पौराणिक भारत के स्रोत और साक्ष्य...

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

मंगलवार, 17 जनवरी 2017 (11:22 IST)
भारतीय इतिहास को जानने के साधनों में हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म के ग्रंथों के अलावा दक्षिण भारतीय साहित्य में संगम साहित्य का अधिक महत्व है। अन्य भारतीय साहित्य में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखा दत्ता का मुद्रा राक्षस, कल्हण की राजतरंगिणी राजतरंगिणी (1149-50), पाणिनि की अष्टाध्यायी, मार्गसंहिता, पतंजलि का महाभाष्य, कालिदास का मालविकाग्निमित्रम्, शुक्रनीतिसार, बाणभट्ट का हर्ष चरित, कादम्बरी, हरिषेण की प्रशस्ति आदि अनेक ग्रंथ हैं जो तात्कालिक और पूर्व के इतिहास का विवरण देते हैं। 
इसके अलावा विदेशी साहित्य में हेरोडोटस की हिस्टोरिका, मेगास्थेनेस द्वारा रची गई इंडिका, टॉलमी और प्लिनी द्वारा भारत के भुगोल और प्राकृतिक संपदा और माहौल का विवरण, चीनी यात्री फाह्यान चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में, जबकि ह्वेनसांग हर्षवर्धन के काल में भारत आए। उक्त दोनों यात्रियों के बाद इत्सिंग ने भारत की यात्रा की। इन तीन सुप्रसिद्ध यात्रियों के अतिरिक्त कुछ अन्य चीनी लेखकों से भी भारतीय इतिहास की सामग्री प्राप्त होती है। इससे पूर्व चीन के प्रथम इतिहासकार शुमाशीन ने लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू. में इतिहास की एक पुस्तक लिखी। शुमाशीन की इस पुस्तक से प्राचीन भारत के बारे में जानकारी मिलती है।
 
अरब और ईरान के यात्रियों में अल बरूनी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इनकी इतिहास की किताब किताब-उल-हिन्द और तहकीक-ए-हिन्द में तात्कालीन भारत की जानकारी मिलती है। 
 
इसके अलावा पुरा स्थलों से प्राप्त शिलालेख, पुरालेख, मुद्रा, स्मारक, पिल्लर, भित्तिचित्र, मिट्टी के बर्तन आदि का भी सहयोग लिया जाता है। इसमें हड़प्पा के नगर, अशोक के स्तंभ, महरौली स्तंभ, अजंता एलोरा के गुफा और मंदिर, अंकोरवाट और जावा के मंदिर आदि का विश्लेषण भी किया गया।
 
वैदिक ग्रंथों में जहां ऋग्वेद का महत्व हैं। वहीं, बौद्ध ग्रंथों में त्रिपिटक, मिलिन्दपंह, अंगुत्तर निकाय, दीपवंस, महावंस, मंजूश्री मूलकल्प, ललित विस्तार आदि ग्रंथ हैं, जबकि जैन ग्रंथों में परिशिष्टपर्वन्, भद्रबाहु का कल्प सूत्र, भद्रबाहुचरित्र, आचारंग सूत्र, कथाकोष, पुण्याश्रव-कथाकोष, लोक-विभाग, त्रिलोक-प्रज्ञप्ति, आवश्यक सूत्र, भगवती सूत्र, कालिकापुराण आदि अनेक जैन ग्रन्थ भारतीय इतिहास की सामग्री उपस्थित करते हैं।
 
