श्रीमद्भग्वदगीता से 5 हिदायतें

आज समाज में मनमाने ज्योतिष और स्वयंभू बाबाओं की भरमार हो चली है। हर कोई अलग सिद्धांत गढ़ता है, अलग-अलग समाधान बताता है और लोगों से धर्म की मनमानी बातें करता है। लोग राहु, केतु और शनि से डरते हैं, उनको कालसर्प दोष सताता रहता है और तमाम तरह के कथित बाबाओं के चक्कर काटता रहता है।
ऐसे ही भटके हुए लोगों के लिए हमने पवित्र गीता से कुछ श्लोक और उसके सही अर्थ और व्याख्या को प्रस्तुत किया है। वही व्यक्ति सही मार्ग पर है जिसकी अंगुलियों में ग्रहों की अंगूठियां नहीं हैं, जिसके गले में ताबीज नहीं है और जो किसी बाबा, दरगाह या समाधि की शरण में भी नहीं है। ऐसे योद्धा और धर्मवीर लोगों के लिए ही गीता है।
 
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1. पहली हिदायत:
गीता के सप्तम अध्याय ज्ञान-विज्ञान योग में अन्य देवताओं की उपासना के संदर्भ में कहा गया है। यहां प्रस्तुत हैं उसी के कुछ श्लोक।
 
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥
भावार्थ :  माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥15॥
 
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
भावार्थ :  परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥23॥
 
व्याख्या : यहां उन देवताओं की प्रार्थना का विरोध नहीं, जो सचमुच में ही देवता हैं, लेकिन आजकल बहुत से लोग काल्पनिक देवी और देवताओं की पूजा करते हैं। कुछ तो अपने गुरु की ही पूजा और भक्ति करते हैं। बहुत से लोग किसी समाधि, वृक्ष, गाय, दरगाह, बाबा आदि की भी पूजा या प्रार्थना करते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों की पूजा या प्रार्थना का फल नाशवान है। लेकिन जो उस एक परम तत्व को मानते हैं उसे वे किसी भी रूप में भजे अंत में उसी को प्राप्त होते हैं और उनका कर्म कभी निष्फल नहीं होता।
 
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥
भावार्थ :  बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं॥24॥
 
भगवान कृष्ण कहते हैं कि 'मेरे भक्त'। 'मेरे भक्त' का अर्थ यह नहीं कि वे यह कह रहे हैं कि मुझे भजो। वे कह रहे हैं कि उस एक कालरूपी परमेश्वर को भजो। दरअसल, श्रीकृष्‍ण के माध्यम से उस परमेश्वर ने ही अपनी वाणी को कहा। गीता का संपूर्ण गहराई से अध्ययन करने पर यह स्वत: ही ज्ञात हो जाता है।
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2.दूसरी हिदायत :
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥
भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥
 
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥
 
व्याख्‍या : द्वितीय अध्याय सांख्ययोग में अर्जुन की कायरता के विषय में श्रीकृष्णार्जुन-संवाद अनुसार श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध न करना और किसी के लिए शोक करना कायरों का कार्य है। भयभीत लोग हमेशा किसी न किसी लड़ाई से बचने का प्रयास करते रहते हैं। आगे रहकर लड़ना उचित नहीं लेकिन कोई लड़ने के लिए आतुर है तो उसे सबक सिखाकर ही दम लेना चाहिए। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा, यही क्षत्रियों का धर्म है। छत्रिय का मतलब किसी समाज या जाति विशेष की बात नहीं।
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3.तीसरी हिदायत:-
यह श्लोक उनके लिए जो खुद को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र समझते हैं, लेकिन असल में वे हैं नहीं। वे सिर्फ अपने अपने ही कुएं में कैद हैं।
 
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥
भावार्थ : प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥
 
जो लोग वर्ण व्यवस्था को मानकर हिन्दू धर्म को विकृत कर रहे हैं उनके लिए गीता से ऐसे कई श्लोक निकाले जा सकते हैं, जो वर्ण का अर्थ रंग और कर्म से जोड़ते हैं।
 
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन॥6॥
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4.चौथी हिदायत:-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
भावार्थ :  काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार (सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहां काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥
 
व्याख्‍या : काम अर्थात किसी भी प्रकार की अनावश्यक भोग की इच्छा जिसमें संभोग भी शामिल है। क्रोध अर्थात गुस्सा, रोष, आवेश, तनाव, नाराजगी, द्वेष आदि प्रवृत्ति। लोभ अर्थात लालच, लालसा, तृष्णा आदि। बहुत से ज्योतिष, संत, कंपनियां या दूसरे धर्म के लोग लोगों को लालच में डालने के लिए प्रलोभन, गिफ्ट, इनाम आदि देते हैं। स्वर्ग, जन्नत का भी लालच दिया जाता है। लालच में फंसकर व्यक्ति अपने कुल का नाश कर लेता है।
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5.पांचवी हिदायत:-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥
 
व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है। आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है।
 
जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है। कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है। इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है। ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।

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