यूँ ही एक दिन, किसी जनम
उससे मुलाकात हुई
फिर कुछ बातें हुई
और मोहब्बत हो गई।
मेरे सपनों में
स्नेह था,
ममत्व था,
औदार्य था
एक आकर्षण था
तुमने मुझे यथार्थ के 'अलार्म' से ...
काली अँधेरी रात में
अकेली बैठी आँगन में
सोच रही थी
उस दर्द को ...
दो कुर्सियाँ हमेशा
सटकर बैठती थीं
दो प्यालियाँ अक्सर
बदल जाती थीं
कभी कभी यूँ ही मैं,
अपनी ज़िंदगी के बेशुमार
कमरों से गुजरती हुई,
अचानक ही ठहर जाती हूँ,
जब कोई एक पल...
असहाय सी
खोज रही हूँ न वे शब्द मिल रहे हैं
और न उनके अर्थ,
तुम्हीं कर सकते थे
यह पीड़क अनर्थ।
अकेलापन मेरा
बहुत शांत और मायूस है
'तुम किसी के हो चुके हो'
यह वाक्य ही पर्याप्त है
फागुन के बहाने
तुम्हें याद करते हुए
मैं बहुत प्रफुल्लित हूँ
क्योंकि मेरे पास
वक्त जख़्मों को
भर देता है
सुना था,
किंतु
तुम्हें सामने पाकर
लगा कि
वक्त भी वहीं है
बहुत कुछ
लिखने की उत्कंठा
बहुत कुछ
कहने की त्वरा ...
आज बहुत दूर तक
आने के बाद
मुड़कर देखा
कुछ नहीं था
कभी पूरी हो
उस पर किस्मत की भी
मंजूरी हो,
आशाओं का आँचल थामे
एक नन्ही अनुभूति
कागज पर उतरी
और कविता बन गई
एक नन्ही कविता
मेरे अंतर्मन में
एक उजाड़ जंगल
बहुत उदास
बेहद वीरान जिसमें