं प्रयाग क्षेत्रे विनश्यति। 
प्रयाग क्षेत्रे कृतं पापं मनोरमा विनश्यति।
मनोरमा कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति।
 
पुराणों में इसे सरस्वती की 7वीं धारा भी कहा गया है। मूल सरस्वती अपने वास्तविक स्वरूप को खोकर विलुप्त हो चुकी है, परंतु मनोरमा आज भी हम लोगों को अपना स्वरूप दिखलाती है। इसके नाम के बारे में यह जनश्रुति है कि जहां मन रमे, वहीं मनोरमा होता है। जहां मन का मांगा वर मिले उसे ही 'मनवर' कहा जाता है। इसकी पवित्र धारा मखौड़ा धाम से बहते हुए आगे तक जाती है। गोंडा के तिर्रे ताल से निकलने वाली यह नदी बस्ती जिले की सीमा पर सीकरी जंगल के सहारे पूर्व दिशा में अनियमित धाराओं के रूप में बहती है।
 
गोंडा के चिगिना में नदी तट पर राजा देवी बक्स सिंह का बनवाया प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।
 

गोंडा परगना और मनकापुर परगना के बीच कुछ दूर यह पूर्व दिशा में बहने के बाद यह बस्ती जिले के परशुरामपुर विकासखंड के समीप बस्ती जिले में प्रवेश करती है। इसके दोनों तरफ प्राय: जंगल व झाड़ियां उगी हुई हैं। बिंदिया नगर के पास इसमें मंद-मंद बहने वाली चमनई नामक एक छोटी नदी मिल जाती है। यहां यह पूर्व के बजाय दक्षिण की ओर बहना शुरू कर देती है, जो मनकापुर और महादेवा परगना का सीमांकन भी करती है। 
 
इस मिलन स्थल से टिकरी जंगल के सहारे यह दक्षिण-पश्चिम पर चलती है। यह नदी दलदली तथा गच के पौधों से युक्त रहा करती है। ये दोनों नदियां नवाबगंज-उत्तरौला मार्ग को क्रॉस करती हैं, जहां इन पर पक्के पुल बने हैं। इसकी एक धारा छावनी होकर रामरेखा बनकर सरयू या घाघरा में मिलकर तिरोहित हो जाती है और एक अलग धारा अमोढा परगना के बीचोबीच परशुरामपुर, हर्रैया, कप्तानगंज, बहादुरपुर एवं कुदरहा आदि विकासखंडों तथा नगर पूर्व एवं पश्चिम नामक दो परगनाओं से होकर बहती हुई गुजरती है। यह हर्रैया तहसील के बाद बस्ती सदर तहसील के महुली के पश्चिम में लालगंज में पहुंचकर कुवानो नदी में मिलकर तिरोहित हो जाती है।
 
हर्रैया तहसील के मखौड़ा, सिंदुरिया, मैरवा, श्रृंगीनारी, टेढ़ा घाट, सरौना, ज्ञानपुर, ओझागंज, पंडूलघाट, कोटिया आदि होकर यह आगे बढ़ती है। इसे सरयू की एक शाखा भी कहा जाता है। अवध क्षेत्र के 84 कोसी परिक्रमा पथ पर इस नदी के तट पर मखौड़ा तथा श्रृंगीनारी आदि भी आते हैं। मनोरमा नदी के तटों पर अनेक सरोवर तथा मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। 
 

किसी समय में यहां पूरा का पूरा जल भरा रहता था। यह नदी बहुत ही शालीन नदी के रूप में जानी जाती है। यह अपने तटों पर सरयू तथा राप्ती जैसा कटान नहीं करती है। इससे बस्ती जिले के दक्षिणी भाग में सिंचाई की जाती रही है। ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक अवशेष इस नदी की तलहटी में ज्यादा सुरक्षित पाए गए हैं।
 
गुलरिहा घाट, बनवरिया घाट तहसील हर्रैया में तथा लालगंज, गेरार व चंदनपुर तहसील बस्ती में ताम्र पाषाणकालीन नरहन संस्कृति के अवशेष वाले स्थल हैं। हर्रैया का अजनडीह, अमोढ़ा, इकवार, उज्जैनी, बकारी, बइरवा घाट, पकरी चौहान या पण्डूलघाट, पिंगेसर आदि अन्य अनेक स्थलों से पुरातात्विक प्रमाण शुंग व कुषाण काल के तथा अनेक पात्र परंपराए प्राप्त हुई हैं। इसके अलावा आज भी इस नदी को आदर के साथ पूजा जाता है। 
 
