सफल जनतंत्र के लिए सुयोग्य प्रत्याशियों का चयन आवश्यक

सुयश मिश्र
 
अमेरिका के प्रख्यात राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने 19 नवंबर, 1853 को अपने भाषण में जनतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि जनतंत्र ‘जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता की सरकार’ है। राष्ट्रपति लिंकन की यह परिभाषा भारत एवं भारत जैसे पाकिस्तान आदि अनेक देशों में एक सुन्दर भ्रम ही सिद्ध हुई है। यह सत्य है कि जनतंत्र में सरकार जनता ही चुनती है इसलिए वह जनता की सरकार होती है किन्तु वह सदा जनता के लिए होती है, यह भ्रामक है। भारतीय जनतंत्र में यह कठोर सत्य निरन्तर प्रमाणित होता रहा है। 
किसी भी जनतंत्र में जनता अपराधियों को अपना नेता नहीं बनाना चाहती किन्तु आंकड़े गवाह हैं कि हमारे देश में सत्ता के महत्त्वपूर्ण पदों पर अपराधियों की ताजपोशी बराबर होती रही है। विधानसभाओं और संसदीय सदनों में दागियों की बढ़ती संख्या इस ओर संकेत करती है। सत्तापक्ष सत्ता में बने रहने के लिए हर संभव प्रयत्न करता है और विपक्ष सत्ता में आने के लिए कैसे - कैसे हथकण्डे अपनाता है यह किसी से छिपा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाकर सत्ता में आने वाले मुख्यमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार के कारण सत्ता से अलग किये गए एक बड़े नेता के गले लगते हैं तब जनतंत्र के तथाकथित रखवालों का चेहरा अपने आप सामने आ जाता है। ऐसे नेताओं के हाथों में जनतंत्र कितना सुरक्षित हो सकता है ? यह विचारणीय है।
 
 भारतीय जनतंत्र में जनता चुनाव के समय मतदान करके अपनी शक्ति और रूचि का परिचय देती है किन्तु उसके बाद अगले चुनाव तक उसके हाथ में कुछ नहीं रह जाता। उसकी चुनी हुई सरकार चलाने वाले अपने दलगत और व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए नीतियाँ बनाते हैं। विपक्ष में बैठे लोग अपने निहित स्वार्थों की दृष्टि से उनका समर्थन अथवा विरोध करते हैं। इस स्वार्थसाधिनी राजनीति में जनता का हित पीछे छूट जाता है और दलों के हित मुख्य हो जाते हैं। ये स्थितियां जनतंत्र की मूल भावना को आहत करती हैं। 
 
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जनतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता जनता की सेवा का माध्यम है; व्यक्तिगत लालसाओं की पूर्ति का साधन नहीं। दुर्भाग्य से हमारे देश में जनतंत्र की आड़ में राजतंत्र की सामन्तवादी मानसिकता परवान चढ़ी है। वंशवाद, भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि असंख्य घातक व्याधियों ने भारतीय जनतंत्र के कमनीय कलेवर को जर्जर बनाया है। जनता नित नए अभावों से जूझ रही है; अपराधियों-आतंकियों की हिंसक दुष्वृत्तियों का शिकार हो रही है, रेल हादसे बढ़ रहे हैं, सीमाओं पर मौत का तांडव जारी है और हमारे जनतंत्र के प्रहरी विकास का नारा उछालते हुए, डिजिटल इंडिया और मेट्रो के सपने दिखाते हुए चुनाव जीतने के लिए जाति और धर्म के नाम पर टिकट बांटते हुए; लोक लुभावन वादे करते हुए सत्ता में बने रहने अथवा सत्ता तक पहुंचने के लिए बेचैन हैं। 
 
विश्व की सबसे बड़ी जनतांत्रिक व्यवस्था की दिशा और दशा निर्धारित करने वाली दलों में बंटी हुई भारतीय जनता चाहकर भी जनतंत्र को आत्ममुग्ध, विलासी और स्वार्थी राजनेताओं के चंगुल से छुड़ाने में असमर्थ है क्योंकि वह प्रलोभन, दवाव और जाति-धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर योग्य और ईमानदार नेतृत्व चुनने के प्रति अभी भी उदासीन है। अभी भी वह जाति-धर्म के आधार पर मतदान करती है; कभी बाहुवलियों की ताकत से डर जाती है तो कभी उनके प्रलोभनों में आकर विक जाती है। कहीं-कहीं दलों के प्रति भीष्म जैसी प्रतिबद्धता उसे सही उम्मीदवार का चुनाव नहीं करने देती। 

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इन कारणों से हमारा जनतंत्र अभीष्ट सफलता प्राप्त करने से बंचित रह जाता है। जनतंत्र की सुरक्षा और सफलता के लिए आवश्यक है कि हमारे राजनेता दलबंदी, क्षेत्रीयता, भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि दोषों से मुक्त होकर राष्ट्रहित में समर्पित समर्थ और अनुभवी प्रत्याशियों को टिकट दें और जनता योग्यता तथा ईमानदारी के आधार पर अपने नेतृत्व का निर्भय और निर्लोभ होकर चयन करे तब ही जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा संभव है और जनता का हित सुरक्षित हो सकता है। केवल जनतंत्र की दुहाई देते हुए राजतंत्र की सामंतवादी विलासिता को पोषित करने से साधारण जनता का भला नहीं हो सकता।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अध्ययनरत )

रिता 

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