संगम साहित्य ग्रंथों में तोल्काप्पियम, एत्तुतौकै, पत्तुपात्तु, शिलप्पादिकारम, मणिमेखलै और जीवक चिन्तामणि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है जिनमें दक्षिण भारत के ईसा पूर्व के इतिहास को दर्ज किया गया है। उक्त साहित्य का रचना काल 300 ईसा पूर्व से 300 ईसा के बीच रहा। हालांकि वास्तव में संगम, तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद् थी। तमिल अनुश्रुतियों के अनुसार तीन परिषदों (संगम) का आयोजन हुआ था, 'प्रथम संगम', 'द्वितीय संगम' और 'तृतीय संगम'। तीनों संगम कुल 9950 वर्ष तक चले। इस अवधि में लगभग 8598 कवियों ने अपनी रचनाओं से संगम साहित्य की उन्नति की। कोई 197 पाण्ड्य शासकों ने इन संगमों को अपना संरक्षण प्रदान किया। तमिलनाडु के शिवअंगा जिले में पल्लीसंताई थिडल में आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बेंगलुर ब्रांच-6 की ओर से कराई गई खुदाई में यहां से संगम साहित्य में उल्लेखित बातों के साक्ष्य मिले हैं। खुदाई में कीलाडी गांव का सेटलमेंट हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की तरह विशाल होने का अनुमान लगाया गया। पहले चरण की स्टडी में पता चला की यह प्राचीन शहरी आवासीय स्थल था।
 
वैदिक ग्रंथों के बाद ऐतिहासिक उपयोगिता के दृष्टिकोण से स्मृतियों का भी विशेष महत्त्व है। मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति, पराशर आदि की स्मतियां विशेष उल्लेखनीय है। इसके महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और व्यास मुनि द्वारा रचित महाभारत को महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है। इसमें प्राचीन भारत की भोगोलिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति का वर्णन मिलता है। महाकाव्यों के पश्चात् पुराणों का स्थान आता है। इन पुराणों में प्राचीन भारत के इतिहास और परंपरा का व्यवस्थित रिकार्ड रखा गया है। पुराणों की रचना का श्रेय सूतलोमहर्षण अथवा उनके पुत्र (सौति) उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को दिया गया है। अधिकतर विद्वान हिन्दु पुराणों को गुप्त काल में फिर से लिखे जाने का मानते हैं। 18 पुराणों में सबसे पुराना मत्स्य पुराण माना गया है। इस पुराण को आंध्र के सातवाहन राजा गौतमी सतकर्णी के काल में लिखा गया था। पुराण इतिहास की प्रचुर सामग्री उपस्थित करते हैं। वे प्राचीन काल से लेकर गुप्त-काल तक के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का परिचय करा देते हैं जिनकी प्रामाणिकता के लिए हमें अन्य साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि ये तिथिपरक नहीं है।
 
1.यदि हम भारतीय इतिहास की शुरुआत पुरा पाषाण काल से मानते हैं तो यह काल 35000 ईसा पूर्व से 9000 ईसा पूर्व तक चला। इस काल में व्यक्ति पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर था। भीम बैठका की गुफाओं में की गई चित्रकारी इस काल को प्रदर्शित करती है। तब व्यक्ति को न तो धातु और न ही मिट्टी के बर्तन बनाने का ज्ञान था।
 
2.मध्य पाषाण काल का युग 9000 ईसा पूर्व से 4000 ईसा पूर्व के बीच था। इस काल में व्यक्ति शिकार करता था। चीजों को एकत्रित करके रखता था। पशुओं को पालने लगा था। आग का उपयोग करना सीख गया था। छोटे-छोटे पत्थरों ओजार, धनुष के बाण, मछली पकड़ने के ओजार आदि बनाना सीख गया था। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के किनारे बागोर और मध्यप्रदेश के होशंगामबाद में नर्मदा नदी के पास आदमगढ़ में इस काल के प्रमाण पाए गए हैं। 
 
बागोर में यहाँ से मध्य पाषाण काल के पाँच मानव कंकाल मिले हैं, जो सुनियोजित ढंग से दफ़नाए गये थे। इस समय तक मानव संगठित सामाजिक जीवन से दूर था। भारत में घोड़े को पालतू बनाए जाने के प्रमाण बागोर में पाए गए हैं। वहीं, आदमगढ़ में प्राचीन पत्थरों पर की गई चित्रकारी में उस काल के लोगों द्वारा धनुष बाण का उपयोग किए जाने और घोड़े पर सवारी किए जाने के चित्रों से पताल चलता है कि भारत के 9 हजार ईसा पूर्व घोड़ों पर बैठकर शिकार करते थे।
 
