जनजाति को आदिवासी भी कहते हैं। आदिवासी अर्थात जो प्रारंभ से यहां रहता आया है। आदिवासी को वनवासी से जोड़कर भी देखते हैं। 400 पीढ़ियों पूर्व वन में तो सभी भारतीय रहते थे लेकिन विकास के कारण पहले ग्राम बने फिर कस्बे और अंत में नगर। यहीं वनवासी लोग ग्राम, कस्बे और नगर में बसते गए। विज्ञान कहता है कि मानव ने जो भी यह अभूतपूर्व प्रगति की है वह 200 पीढ़ियों के बाद 400 पीढ़ियों के दौरान हुई है। उससे पूर्व मानव पशुओं के समान ही जीवन व्यतीत करता था।
यदि हम मूलनिवासी की बात करें तो धरती के सभी मनुष्य अफ्रीकन या दक्षिण भारतीय है। कहते हैं कि 35 हजार वर्ष पूर्व मानव अफ्रीका या दक्षिण भारत से निकलकर मध्य एशिया और योरप में जाकर बसा। योरप से होता हुआ मनुष्य चीन पहुंचा और वहां से वह पुन: भारत के पूर्वोत्तर हिस्सों में दाखिल होते हुए पुन: दक्षिण भारत पहुंच गया और फिर अफ्रीका पहुंच गया। यह चक्र चलता रहा।
प्रारंभिक मानव पहले एक ही स्थान पर रहता था। वहीं से वह संपूर्ण विश्व में समय, काल और परिस्थिति के अनुसार बसता गया। विश्वभर की जनतातियों के नाक-नक्ष आदि में समानता इसीलिए पायी जाती है क्योंकि उन्होंने निष्क्रमण के बाद भी अपनी जातिगत शुद्धता को बरकरार रखा और जिन आदिवासी या जनतातियों के लोगों ने अपनी भूमि और जंगल को छोड़कर अन्य जगह पर निष्क्रमण करते हुए इस शुद्धता को छोड़कर संबंध बनाए उनमें बदलाव आता गया। यह बदलाव वातावरण और जीवन जीने के संघर्ष से भी आया।
वेदों में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आर्यों, दासों, दस्युओं में नस्लीय भेद को प्रदर्शित करता हो। वैज्ञानिक अध्ययनों, वेद शास्त्रों, शिलालेखों, जीवाश्मों, श्रुतियों, पृथ्वी की सरंचनात्मक विज्ञान, जेनेटिक अध्ययन और डीएनए के संबंधों आदि के आधार पर यह तथ्य सामने आता है कि धरती पर प्रथम जीव की उत्पत्ति गोंडवाना लैंड पर हुई थी। जिसे तब पेंजिया कहा जाता था और जो गोंडवाना और लारेशिया को मिलाकर बना था।
गोंडवाना लैंड के अमेरिका, अफ्रीका, अंटार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया एवं भारतीय प्रायद्वीप में विखंडन के पश्चात् यहां के निवासी अपने अपने क्षेत्र में बंट गए। जीवन का विकास सर्वप्रथम भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में नर्मदा के तट पर हुआ था जो नवीनतम शोधानुसार विश्व की सर्वप्रथम नदी मानी गई है। यहां बड़ी माथा में डायनासोर के अंडे और जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। भारत के सबसे पुरातन आदिवासी गोंडवाना प्रदेश के गोंड कारकू समाज की प्राचीन कथाओं में यह तथ्य कई बार आता है।
