सती प्रथा कभी नहीं रही हिन्दू धर्म का हिस्सा...

सती प्रथा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। सती माता के मंदिर भी बने हैं, खासकर ये मंदिर राजस्थान में बहुतायत में मिलते हैं। सवाल उठता है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्री के विधवा हो जाने पर उसके सती होने की प्रथा का प्रचलन है?
 
जवाब है नहीं। हिन्दू धर्म किसी भी रूप में भारतीय समाज में फैली सती प्रथा का समर्थन नहीं करता है। ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को उसकी जलती हुई चिता पर बैठकर भस्म होना है। हिन्दू धर्म के चार वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, इन चारों वेद में से किसी भी वेद में स्त्री को सती करने जैसी व्याख्या शामिल नहीं है।
 
हालांकि अब यह प्रथा बंद है लेकिन इस प्रथा में जीवित विधवा पत्नी को उसकी इच्छा से मृत पति की चिता पर जिंदा ही जला दिया जाता था। विधवा हुई महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के समय स्वयं भी उसकी जलती चिता में कूदकर आत्मदाह कर लेती थी।
 
इस प्रथा को कुछ कुतर्की लोगों ने देवी सती (दुर्गा) का नाम दिया। देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष द्वारा उनके पति शिव का अपमान न सह सकने करने के कारण यज्ञ की अग्नि में जलकर अपनी जान दे दी थी। 
 
शोधकर्ता मानते हैं कि इस प्रथा का प्रचलन मुस्लिम काल में देखने को मिला जबकि मुस्लिम आक्रांता महिलाओं को लूटकर अरब ले जाते थे या राजाओं के मारे जाने के बाद उनकी रानियां जौहर की रस्म अदा करती थी अर्थात या तो कुएं में कूद जाती थी या आग में कूदकर जान दे देती थी।

हिन्दुस्तान पर विदेशी मुसलमान हमलावरों ने जब आतंक मचाना शुरू किया और पुरुषों की हत्या के बाद महिलाओं का अपहरण करके उनके साथ दुर्व्यवहार करना शुरू किया तो बहुत-सी महिलाओं ने उनके हाथ आने से, अपनी जान देना बेहतर समझा। उस काल में भारत में इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा सिंध, पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान आदि के छत्रिय या राजपूत क्षेत्रों पर आक्रमण किया जा रहा था।
 
जब अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती को पाने की खातिर चित्तौड़ में नरसंहार किया था तब उस समय अपनी लाज बचाने की खातिर पद्मावती ने सभी राजपूत विधवाओं के साथ सामूहिक जौहर किया था। महिलाओं के इस बलिदान को याद रखने के लिए उक्त स्थान पर मंदिर बना दिये गए और उन महिलाओं को सती कहा जाने लगा। तभी से सती के प्रति सम्मान बढ़ गया और सती प्रथा प्रचलन में आ गई। इस प्रथा के लिए धर्म नहीं, बल्कि उस समय की परिस्थितियां और लालचियों की नीयत जिम्मेदार थी। 
 
गुलामी का काल हिन्दू स्त्री जातियों के लिए बहुत ही बुरा काल था ऐसे में उनके पति के मरने के बाद उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता था। उनमें से कुछ महिलाएं तो वृंदावन या मथुरा जैसी जगह जाकर सन्यास ले लेती थी तो कुछ को वैश्यालयों में धकेल दिया जाता था। कुछ ऐसे समाज थे जहां महिलाओं को सती होने के लिए मजबूर कर दिया जाता था। हालांकि ऐसी घटनाएं राजस्थान और उससे लगे क्षेत्र में ही देखने को मिलती थी। अधिकतर घरों में महिलाएं पूरा जीवन विधवा बनकर ही काट देती थी। 
 
इस प्रथा को बाद में बंद कराने का श्रेय राजा राममोहन राय के अलावा कश्मीर के शासक सिकन्दर, पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क, मुगल सम्राट अकबर, पेशवाओं, लॉर्ड कार्नवालिस, लॉर्ड हैस्टिंग्स और लॉर्ड विलियम बैंटिक को जाता है।

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