यह सही है कि न कोई बड़ा है और न कोई छोटा, लेकिन मनुष्य की बुद्धि भेद करना जानती है। उसे इसी तरह से समझ में आता है। यह कहना की सभी समान है या सभी उस परम सत्य के ही अंश है। ऐसा कहने से समझ में नहीं आता है। यहां हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि आपको ब्रह्मांड के बारे में नहीं बल्कि हिन्दू धर्म के बारे में बताएंगे लेकिन भूमिका में थोड़ी सी ब्रह्मांड की जानकारी जरूरी ताकि आपको पता चल सके कि ब्रह्मांड में हमारी क्या औकात है।
मनुष्य जानना चाहता है कि इस ब्रह्मांड की सबसे बड़ी शक्ति क्या है। उससे छोटी क्या है और उससे भी छोटी शक्ति कौन है। अंत में सबसे छोटी शक्ति क्या है। इस तरह क्रम में समझने से ही अंत में समझ में आता है। अत: पहले हम यह समझने की ब्रहमांड क्या है?
हमें जो यह सूर्य दिखाई दे रहा है वह इतना बड़ा है कि धरती उसके आगे कुछ नहीं। वैज्ञानिक कहते हैं कि धरती से 13 लाख गुना बड़ा है। सूर्य एक तारा है, जो हमारे सौरमंडल में सबसे बड़ा है जिसके चक्कर सारे ग्रह, उपग्रह व अन्य पिंड लगाते हैं। सूर्य का व्यास लगभग 13 लाख 92 हजार किलोमीटर है, जो पृथ्वी के व्यास से लगभग 109 गुना बड़ा है। सूरज देखने में इतना बड़ा नहीं लगता क्योंकि वह धरती से बहुत दूर है। पृथ्वी को सूर्य के ताप का 2 अरबवां भाग मिलता है।
सूर्य आकाशगंगा के 100 अरब से अधिक तारो में से एक सामान्य मुख्य क्रम का G2 श्रेणी का साधारण तारा है। इससे कई गुना बड़े तारे हैं। उत्तर की दिशा में जो ध्रुव तारा दिखाई देता है वह वास्तव में एक तारामंडल है जो हमसे 390 प्रकाश वर्ष दूर है। इसे अंग्रेजी में पोल स्टार भी कहा जाता है। इस तारे का व्यास सूर्य से 30 गुना अधिक है। भार में यह सूर्य से 7.50 गुना अधिक है और इसकी चमक तो सूर्य से 22 सौ गुना अधिक है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इससे भी बड़े तारे हैं। अब आप कल्पना करें की ब्रह्मांड कितना बड़ा है। इसमें जो अलौकिक शक्तियां विचरण कर रही है अब हम उसके बारे में बात करते हैं।
पेड़-पौधे : हिन्दू धर्म मानता है कि पेड़ पौधे में भी जीवन शक्ति होती है। यह ऐसी आत्माओं का शरीर है जो अपने विकासक्रम में पत्थर जैसे अन्य निर्जिव दिखने वाले खोल से बाहर निकलकर पेड़ या पौधों में परिवर्तित हो गई है। यह अन्नमय कोश का हिस्सा है।
यह ब्रह्मांड का दूसरा क्रम है। इससे पहले हम पत्थर या धरती को ले सकते हैं। यह चेतना के स्तर का सबसे नीचला क्रम है। सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है।
प्राणी : वह जीव या जंतु जो हमे चलायमान नजर आते हैं। जैसे जलचर जंतु, पशु और पक्षी आदि। जड़ में ही प्राण के सक्रिय होने से अर्थात वायु तत्व के सक्रिय होने से प्राण धीरे-धीरे जाग्रत होने लगा।
प्रथम वह समुद्र के भीतर लताओं, वृक्षों और न दिखाई देने वाले जीवों के रूप में फिर क्रमश: जलचर उभयचर, थलचर और फिर नभचर प्रणियों के रूप में अभिव्यक्त हुआ।
मनुष्य : इस पर शोध किया जाने की और जरूरत है कि मनुष्य को किसने बनाया या कि वह प्राकृतिक विकासकृम में विकसित हुआ एक प्राणी है। मनुष्य प्राणियों से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि वह अपनी जुबान, मस्तिष्क और अपने दोनों हाथों का अच्छे से प्रयोग करना जानता है। मनुष्य कई मायनों में प्राणी जगत से श्रेष्ठ क्यों है इस बारे में विस्तार से लिखे जाने की जरूरत नहीं। मनुष्य में मन सक्रिय होने के कारण वह मनुष्य है।