भारत में रहने वाला हर व्यक्ति आदिवासी है लेकिन चूंकि विकासक्रम में भारतीय वनों में रहने वाले आदिवासियों ने अपनी शुद्धता बनाए रखी और वे जंगलों के वातावरण में खुले में ही रहते आए हैं तो उनकी शारीरिक संवरचना, रंग-रूप, परंपरा और रीति रिवाज में कोई खास बदलावा नहीं हुआ। हालांकि जो आदिवासी अब गांव, कस्बे और शहररों के घरों में रहने लगे हैं उनमें धीरे धीरे बदलवा जरूर आए लेकिन सभी के डीएनए एक ही हैं। भारत में लगभग 461 जनजातियां हैं। उक्त सभी आदिवासियों का मूल धर्म शैव हिन्दू है, लेकिन धर्मांतरण के चलते अब यह ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध भी हो चले हैं। लेकिन इनका धर्म वर्तमान के हिन्दू धर्म से अगल प्राचीन शैव धर्म है। जिसे वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग या पत्थर रखकर पूजा का प्रचलन है। मतलब शिव और भैरव इनके प्रमुख देवता हैं।
भारत के उत्तरी क्षेत्र जम्मू-कश्मीर, उत्तरांचल और हिमाचल प्रदेश में मूल रूप में लेपचा, भूटिया, थारू, बुक्सा, जॉन सारी, खाम्पटी, कनोटा जातियां प्रमुख हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र (असम, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय आदि) में लेपचा, भारी, मिसमी, डफला, हमर, कोड़ा, वुकी, लुसाई, चकमा, लखेर, कुकी, पोई, मोनपास, शेरदुक पेस प्रमुख हैं। पूर्वी क्षेत्र (उड़ीसा, झारखंड, संथाल, बंगाल) में जुआंग, खोड़, भूमिज, खरिया, मुंडा, संथाल, बिरहोर हो, कोड़ा, उंराव आदि जातियां प्रमुख हैं। इसमें संथाल सबसे बड़ी जाति है।
पश्चिमी भारत (गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र) में भील, कोली, मीना, टाकणकार, पारधी, कोरकू, पावरा, खासी, सहरिया, आंध, टोकरे कोली, महादेव कोली, मल्हार कोली, टाकणकार आदि प्रमुख है। दक्षिण भारत में (केरल, कर्नाटक आदि) कोटा, बगादा, टोडा, कुरूंबा, कादर, चेंचु, पूलियान, नायक, चेट्टी ये प्रमुख हैं। द्वीपीय क्षेत्र में (अंडमान-निकोबार आदि) जारवा, ओन्गे, ग्रेट अंडमानीज, सेंटेनेलीज, शोम्पेंस और बो, जाखा, आदि जातियां प्रमुख है।
इनमें से कुछ जातियां जैसे लेपचा, भूटिया आदि उत्तरी भारत की जातियां मंगोल जाति से संबंध रखती हैं। दूसरी ओर केरल, कर्नाटक और द्वीपीय क्षेत्र की कुछ जातियां नीग्रो प्रजाति से संबंध रखती हैं।
आदिवासियों का शिव से संबंध : भातर के आदिवासियों का धर्म क्या है इस संबंध में कई तरह के भ्रम पैदा किए जाते हैं। यह भ्रम 300 वर्षों से जारी आधुनिक काल की राजनीति के चलते हैं। लेकिन सचाई ये हैं कि भारत के आदिवासियों का मूल धर्म शैव है। वे भगवान शिव की मूर्ति नहीं शिवलिंग की पूजा करते हैं। उनके धर्म के देवता शिव के अलावा भैरव, कालिका, दस महाविद्याएं और लोक देवता, कुल देवता, ग्राम देवता हैं। भारत के हिन्दू धर्म में उन्हीं प्राचीन आदिवासियों का धर्म मिश्रित हो चला है जिसे शैव कहा गया है।
भारत की प्राचीन सभ्यता में भी शिव और शिवलिंग से जुड़े अवशेष प्राप्त होते हैं जिससे यह पता चलता है कि प्राचीन भारत के लोग शिव के साथ ही पशुओं और वृक्षों की पूजा भी करते थे। भगवान शिव को आदिदेव, आदिनाथ और आदियोगी कहा जाता है। आदि का अर्थ सबसे प्राचीन प्रारंभिक, प्रथम और आदिम। शिव आदिवासियों के देवता हैं। शिव खुद ही एक आदिवासी थे। आर्यों से संबंध होने के कारण आर्यो ने उन्हें अपने देवों की श्रेणी में रख दिया। आर्य लोग शिव की पूजा नहीं करते थे लेकिन आदिवासियों के देवता तो प्राचीनकाल से ही शिव ही रहे हैं।
