...ये दस मानवता के दुश्मन

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देवताओं को सुर कहा जाता है और दैत्यों को असुर। असुरों को दानव या राक्षस नहीं कहा जाता। कश्यप ऋषि की तीन प्रमुख पत्नियां थी- अदिति, दिति और दनु। अदिति से देवताओं और ‍दिति से असुरों और दनु से दानवों की उत्पत्ति हुई। देवताओं के सौतेले भाई हैं दैत्य। पौराणिक धर्मग्रंथों अनुसार असुरों और देवों में सदा युद्ध होता रहा। इसमें सबसे प्रसिद्ध है देवासुर संग्राम जो अमृत के लिए हुआ था। आज भी असुर आत्माएं सक्रिय हैं।

दिति के दो पुत्र हुए- हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष। दोनों में हिरण्यकश्यप (हिरण्यकशिपु) ज्यादा भयंकर था। हिरण्याक्ष को मारने के लिए ‍भगवान विष्णु को वराह अवतार लेना पड़ा था। हिरण्यकश्यप को कोई मार नहीं सकता था, क्योंकि उसने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि ‘आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि किसी से मेरी मृत्‍यु न हो। मैं समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं। मुझे कोई न दिन में मार सके न रात में, न घर के अंदर मार सके न बाहर यह भी कि कोई न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार मार सके। न भूमि पर न आकाश में, न पाताल में न स्वर्ग में।'

इस वरदान ने उसके भीतर अजर-अमर होने का भाव उत्पन्न हो गया था। इसके चलते उसने धरती पर अत्याचार शुरू कर दिया था। लोगों को वह ब्राह्मा, विष्णु और शिव की पूजा-प्रार्थना छोड़कर खुद की पूजा करने का कहता था। जो ऐसा नहीं करते थे उन्हें वह मार देता था।

हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु को नृसिंह अवतार लेना पड़ा था। हिरण्यकश्यप के कई पुत्र थे उनमें प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। विष्णु भक्ति के कारण हिरण्यकश्यप प्रहलाद से इतना नाराज था कि उसने प्रहलाद को मारने का आदेश दे दिया था, लेकिन विष्णु भक्ति के कारण प्रहलाद को कोई मार नहीं सकता था। प्रहलाद को जल में डुबोया, पहाड़ से नीचे गिराया गया, अस्त्र-शस्त्र से काटने का प्रयास किया गया, लेकिन हर उपाय असफल रहे। इससे हिरण्यकश्यप चिंतित हो गया।

हिरण्यकश्यप को चिंति‍त देख उसकी बहन होलिका ने प्रहलाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करने का प्रस्‍ताव रखा। होलिका को वर प्राप्‍त था कि वह स्‍वयं अग्नि में न जलेगी। पर जब होलिका प्रहलाद को गोद में ले चिता पर बैठी तो एक चमत्‍कार हुआ। होलिका जल गई और प्रहलाद बच गए। क्यों? क्योंकि होलिका के मन में पाप था। दूसरे के साथ, हृदय में पाप लेकर बैठने की उसने गलती की थी। वरदान सिर्फ इसलिए था कि अग्नि से उसकी रक्षा होगी तभी रक्षा होगी जबकि कोई उसे जलाने का प्रयास करेगा।

इस घटना के बाद हिरण्‍यकश्यप ने प्रहलाद को एक खंभे से बांध दिया। फिर भरी सभा में प्रहलाद से पूछा, ‘किसके बलबूते पर तू मेरी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है?’ प्रहलाद ने कहा, ‘आप अपना असुर स्वभाव छोड़ दें। सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की पूजा है।'

हिरण्‍यकश्यप ने क्रोध में कहा, ‘तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहां है वह तेरा जगदीश्‍वर? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बंधा है?’