यह मनुष्य प्रकृति की अब तक की शुद्धतम कृति माना गया है। यह प्रकृति के सभी आकारों में अब तक का शुद्ध व ऐसा सुविधाजन आकार है जहाँ 'आत्मा' रहकर अपने को अन्यों से अधिक स्वतंत्र महसूस करती है। दूसरी ओर यह एक ऐसा आकार है जहाँ 'मन' का अवतरण आसान है। उक्त आकार में अन्य प्राणियों की अपेक्षा 'मन' के अधिक जाग्रत होने से ही मनुष्य को मनुष्य या मानव कहा गया है। यही मनोमय कोश है। जगत के मनोमय कोश में मानव ही में 'मन' सर्वाधिक प्रकट है अन्यों में मन सुप्त है। मन भी कई तरह के होते हैं। यह विस्तार की बातें हैं।
पितर : मनुष्य में जो आत्मा है वह जब देह छोड़ती है तो उसकी कई तरह की गति होती है। मुख्यत: दो गति अगति और गति होती है। अगति में फिर से उसे मनुष्य या अन्य प्राणी का शरीर धारण करना होता है जबकि गति में उसे किसी लोक में जाना होता है। पौराणिक क्रमवार देखें तो गति के प्रकार हैं हैं:- 1.नर्कलोक, 2.पितृलोक और 3.देवलोक और 4.ब्रह्मलोक। ब्रह्मलोक में जाना अर्थात मोक्ष को प्राप्त करना होता है। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।
उपरोक्त थ्योरी को न भी मानें तो व्यक्ति मरने के बाद प्रेत या पितर बन जाता है जो कि मनुष्य से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें मनुष्य की अपेक्षा ज्यादा शक्तियों एकत्रित हो जाती है। उसकी इंद्रिया पहले की अपेक्षा ज्यादा शक्तिशाली हो जाती है। यह अलग बात है कि इसमें से कुछ इसका उपयोग करना जानते हैं और कुछ नहीं। पितृ क्या होते हैं, पितृ कौन होते हैं और पितृ कहां होते हैं इस संबंध में वेद और पुराणों में विस्तार से लिखा हुआ है।
देवी और देवता : मनुष्य की आत्मा ही अपने चेतना के विकासक्रम और कर्मानुसार में आगे बढ़कर देवता हो जाता है या देवलोक में जगह पाती है। वेद और पुराणों अनुसार देवी और देवता के रूप में जो शरीर मिलता है उसकी उम्र हजारों या लाखों वर्ष तक हो सकती है। यह निर्भर करता है कि व्यक्ति कितनी शक्ति अर्जित करने आया और अर्जित कर रहा है।
हो सकता है कि भविष्य में वह अपने कर्मों द्वारा पुन: मनुष्य योनी में चला जाए। दरअसल देवाता होने के लिए अथक प्रयास करना होते हैं। आत्मा जब जड़, प्राण, मन और उससे आगे विज्ञानमय कोष में स्थापित होती है तब ही वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त होती है। बोधपूर्वक जीने से ही यह संभव होता है। जो व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में एक जैसा रहता है वही देवता होता है।
भगवान : बुद्धत्व, निर्वाण, मोक्ष, परमपद या विष्णुपद को प्राप्त व्यक्ति ही भगवान होता है। इसके लिए कुछ जन्मों की साधना होती है। ब्रह्मांड के संपूर्ण नियमों से परे भगवान की सत्ता होती है। वह एक शुद्ध प्रकाश होता है, जो उस महाप्रकाश का अंश है। जैसे जैन कैवल्य ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति को तीर्थंकर या अरिहंत कहते हैं। बौद्ध संबुद्ध कहते हैं वैसे ही हिंदू भगवान कहते हैं।
भगवान का अर्थ है जितेंद्रिय अर्थात इंद्रियों को जीतने वाला। भगवान शब्द संस्कृत के भगवत शब्द से बना है। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंचतत्वों पर पकड़ है उसे भगवान कहते हैं। भगवान शब्द का स्त्रीलिंग भगवती है। वह व्यक्ति जो पूर्णत: मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर कहीं भी जन्म लेकर कुछ भी करने की क्षमता रखता है वह भगवान है। परमहंस है।
ब्रह्म और ईश्वर : ब्रह्म और ईश्वर में भेद है, लेकिन यह दोनों ही है परमात्मा का स्वरूप। हम इस भेद में नहीं जाकर सीधे से समझें। ब्रह्म को प्रणव, सच्चिदानंद, परब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा कह सकते हैं। यह परम सत्ता है।
वेद और पुराणों अनुसार इस परमसत्ता के कारण ही ब्रह्मांड और आत्मा का जगत विद्यमान है। जिस तरह सूर्य के कारण ही सभी ग्रहों आदि का अस्तित्व है उसी तरह संपूर्ण ब्रह्मांड का उस एक परमेश्वर के कारण ही अस्तित्व है।