ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर बुद्धिमान धर्मराज ने हाथ जोड़कर सबके परम-पूज्य ब्रह्माजी को कहा- हे प्रभो! मैं आपका सेवक निवेदन करता हूं कि इस सारे जगत के कर्मों का विभागपूर्वक फल देने की जो आपने मुझे आज्ञा दी है, वह एक महान कर्म है। आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैं यह काम करूंगा जिससे कि कर्ताओं को फल मिलेगा, परंतु पूरी सृष्टि में जीव और उनके देह भी अनंत हैं। देशकाल ज्ञात-अज्ञात आदि भेदों से कर्म भी अनंत हैं। उनमें कर्ता ने कितने किए, कितने भोगे, कितने शेष हैं और कैसा उनका भोग है तथा इन कर्मों के भी मुख्य व गौण भेद से अनेक हो जाते हैं एवं कर्ता ने कैसे किया, स्वयं किया या दूसरे की प्रेरणा से किया आदि कर्म चक्र महागहन हैं। अत: मैं अकेला किस प्रकार इस भार को उठा सकूंगा? इसलिए मुझे कोई ऐसा सहायक दीजिए, जो धार्मिक, न्यायी, बुद्धिमान, शीघ्रकारी, लेख कर्म में विज्ञ, चमत्कारी, तपस्वी, ब्रह्मनिष्ठ और वेद शास्त्र का ज्ञाता हो।