यह कहकर हिरण्यकश्यप ने खंभे में घूंसा मारा। तभी खंभा भयंकर आवाज करते हुए फट गया और उसमें से एक भयंकर डरावना रूप प्रकट हुआ जिसका सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का था। पीली आंखें, बड़े-बड़े नाखून, विकराल चेहरा और तलवार-सी लपलपाती जीभ। यही ‘नृसिंह अवतार’ थे। उन्होंने तेजी से हिरण्‍यकश्यप को पकड़ लिया और संध्या की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जांघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्‍त्र से, न शास्‍त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला। हजारों सैनिक जो प्रहार करने आए, उन्‍हें भगवान नृसिंह ने हजारों भुजाओं और नखरूपी शस्‍त्रों से खदेड़कर मार डाला।

फिर क्रोध से भरे नृसिंह भगवान सिंहासन पर जा बैठे। तब प्रहलाद ने दंडवत होकर उनकी प्रार्थना-पूजा की। प्रहलाद का राजतिलक करने के बाद नृसिंह भगवान चले गए।

 

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जलंधर : श्रीमद्मदेवी भागवत् पुराण अनुसार जलंधर असुर शिव का अंश था, लेकिन उसे इसका पता नहीं था। जलंधर बहुत ही शक्तिशाली असुर था। इंद्र को पराजित कर जलंधर तीनों लोक का स्वामी बन बैठा था। यमराज भी उससे डरते थे।

श्रीमद्मदेवी भागवत् पुराण अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपना तेज समुद्र में फेंक दिया इससे जलंधर उत्पन्न हुआ। माना जाता है कि जलंधर में अपार शक्ति थी और उसकी शक्ति का कारण थी उसकी पत्नी वृंदा। वृंदा के पतिव्रत धर्म के कारण सभी देवी-देवता मिलकर भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे। जलंधर को इससे अपने शक्तिशाली होने का अभिमान हो गया और वह वृंदा के पतिव्रत धर्म की अवहेलना करके देवताओं के विरुद्ध कार्य कर उनकी स्त्रियों को सताने लगा।

जलंधर को मालूम था कि ब्रहांड में सबसे शक्तिशाली कोई है तो वे हैं देवों के देव महादेव। जलंधर ने खुद को सर्वशक्तिमान रूप में स्थापित करने के लिए क्रमश: पहले इंद्र को परास्त किया और त्रिलोधिपति बन गया। इसके बाद उसने विष्णु लोक पर आक्रमण किया।

जलंधर ने विष्णु को परास्त कर देवी लक्ष्मी को विष्णु से छीन लेने की योजना बनाई। इसके चलते उसने बैकुण्ठ पर आक्रमण कर दिया। लेकिन देवी लक्ष्मी ने जलंधर से कहा कि हम दोनों ही जल से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हम भाई-बहन हैं। देवी लक्ष्मी की बातों से जलंधर प्रभावित हुआ और लक्ष्मी को बहन मानकर बैकुण्ठ से चला गया।

इसके बाद उसने कैलाश पर आक्रमण करने की योजना बनाई और अपने सभी असुरों को इकट्ठा किया और कैलाश जाकर देवी पार्वती को पत्नी बनाने के लिए प्रयास करने लगा। इससे देवी पार्वती क्रोधित हो गई और तब महादेव को जलंधर से युद्घ करना पड़ा। लेकिन, वृंदा के सतीत्व के कारण भगवान शिव का हर प्रहार जलंधर निष्फल कर देता था।

अंत में देवताओं ने मिलकर योजना बनाई और भगवान विष्णु जलंधर का वेष धारण करके वृंदा के पास पहुंच गए। वृंदा भगवान विष्णु को अपना पति जलंधर समझकर उनके साथ पत्नी के समान व्यवहार करने लगी। इससे वृंदा का पतिव्रत धर्म टूट गया और शिव ने जलंधर का वध कर दिया।

विष्णु द्वारा सतीत्व भंग किए जाने पर वृंदा ने आत्मदाह कर लिया, तब उसकी राख के ऊपर तुलसी का एक पौधा जन्म। तुलसी देवी वृंदा का ही स्वरूप है जिसे भगवान विष्णु लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय मानते हैं।

भारत के पंजाब प्रांत में वर्तमान जालंधर नगर जलंधर के नाम पर ही है। जालंधर में आज भी असुरराज जलंधर की पत्नी देवी वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। मान्यता है कि यहां एक प्राचीन गुफा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। माना जाता है कि प्राचीनकाल में इस नगर के आसपास 12 तालाब हुआ करते थे। नगर में जाने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था।