3.नव पाषाण काल का समय 4000 ईसा पूर्व से 2400 ईसा पूर्व के बीच था।  कर्नाटक के बेलारी क्षेत्र को दक्षिण भारत के उत्तर पाषाण कालीन सभ्यता का मुख्य स्थल माना गया है जबकि पश्चिम भारत में जहां मेहरगढ़ है वहीं उत्तर भारत में बुर्जहोम, गुफकराल, चिरांद पिकलीहल और कोल्डिहवा इसके प्रमुख केंद्र है। इस सभ्यता के मुख्य केन्द्र बिन्दु थे- कश्मीर, सिंध प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम आदि।
 
इस दौरान मानव एक ओर जहां मिट्ठी के बर्तन, तांबें के औजार और घर बनाना सीख गया था वहीं उसने गांव बनाकर समूह में रहकर कृषि करने में खुद को सक्षम बना लिया था। इस दौर में शिकार करना और प्रकृति पर निर्भर रहना कम हो गया था। इस बात के प्रमाण हमें मेहरगढ़ में मिलते हैं। यहां मिट्टी और ईंट के घर मिलते हैं, जो लगभग 7000 ईसा पूर्व के बताए जाते हैं। यहां बुनाई की टोकरियां, औजार एवं मनके हैं बड़ी मात्र में मिले हैं। यहां चावल की खेती करने के प्रमाण, भेड़ और बकरियां पाले जाने के प्रामाण और अनाज भंडारण करने के प्रमाण भी मिले हैं। बाद के स्तरों से मिट्टी के बर्तन, तांबे के औजार, हथियार और समाधियां भी मिली है। इनमें सबसे पुराना स्तर जो सबसे नीचे है नवपाषण काल का है और आज से लगभग 9000 वर्ष पूर्व का है वहीं सबसे नया स्तर कांस्य युग का है और तकरीबन 4000 वर्ष पूर्व का है। अनुमान लगाया जाता है कि सिंध और बलूचिस्तान की सीमा पर स्थित 'कच्छी मैदान' में बोलन नदी के किनारे मेहरगढ़ नामक स्थान पर कृषि कर्म का प्रारम्भ हुआ। इस सभ्यता के लोगों ने अग्नि का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया था। कुम्भकारी सर्वप्रथम इसी काल में दृष्टिगोचर होती है। नव पाषाणकालीन महत्त्वपूर्ण स्थल हैं।
 
उत्तर प्रदेश के इलाहबाद के पास कोल्डिहवा स्थान पर चावल की खेती करने के प्राचीनतम अवशेष मिले हैं, जिसका समय 7000-6000 ईसा पूर्व का माना जाता है। यहां से मध्य पाषाण काल के मानवों का पहला शारीरीक अस्थिपंजर भी मिले हैं। महगड़ा में भी खेती का साक्ष्य मिलता है। महगड़ा में एक पशुवाड़ा भी मिला है। 
 
बुर्ज़होम, श्रीनगर का पुरातात्विक महत्‍व वाला कश्‍मीर का प्रमुख ऐतिहासिक स्‍थल है। यहां पर कई प्राचीन भूमिगत गड्डे पाएं जाते हैं। इन गड्ढों को छप्परों से ढंक कर उनमें रहते थे। यहां के घरों का निर्माण जमीनी स्‍तर से ऊपर ईंट और गारे से भी किया जाता था। यहां के लोग खेती भी कर रहे थे और प्रत्येक घर में कुता पाला हुआ था। बुर्जहोम में मालिक के मर जाने पर कुते को भी साथ ही दफनाया जाता था। यहां से हड्डी के विशिष्ट औजार, आयताकार छिद्रित पत्थर के चाकू, बर्तन, पशु कंकाल और उपकरण भी प्राप्‍त हुए हैं। इसी तरह कश्मीर के गुफकराल में भी पशुपालन और कृषि करने के प्रमाण मिलते है।
 
