आपके 'क्यों' के सटीक जवाब..

मंगलवार, 16 जून 2015 (11:31 IST)
हिन्दू धर्म में गृहस्थ जीवन को सबसे कठिन माना हैं। गृहस्थ जीवन में रहकर संन्यासी जैसा जीवन जीना तो और भी कठिन है। चलों संन्यासी नहीं भी रह सकों तो धर्म के कर्तव्यों का पालन ही कर लो तो बहुत है।

कर्तव्य हैं:- प्रतिदिन 1.संध्यावंदन (वैदिक प्रार्थना और ध्यान), 2.तीर्थ (चार धाम), 3.दान (अन्न, वस्त्र और धन), 4.व्रत (श्रावण मास), 5.पर्व (शिवरात्रि, नवरात्रि, मकर संक्रांति, रामनवमी, कृष्णजन्माष्टमी और कुंभ), 6.संस्कार पालन, 7.पंच यज्ञ, 8.देश-धर्म सेवा, 9.वेद पाठ और 10.ईश्वर प्राणिधान। उक्त 10 तरह के कर्तव्यों का पालन करते हुए मन में कई तरह के प्रश्न उठते ही होंगे। 
 
धर्म संबंधी कई लोगों के मन में सवाल होते हैं जैसे कि सूर्य को अर्ध्य क्यों देते हैं। परिक्रमा क्यों करते हैं? मूर्ति की पूजा क्यों करते हैं? और क्यों स्नान के बाद ही भोजन करते हैं। इसी तरह के आपको 'क्यों' के कुछ सवालों के जवाब हमने ढूंढे हैं। 
 
अगले पन्ने पर क्यों मानते हैं अतिथि को भगवान?
 
 

अतिथि देवो भव: अर्थात अतिथि देवता के समान होता है। घर के द्वार पर आए किसी भी व्यक्ति को भूखा लौटा देना पाप माना गया है। गृहस्थ जीवन में अतिथि का सत्कार करना सबसे बढ़ा पुण्य माना गया है। प्राचीन काल में 'ब्रह्म ज्ञान' प्राप्त करने के लिए लोग ब्रह्मण बनकर जंगल में रहने चले जाते थे। उनको संन्यासी या साधु भी कहते थे। ऋषि का पद प्राप्त करना तो बहुत ही कठिन होता है। ऋषियों में भी महर्षि, देवर्षि, राजर्षि आदि कई तरह के ऋषि होते हैं। ये सभी समाज के द्वारा दिए गए दान पर ही निर्भर रहते थे। इनमें से सभी को प्रारंभिक शिक्षा के दौरान भिक्षा भी मांगना होती थी। उनमें से भी कई तो किसी गृहस्थ के यहां कुछ दिन आतिथ्य बनकर रहता था और उनको धर्म का ज्ञान देता था। एक गृहस्थ के लिए किसी संन्यासी का संत्संग बहुत ही लाभप्रद और पुण्यप्रद माना गया है। 
 
गृहस्थ जीवन में रहकर पंच यज्ञों का पालन करना बहुत ही जरूरी बताया गया है। उन पंच यज्ञों में से एक है अतिथि यज्ञ। वेदानुसार नंच यज्ञ इस प्रकार हैं-(1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ।
 
अतिथि यज्ञ को पुराणों में जीव ऋण भी कहा गया है। यानि घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों का उचित सेवा-सत्कार करने से जहां अतिथि यज्ञ संपन्न होता हैं वहीं जीव ऋण भी उतर जाता है। तिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।
 
अगले पन्ने पर 25 वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य क्यों?
 

हिंदू धर्म अनुसार इंसान की 100 वर्ष की आयु के चार भाग हैं। 25-25 वर्ष में विभाजित इन चार भागों को चार आश्रमों में बांटा गया है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
 
इसमें पहला आश्रम है ब्रह्मचर्य आश्रम, जिसे जीवन के पहले 25 साल तक माना गया है। 25 वर्ष की आयु तक हर व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। ब्रह्मचर्य का प्रथर्म अर्थ संभोग की शक्ति का संचय करना। दूसरा अर्थ शिक्षा और ‍भक्ति का संचय करना और तीसरा अर्थ ब्रह्म की राह पर चलना। 
 
हिन्दू धर्मानुसार जन्म से लेकर 7 वर्ष की उम्र तक व्यक्ति अपने माता ‍पिता के पास ही रहता है उसके बाद उसका विद्याआरंभ संस्कार होता है। इस दौरान वह किसी श्रेष्ठ गुरु के आश्रम में 25 वर्ष की उम्र तक रहकर शिक्षा, विद्या और ‍भक्ति का पाठ पढ़ता है। 
 