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भस्मासुर : भस्मासुर एक महापापी असुर था। उसने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए भगवान शंकर की घोर तपस्या की और उनसे अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन भगवान शंकर ने कहा तुम कुछ और मांग लो तब भस्मासुर ने वरदान मांगा कि मैं जिसके भी सिर पर हाथ रखूं वह भस्म हो जाए। भगवान शंकर ने कहा- तथास्तु।

भस्मासुर ने इस वरदान के मिलते ही कहा, भगवन् क्यों न इस वरदान की शक्ति को परख लिया जाए। तब वह स्वयं शिवजी के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा। शिवजी भी वहां से भागे और विष्णुजी की शरण में छुप गए।

तब विष्णुजी ने एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर भस्मासुर को आकर्षित किया। भस्मासुर शिव को भूलकर उस सुंदर स्त्री के मोहपाश में बंध गया। मोहिनी स्त्रीरूपी विष्णु ने भस्मासुर को खुद के साथ नृत्य करने के लिए प्रेरित किया। भस्मासुर तुरंत ही मान गया।

नृत्य करते समय भस्मासुर मोहिनी की ही तरह नृत्य करने लगा और उचित मौका देखकर विष्णुजी ने अपने सिर पर हाथ रखा। शक्ति और काम के नशे में चूर भस्मासुर ने जिसकी नकल की और भस्मासुर अपने ही प्राप्त वरदान से भस्म हो गया।

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तारकासुर : तारकासुर असुरों में सबसे शक्तिशाली असुर था। उसके अत्याचारों से सभी देवी-देवता त्रस्त हो गए थे। सभी ने ब्रह्माजी की शरण ली। ब्रह्माजी ने कहा कि शिवजी से प्रार्थना करो, क्योंकि शिव-पार्वती का पुत्र ही तारकासुर का वध कर सकता है।

लेकिन उस वक्त शिवजी गहन समाधि में थे। उनकी समाधि तोड़ने की कौन हिम्मत कर सकता था। उनकी समाधि तोड़ना भी जरूरी थी, क्योंकि उनकी समाधि टूटने के बाद ही शिव-पार्वती का मिलन होता और फिर उनसे जो पुत्र उत्पन्न होता वह देवताओं का सेनापति बनता।

तब देवताओं ने युक्ति अनुसार कामदेव को समाधि भंग करने के लिए राजी कर लिया। देवताओं के कहने पर कामदेव ने उनकी समाधि भंग कर दी। लेकिन उसे शिव के क्रोध कर सामना करना पड़ा और अपना शरीर गंवाना पड़ा।

क्रोध शांत होने के बाद सभी देवता शिवजी के पास गए। उन्होंने शिवजी से प्रार्थना की कि तारकासुर हमें परेशान कर रहा है। आपका पुत्र ही इस समस्या का समाधान कर सकता है ऐसा ब्रह्माजी का वरदान है। देवताओं की प्रार्थना का असर शिवजी पर हुआ। देवताओं की प्रार्थना से ही शिव दूल्हा बने और उन्होंने पार्वती से विवाह किया। शिव-पार्वती के पुत्र हुए कार्तिकेय।

कार्तिकेय देवताओं की सेना के सेनापति बने। उन्होंने तारकासुर का वध कर देवताओं को असुरों के भय से मुक्त कर दिया।

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त्रिपुरासुर : असुर बालि की कृपा प्राप्त ‍त्रिपुरासुर भयंकर असुर थे। महाभारत के कर्णपर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।

तीनों ने खूब विचार कर, ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजित् नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित् अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!

शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोको को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी, उनके लोकों से बाहर निकाल दिया।

सभी देवताओं ने मिलकर के अपना सारा बल लगाया, लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके और अंत में सभी देवताओं को तीनों से छुप-छुपकर रहना पड़ा। अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान् शंकर ने कहा- सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते? देवताओं ने कहा- यह हम करके देख चुके हैं। तब शिव ने कहा- मैं अपना आधा बल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो, लेकिन सम्पूर्ण देवता सदाशिव के आधे बल को सम्हालने में असमर्थ रहे। तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया।

सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। इस असंभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन मिलता है।

पृथ्वी को ही भगवान् ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरूपर्वत धनुष और वासुकी बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान् उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं के द्वारा सम्हाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान् वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर, तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।

उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजित् नक्षत्र में, उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए।

त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का आंख अथवा आत्मा है।

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महिषासुर : रम्भासुर का पुत्र था महिषासुर, जो अत्यंत शक्तिशाली था। उसने अमर होने की इच्छा से ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। ब्रह्माजी उसके तप से प्रसन्न हुए। वे हंस पर बैठकर महिषासुर के निकट आए और बोले- 'वत्स! उठो, इच्छानुसार वर मांगो।' महिषासुर ने उनसे अमर होने का वर मांगा।

ब्रह्माजी ने कहा- 'वत्स! एक मृत्यु को छोड़कर, जो कुछ भी चाहो, मैं तुम्हें प्रदान कर सकता हूं क्योंकि जन्मे हुए प्राणी का मरना तय होता है। महिषासुर ने बहुत सोचा और फिर कहा- 'ठीक है प्रभो। देवता, असुर और मानव किसी से मेरी मृत्यु न हो। किसी स्त्री के हाथ से मेरी मृत्यु निश्चित करने की कृपा करें।' ब्रह्माजी 'एवमस्तु' कहकर अपने लोक चले गए।

वर प्राप्त करके लौटने के बाद महिषासुर समस्त दैत्यों का राजा बन गया। उसने दैत्यों की विशाल सेना का गठन कर पाताल लोक और मृत्युलोक पर आक्रमण कर समस्त को अपने अधीन कर लिया। फिर उसने देवताओं के इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भगवान विष्णु और शिव ने भी देवताओं का साथ दिया लेकिन महिषासुर के हाथों सभी को पराजय का सामना करना पड़ा और देवलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया। वह त्रिलोकाधिपति बन गया।

भगवान विष्णु ने कहा ने सभी देवताओं के साथ मिलकर सबकी आदि कारण भगवती महाशक्ति की आराधना की। सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य तेज निकलकर एक परम सुन्दरी स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। हिमवान ने भगवती की सवारी के लिए सिंह दिया तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र महामाया की सेवा में प्रस्तुत किए। भगवती ने देवताओं पर प्रसन्न होकर उन्हें शीघ्र ही महिषासुर के भय से मुक्त करने का आश्वासन दिया।

भगवती दुर्गा हिमालय पर पहुंचीं और अट्टहासपूर्वक घोर गर्जना की। महिषासुर के असुरों के साथ उनका भयंकर युद्ध छिड़ गया। एक-एक करके महिषासुर के सभी सेनानी मारे गए। फिर विवश होकर महिषासुर को भी देवी के साथ युद्ध करना पड़ा। महिषासुर ने नाना प्रकार के मायिक रूप बनाकर देवी को छल से मारने का प्रयास किया लेकिन अंत में भगवती ने अपने चक्र से महिषासुर का मस्तक काट दिया।

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नरकासुर : भागवत पुराण में बताया गया है कि भौमासुर भूमि माता का पुत्र था। विष्णु ने वराह अवतार धारण कर भूमि देवी को समुद्र से निकाला था। इसके बाद भूमि देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पिता एक दैवीशक्ति और माता पुण्यात्मा होने पर भी पर भौमासुर क्रूर निकला। वह पशुओं से भी ज्यादा क्रूर और अधमी था। उसकी करतूतों के कारण ही उसे नरकासुर कहा जाने लगा।

नरकासुर प्रागज्योतिषपुर का दैत्यराज था जिसने इंद्र को हराकर इंद्र को उसकी नगरी से बाहर निकाल दिया था। नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी हो गया था। वह पृथ्वी की हजारों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाकर उनका शोषण करता था। नरकासुर अपने मित्र मुर और मुर दैत्य के छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण के साथ रहता था।

कृष्ण अपनी आठों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक द्वारिका में रह रहे थे। एक दिन स्वर्गलोक के राजा देवराज इंद्र ने आकर उनसे प्रार्थना की, 'हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीन ली है और वह त्रिलोक विजयी हो गया है।