पांडव आख्यान के आधार पर पण्डूलघाट में चैत शुक्ल नवमी को विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। लालगंज में, जहां यह कुवानों में मिलकर खत्म हो जाती है, भी चैत शुक्ल पूर्णिमा को विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।
 

 

वर्तमान समय में गोंडा से लेकर हर्रैया तक इसने एक गंदे नाले का रूप ले रखा है। जल प्रदूषण के कारण इसका रंग मटमैला हो गया है। इसके अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। जहां इसकी धारा मंद हो गई है, वहीं इसका स्वरूप बिलकुल बदल गया है। चांदी की तरह चमकने वाला धवल जल आज मटमैले नाले जैसा बन गया है।
 
इस नदी की महत्ता को दर्शाने के लिए उत्तरप्रदेश सरकार कैबिनेट मंत्री राज किशोर सिंह, जिनका यह चुनाव क्षेत्र भी है, के नेतृत्व में मनोरमा महोत्सव का आयोजन करती है। यह उत्सव हर्रैया तहसील परियर में सर्दियों में मनाया जाता है। केवल शिवाला घाट की सफाई हो पाती है तथा अन्य घाट व नदी पहले जैसी ही सूखी तथा रोती हुई ही दिखाई देती हैं। कोई अधिकारी झांकने तक नहीं जाता।
 
यदि दोनों तहसीलों के राजस्व अधिकारियों तथा नदी के दोनों तरफ स्थित प्रधान व पंचायत अधिकारियों की मीटिंग व कार्यशाला आयोजित की जाती तो अपेक्षाकृत अधिक कामयाबी मिलती। यद्यपि मनवर की महत्ता विषयक कुछ वार्ताएं तो की जाती हैं। पर्यावरण व जल संरक्षण आदि विषयों पर गोष्ठी का आयोजन किया जाता है।
 

यह आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से कल-कल करके बहने वाली इस क्षेत्र की बड़ी व छोटी नदियों का अस्तित्व एकाएक समाप्त होने लगा है। पर्यावरणवेत्ता इसके अनेक कारण बतलाते हैं। जलवायु में परिवर्तन, मानवीय हस्तक्षेप, नदियों के पानी को बांध बनाकर रोकना, वनों की अंधाधुंध कटाई, गलैशियरों का सिकुड़ना आदि कुछ ऐसे भौगोलिक कारण हैं जिस पर यदि तत्काल ध्यान न दिया गया तो यह नदी भी इतिहास की वस्तु हो जाएगी। नदियों में वैसे जल कम ही आ रहा है। इनमें मानवीय हस्तक्षेप को तो जन-जागरूकता तथा सरकारी प्रयास से कम किया जा सकता है। 
 

आज सबसे ज्यादा मानवीय प्रदूषण इसके विलुप्त होने का कारण बना हुआ है। इसमें डाला जा रहा गंदा व प्रदूषित पानी न केवल इसके अस्तित्व के लिए, अपितु इसमें सदियों से पल रहे जीव-जंतुओं व वनस्पतियों के लिए भी खतरा बन रहा है। नदी के तटों पर भूमिगत स्रोतों का दोहन होने से भी इसके लिए पानी जमा रहना कठिन होता है व इसे सालभर अनवरत बहने में कठिनाई आती है। यह इस क्षेत्र के निवासियों के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। 
 
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को और सतर्कता के साथ नए प्राकृतिक स्रोतों की सुरक्षा के लिए प्रभावी कदम उठाना चाहिए। नदी घाटियों को अंधाधुंध कटान से बचाया जाना चाहिए तथा बरसात के पहले इसमें जमी हुई सिल्ट को निकालने का भी प्रयत्न करना चाहिए। 
 
इतना ही नहीं, इन नदियों को परिवहन के साधन के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। इससे इसके जल की संरक्षा तो होगी ही और इससे अवैध गतिविधियों पर नजर भी रखी जा सकेगी। 
 

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