उपरोक्तानुसार बताए गए ब्रह्मचर्य के पालन से व्यक्ति के वीर्य का, शिक्षा का, विद्या का और भक्ति का संचय होता है। उक्त संचय से ही व्यक्ति का गृहस्थ जीवन पुष्ट और सफल बनता है। इसीलिए 25 वर्ष की आयु तक व्यक्ति को अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमता बढ़ाना चाहिए क्योंकि इसी दौरना इनका विकास होता है।
 
व्यक्ति के शरीर में अधिकांश बदलाव और विकास 25 वर्ष की आयु तक हो जाता है। अगर इसके पहले ही व्यक्ति अपनी शक्ति को बरबाद करने लगेगा तो उसका गृहस्थ जीवन कई तरह के रोग और शोक से घिर जाएगा।
 
25 वर्ष की आयु तक चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक शरीर में वीर्य और रक्तकणों का विकास बहुत तेजी से होता है, उस समय अगर इसे शरीर में संचित किया जाए तो यह काफी स्वास्थ्यप्रद होता है। इससे शरीर पुष्ट बनता है। 25 वर्ष की उम्र के पहले ही ब्रह्मचर्य तोडऩे से समय पूर्व बुढ़ापा आना और नपुंसकता या संतान उत्पत्ति में परेशानी की आशंका प्रबल हो जाती है। इससे मानसिक विकास, शिक्षा, कैरियर आदि में रुकावट भी शुरू हो जाती है।
 
अगले पन्ने पर एकेश्‍वरवाद अर्थात ईश्वर प्राणिधान पर बल क्यों?
 

ईश्वर प्राणिधान जरूरी : मन को मजबूत बनाने के लिए ईश्वर प्राणिधान जरूरी है। ईश्वर प्राणिधान की चर्चा वेद के अलावा उपनिषद्, गीता और योग में भी है। यह हिन्दू धर्म का सबसे जरूर नियम और आचरण है। इसका पालन नहीं करने से जीवन एक भटकाव बन जाता है। इसे नहीं मानने वालों के मस्तिष्क में हमेशा द्वंद्व और दुविधा बनी रहती है। द्वंद्व और दुविधा से आत्मविश्‍वास कमजोर होता है और व्यक्ति घोर संकट में घिरने लगता है। सफलताओं से भरा जीवन भी अंतत: अंत में असफल हो जाता है। 
 
सिर्फ एक ही ईश्वर है जिसे ब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा कहा जाता है। ईश्वर निराकार और अजन्मा, अप्रकट है। इस ईश्वर के प्रति आस्था रखना ही ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। हालांकि कुछ लोग किसी भी देवी या देवता को अपना ईष्ट बना लेते हैं तो फिर कभी किसी दूसरे देवी या देवता के प्रति समर्पण नहीं रखते। अर्थात एक ईष्ट बनाना जरूरी है।
 
एक ईष्ट के अलावा आप किसी अन्य में आस्था न रखें। चाहे सुख हो या घोर दु:ख, उसके प्रति अपनी आस्था को डिगाएं नहीं। इससे आपके भीतर पांचों इंद्रियों में एकजुटता आएगी और आपका आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा जिससे लक्ष्य को भेदने की ताकत बढ़ेगी। वह लोग जो अपनी आस्था बदलते रहते हैं वे भीतर से कमजोर होते जाते हैं। ईश्‍वर पर अटूट आस्था रखने से जीवन में कभी भी किसी रोग और शोक का सामना नहीं करना पड़ता है और सफलता का रास्ता उसके लिए आसान हो जाता है।
 
अगले पन्ने पर, क्यों जरूरी हैं सूर्यास्त से पहले भोजन?
 

आयुर्वेदानुसार सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेना चाहिए। जैन धर्म में तो इस नियम का सबसे ज्यादा महत्व है। हालांकि हिन्दू और जैन धर्म में भोजन करने के कई नियम तय किए गए हैं जैसे कि भोजन के पूर्व पानी पिया तो उत्तम, बीच में पीया तो मध्यम और बाद में पिया तो निम्नतम माना गया है। पूर्व भी लगभग आधा घंटा पूर्व और भोजन पश्‍चात करीब पौन घंटा पश्‍चात ही पानी पीएं। बीच में पानी सिर्फ एक बार पी सकते हैं। इसी तरह सुबह से लेकर शाम तक के लिए तरह-तरह के नियम और सिद्धांत बनाए गए हैं। इसके ‍पीछे वैज्ञानिक कारण भी है।
 