इसी तरह बिहार के सारण जिले में चिरांद, आन्ध्र प्रदेश के रायचूर जिले की एक पहाड़ी के पास पिकलीहल, महाराष्ट्र के अहमदनगर के जोर्वे, पुणे के पास इनामगांव, राजस्थान में आहाड़ नदी के पास के पुरास्थल, मध्यप्रदेष के मालवा, नासिक के पास दाइमाबाद आदि जगहों से मध्य पाषाण का, नव नवपाषाण काल और ताम्रयुग के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
 
4.स्थायी रूप से शहरी और नगरीय सभ्यता की शुरुआत इसलिए सिंधु घाटी से मानी जाती है क्योंकि इस काल के नगर मिले हैं। इस काल को 3300 से 1900 के बीच का माना जाता है। सिंधु घाटी में ऐसी कम से कम आठ जगहें हैं जहां संपूर्ण नगर खोज लिए गए हैं। जिनके नाम हड़प्पा, मोहनजोदेड़ों, चनहुदड़ो, लुथल, कालीबंगा, सुरकोटदा, रंगपुर और रोपड़ है। उक्त स्थलों से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि यहां के लोग  दूर तक व्यापार करने जाते थे और यहां पर दूर दूर के व्यापारी भी आते थे। यहां के लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से नगरों का निर्माण नहीं नहीं किया था बल्कि ये लोग व्यापार के भिन्न भिन्न तरीके भी जानते थे। अयात और निर्यात के चलते इनके मुद्राओं का प्रचलन होने से समाज में एक नई क्रांति का सूत्र पात हो चुका था। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग धर्म, ज्योतिष और विज्ञान की अच्छी समझ रखते थे। राज करने की नीति के चलते उन्होंने श्रम का अच्छे से विभाजन करके समाज में भी लोगों को ऊंचे और नीचे क्रम में बांट दिया था। इस काल के लोग जहाज, रथ, बेलगाड़ी आदि यातायात के साधनों का अच्छे से उपयोग करना सीख गए थे।
 
5.वैदिक युग को सिंधु सभ्यता के बाद का काल इसलिए माना जाता है क्योंकि ऋग्वेद को 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व लिखे होने की पुष्टि होती है। लेकिन यह उचित नहीं। ऋग्वेद का ज्ञान तो इससे पहले हजारों वर्षों की प्राचीन वाचिक परंपरा से चला आ रहा था जिसे लिखने के युग के शुरू होने के दौरान लिखा गया।
 
माना जाता है कि ऋग्वेद के प्रथम आठ मंडल प्राचीन है। इसके बाद के मंडल 1000 ईसा से 600 ईसा पूर्व के बीच लिखे गए। ऋग्वेद का उपवेद है आयुर्वेद। आयुर्वेद में मानव और पशुओं की चिकित्सा की जानकारी है। ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों के बारे में असाधारण ज्ञान होना इस बात की सूचना है कि भारतीय लोग इस काल में कितने सभ्य और ज्ञान संपन्न थे।

ऋग्वेद में सोम, इंद्र और अग्नि नामक पुरुषों की प्रशांसा की गई है। सामवेद में संगीत और नृत्य कला की जानकारी है। इसका उपवेद गंधर्व वेद है। यजुर्वेद में यज्ञ विज्ञान और अनुष्ठान की जानकारी है। इसका उपवेद धनुर्वेद है जिसमें आयुध विज्ञान के बारे में वर्णन मिलता है। इसके बाद अथर्ववेद में दुनियादारी की हर चीज है। इसमें जादू, युद्ध मंत्र, ज्योतिष, रहस्यम विद्या, चिकित्सा, शिल्प कला, वास्तु कला, स्थापत्य कला आदि सभी कुछ है। यह सब लिखा गया था ईसा के 1500 वर्ष पूर्व अर्थात आज से 3516 वर्ष पूर्व। इति।

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