इंद्र ने कहा, भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं और आमजनों की अति सुन्दरी कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने यहां बंदीगृह में डाल रखा है। कृपया आप हमें बचाइए प्रभु।

इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरूड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया।

मुर दैत्य का वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला।

इस प्रकार भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हरण कर लाई गईं 16,100 कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया।

ये सभी अपहृत नारियां थीं या फिर भय के कारण उपहार में दी गई थीं और किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। वे सभी भौमासुर के द्वारा पीड़ित थीं, दुखी थीं, अपमानित, लांछित और कलंकित थीं।

सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए। वहां वे सभी कन्याएं स्वतंत्रपूर्वक अपनी इच्छानुसार सम्मानपूर्वक रहती थीं।

नरक चतुर्दशी : श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध किया था। इसी दिन की याद में दीपावली के ठीक एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी मनाई जाने लगी। मान्यता है कि नरकासुर की मृत्यु होने से उस दिन शुभ आत्माओं को मुक्ति मिली थी।

नरक चौदस के दिन प्रातःकाल में सूर्योदय से पूर्व उबटन लगाकर नीम, चिचड़ी जैसे कड़ुवे पत्ते डाले गए जल से स्नान का अत्यधिक महत्व है। इस दिन सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने घरों के दरवाजों पर चौदह दीये जलाकर दक्षिण दिशा में उनका मुख करके रखते हैं तथा पूजा-पाठ करते हैं।

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रावण : रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ ब्रह्म ज्ञानी तथा बहु-विद्याओं का जानकार था। उसे मायावी इसलिए कहा जाता था कि वह इंद्रजाल, तंत्र, सम्मोहन और तरह-तरह के जादू जानता था। उसके पास एक ऐसा विमान था, जो अन्य किसी के पास नहीं था। इस सभी के कारण सभी उससे भयभीत रहते थे।

एक मान्यता अनुसार असुरराज विष्णु के पार्षद जय और विजय ने ही रावण और कुंभकर्ण के रूप में फिर से जन्म लेकर धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया।

रावण ने रक्ष संस्कृति की नींव रखी थी। रावण ने कुबेर से लंका और उनका विमान छीना। रावण ने राम की सीता का हरण किया और अभिमानी रावण ने शिव का अपमान किया था। विद्वान होने के बावजूद रावण क्रूर, अभिमानी, दंभी और अत्याचारी था।

रावण के बारे में विस्तार से जानने के लिए आगे क्लिक करें... दशानन रावण की दस खास बातें


बेहद क्रूर और पूर्वजन्म का 'कालनेमि असुर', अगले पन्ने पर...


कंस : कंस को कौन नहीं जानता? भगवान कृष्ण के मामा थे कंस। वह अपने पिता उग्रसेन को राज पद से हटाकर स्वयं राजा बन बैठा था। कंस बेहद क्रूर था। उसमें असुरों, दानवों और राक्षसों जैसी प्रवृत्ति थी। कंस अपने पूर्वजन्म में 'कालनेमि' नामक असुर था जिसे भगवान विष्णु ने मारा था।

श्रीकृष्ण के जन्म के पहले शूरसेन जनपद का शासक था कंस। कंस ने मथुरा को भी अपने शासन के अधीन कर लिया था और वह प्रजा को अनेक प्रकार से पीड़ित करने लगा। कंस की इस शक्ति का मुख्‍य कारण यह था कि उसे आर्यावर्त के तत्कालीन सर्वप्रतापी राजा जरासंध का सहारा प्राप्त था। जरासंध पौरव वंश का था और मगध के विशाल साम्राज्य का शासक था।

कंस के काका शूरसेन का मथुरा पर राज था और शूरसेन के पुत्र वसुदेव का विवाह देवक की कन्या देवकी से हुआ था। कंस अपनी चचेरी बहन देवकी से बहुत स्नेह रखता था, लेकिन एक दिन वह देवकी के साथ रथ पर कहीं जा रहा था, तभी आकाशवाणी सुनाई पड़ी- 'जिसे तू चाहता है, उस देवकी का आठवां बालक तुझे मार डालेगा।'