दरअसल कोई पशु या पक्षी रात्रिकाल में भोजन नहीं करता। प्राकृतिक रूप में मानव भी पहले सूर्यास्त के पूर्व भोजन कर लेता था। लेकिन पहले आग का अविष्कार हुआ तो उसके भोजन करने की आदत में बदलाव होने लगा। फिर जब बिजली का अविष्कार हुआ तो यह आदत पूर्णत: बदल गई। इससे कई तरह के नुकसान भी हुए हैं लेकिन आज भी पशु और पक्षी रात्रि में भोजन नहीं करते। रात्रि में जो भोजन करते हैं उनको निशाचर कहा गया है। मनुष्य निशाचर प्राणी नहीं है।
 
कई लोग इस बात को अभी तक पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर सूर्यास्त के पहले भोजन कर लेने के पीछे क्या कारण है। दरअसल यह नियम व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इस नियम के पीछे चार कारण है।
 
पहला कारण : यह कि सूर्यास्त के पहले भोजन करने से पाचन तंत्र ठीक रहता है। भोजन को सुबह तक पचने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। 
 
दूसरा कारण : सूर्यास्त के पहले भोजन करने से व्यक्ति कई तरह की बीमारियों से भी बच जाता है, क्योंकि रात्रि में कई तरह के बैक्टिरिया और अन्य जीव हमारे भोजन से चिपक जाते हैं या उनमें स्वत: ही पैदा होने लगते हैं। 
 
तीसरा कारण : सूर्यास्त के बाद मौसम में नमी बढ़ जाती है और इस नमी के कारण कई तरह के सूक्ष्म जीव और बैक्टिरिया उत्पन्न हो जाते हैं। सूर्य की रोशनी में ये गरमी के कारण पनप नहीं पाते हैं और सूर्यास्त के साथ ही जैसे ही नमी बढ़ती है ये जीव सक्रिय हो जाते हैं।
 
चौथा कारण : सूर्यास्त के बाद प्रकृति सोने लगती है। वृक्ष, पशु और पक्षी सभी नींद के आगोश में जाने लगते हैं। हमारा भोजन भी प्रकृति का एक हिसा है। रात्रिकाल होते ही भोजन की भी प्रकृति बदल जाती है। प्रकृति बदलने से उसकी गुणवत्ता में भी गिरावट आ जाती है। रात्रिकाल के शुरु होते ही भोजन में बासीपन और दूषित होने की प्रक्रिया शुरु होने लगती है।
 
अगले पन्ने पर, हनुमान चालीसा का पाठ क्यों करते हैं? 
 

और देवता चित्त न धरही : मंदिर, दर्गा, बाबा, गुरु, देवी-देवता आदि सभी जगहों पर भटकने के बाद भी यदि जीवन में कोई शांति और सुख नहीं मिलता और किसी भी प्रकार से संकटों का जरा भी समाधान नहीं होता है तब हनुमान की शरण में आना ही पड़ता है। मृत्युतुल्य कष्ट हो रहा हो तो सिर्फ हनुमान की भक्ति ही बचा सकती है और हनुमानजी की भक्ति का सबसे सरल उपाय है हनुमान चालिसा का प्रतिदिन पाठ करना।
 
हनुमानजी सर्वशक्तिमान और एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनका नाम जपने से ही संकट शरीर और मन से दूर हटने शुरू हो जाते हैं। शास्त्रों अनुसार कलयुग में हनुमानजी की भक्ति को सबसे जरूरी, प्रथम और उत्तम बताया गया है लेकिन अधिकतर जनता भटकी हुई है। वह ज्योतिष और तथाकथित बाबाओं, गुरुओं को ही अपना सबकुछ मानकर बैठी है। ऐसे भटके हुए लोगों को राम ही बचाने वाले हैं।
 
हनुमानजी की भक्ति सबसे सरल और जल्द ही फल प्रदान करने वाली मानी गई है। यह भक्ति जहां हमें भूत-प्रेत जैसी न दिखने वाली आपदाओं से बचाती है, वहीं यह ग्रह-नक्षत्रों के बुरे प्रभाव से भी बचाती है। जो व्यक्ति‍ प्रतिदिन हनुमान चालीसा पढ़ता है उसके साथ कभी भी घटना-दुर्घटना नहीं होती। 
 
श्रीराम के अनन्य भक्त श्रीहनुमान अपने भक्तों और धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोगों की हर कदम पर मदद करते हैं, शर्त यह है कि 'और देवता चित्त न धरहीं।'
 
अगले पन्ने पर जनेऊ पहनने से क्या लाभ?
 

प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना। हालांकि आजकल जनेऊ संस्कार ब्राह्मण समाज तक ही सिमट रह गया है। इन तथाकथित ब्राह्मणों को 'मात्र ब्राह्मण' कहा जाता है। मात्र इसलिए क्योंकि यह नाममात्र से ही ब्राह्मण हैं कर्म से नहीं। 
 
पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढ़ने का अधिकार मिलता था।
 
मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। माना जाता है कि इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है।
 
माना जाता है कि जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है।

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