मूल रूप से आदिवासियों का अपना धर्म है। ये शिव एवं भैरव के साथ ही प्रकृति पूजक हैं और जंगल, पहाड़, नदियों एवं सूर्य की आराधना करते हैं। इनके अपने अलग लोक देवता, ग्राम देवता और कुल देवता हैं। जैसे नागवंशी आदिवासी और उनकी उप जनजातियां नाग की पूजा करते हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता में शिव जैसी पशुओं से घिरी जो मूर्ति मिली है इससे यह सिद्ध होता है कि आदिवासियों का संबंध सिंधु घाटी की सभ्यता से भी था।
आदिवासियों का राम से संबंध : भगवान राम अपने वनवास के दौरान लगभग 10 वर्ष तक दंडकारण्य क्षेत्र में आदिवासियों के बीच रहे थे। केवट प्रसंग, जटायु प्रसंग, शबरी प्रसंग, हनुमान और सुग्रीव मिलन यह सभी उस दौर के दलित या आदिवासी लोग ही थे। दंडकारण्य क्षेत्र में आदिवासियों की बहुलता थी। यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के बाद प्रभु श्रीराम 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे थे। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इस संपूर्ण क्षेत्र के आदिवासियों में राम और हनुमान को सबसे ज्यादा पूजनीय इसीलिए माना जाता है।
राम ने ही सर्वप्रथम देश के सभी आदिवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी और सभी को मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य किया। यदि आप निषाद, वानर, मतंग, किरात और रीछ समाज की बात करेंगे तो ये उस काल के दलित या आदिवासी समाज के लोग ही हुआ करते थे। आज उममें से कई ऐसे समाज है जो श्रेष्ठता के क्रम में ऊपर जाकर छत्रिय या ब्राह्मण हो गए है। जैसे वाल्मीकिजी कभी एक डाकू हुआ करते थे और वे भील जाति के लोगों के बीच पले बड़े हुए थे। उन्होंने ही रामायण लिखी थी। कुछ उन्हें कोली आदिवासी समाज का मानते हैं। हनुमानजी के गुरु मतंग ऋषि आज की जातिगत व्यवस्था अनुसार तो दलित ही कहलाएंगे?
वर्तमान में आदिवासियों, वनवासियों और दलितों के बीच जो धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा, रीति और रिवाज हैं, वे सभी प्रभु श्रीराम की ही देन हैं। भगवान राम भी वनवासी ही थे। उन्होंने वन में रहकर संपूर्ण वनवासी समाज को एक-दूसरे से जोड़ा और उनको सभ्य एवं धार्मिक तरीके से रहना सिखाया। बदले में प्रभु श्रीराम को जो प्यार मिला, वह सर्वविदित है।
वन में रहकर उन्होंने वनवासी और आदिवासियों को धनुष एवं बाण बनाना सिखाया, तन पर कपड़े पहनना सिखाया, गुफाओं का उपयोग रहने के लिए कैसे करें, ये बताया और धर्म के मार्ग पर चलकर अपने रीति-रिवाज कैसे संपन्न करें, यह भी बताया। उन्होंने आदिवासियों के बीच परिवार की धारणा का भी विकास किया और एक-दूसरे का सम्मान करना भी सिखाया। उन्हीं के कारण हमारे देश में आदिवासियों के कबीले नहीं, समुदाय होते हैं। उन्हीं के कारण ही देशभर के आदिवासियों के रीति-रिवाजों में समानता पाई जाती है।