आज फिर याद आए तुम

- फाल्गुनी

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आज जब हरे-हरे खेतों में
सरसरा उठी मेरी चुनरी
सरसों में लिपट गई
नटखट बावरी

तब उसे छुड़ाते हुए
याद आए तुम और तुम्हारा हाथ
जिसने निभाया था कभी मेरा साथ

यादों की कोमल रेशम डोर
उलझ गई बेतरह
आज सुलझाते हुए धानी चुनर

आज याद आए
तुम्हारे साथ बिताए
वो हसीन लम्हात

आज फिर देखा मैंने
किसी तितली के पँखों को
पँखों के रंगों को
रंगों से सजी आकृति को
आज फिर याद आए
तुम, तुम्हारी तुलिका, तुम्हारे रंग।

आज फिर बरसी
जमकर बदली
आज फिर याद आई
तुम्हारी देह संदली।

उस नीले बाल-मयूर की कसम
जिसे तुमने मेरे लिए
शाख से उतारा था हौले से
खुब याद आया
तुम्हारा दिल नरम-नरम

कच्चे केसरिया सावन में
खिलते हर्षाते खेत में
आज फिर याद आए तुम
तुमसे जुड़ी हर बात
घनघोर बरसात के साथ।

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