इस भयंकर आकाशवाणी को सुनकर कंस भयभीत हो गया और उसने अपनी बहन को मारने के लिए तलवार निकाल ली। वसुदेव ने उसे जैसे-तैसे समझाकर शांत किया और वादा किया कि वे अपने पुत्र उसे सौंप देंगे।

पहला पुत्र होने पर जब वसुदेव कंस के पास पहुंचे तो कंस ने कहा कि मुझे तो आठवां बेटा चाहिए। बाद में नारद ने बताया कि तुम्हें मारने के लिए देवकी के उदर से स्वयं भगवान विष्णु जन्म लेंगे तो कंस और भयभीत हो गया और उसने वसुदेव और देवकी को कैद कर लिया। बाद में कंस ने एक-एक करके देवकी के छह बेटों को जन्म लेते ही मार डाला।

सातवें गर्भ में श्रीशेष (अनंत) ने प्रवेश किया था। भगवान विष्णु ने श्रीशेष को बचाने के लिए योगमाया से देवकी का गर्भ ब्रजनिवासिनी वसुदेव की पत्नी रोहिणी के उदर में रखवा दिया। तदनंतर आठवें बेटे की बारी में श्रीहरि ने स्वयं देवकी के उदर से पूर्णावतार लिया। कृष्ण के जन्म लेते ही माया के प्रभाव से सभी संतरी सो गए और जेल के दरवाजे अपने आप खुलते गए। वसुदेव मथुरा की जेल से शिशु कृष्ण को लेकर नंद के घर पहुंच गए।

बाद में कंस को जब पता चला तो उसने वसुदेव तथा देवकी को छोड़ दिया, लेकिन उसके मंत्रियों ने अपने प्रदेश के सभी नवजात शिशुओं को मारना प्रारंभ कर दिया। बाद में उसे कृष्ण के नंद के घर होने के पता चला तो उसने अनेक आसुरी प्रवृत्ति वाले लोगों से कृष्ण को मरवाना चाहा पर सभी कृष्ण तथा बलराम के हाथों मारे गए।

तब योजना अनुसार कंस ने एक समारोह के अवसर पर कृष्ण तथा बलराम को आमंत्रित किया। वह वहीं पर कृष्ण को मारना चाहता था, किंतु कृष्ण ने उस समारोह में कंस को बालों से पकड़कर उसकी गद्दी से खींचकर उसे भूमि पर पटक दिया और इसके बाद उसका वध कर दिया। कंस को मारने के बाद देवकी तथा वसुदेव को मुक्त किया और उन्होंने माता-पिता के चरणों में वंदना की।

अंत में पढ़िए, कृष्ण के समय का सबसे ताकतवर शासक...


जरासंध : जरासंध अत्यन्त क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, काश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था। इसी कारण पुराणों में जरासंध की बहुत चर्चा मिलती है। जरासंध कंस का ससुर था।

पुराणों अनुसार जरासंध के नाम का अर्थ भी उसके जन्म की कहानी में छुपा हुआ है। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था और जन्म के समय दो टुकड़ों में विभक्त था। जरा नाम की राक्षसी ने उसे जोड़ा था तभी उसका नाम जरासंध पड़ा। महाभारत युद्ध में जरासंध कौरवों के साथ था।

जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर एक बार नहीं कई बार चढ़ाई की, लेकिन हर बार वह असफल रहा। पुराणों के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासन कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।

कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम सन्देश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्री कृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं। कालयवन ने स्वीकार कर लिया। कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्‍ण रण की भूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन की पैर की ठोकर लगने से वह मनुष्य उठ पड़ा। उसने जैसे ही आंखें खोली और इधर उधर देखने लगे तब समने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले। वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे जो तपस्वी और प्रतापी थे।

जरासंध के कई साथी राजा थे- कामरूप का राजा दंतवक, चेदिराज, शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रूक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग कोसल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा आदि।

महाभारत युद्ध में भीम ने जरासंध के शरीर को दो हिस्सों में विभक्त कर उसका वध कर दिया था।

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