भारत के 5 प्राचीन अंतरिक्ष वैज्ञानिक, जानिए कौन...

करीब 5000 वर्ष पूर्व पवित्र गीता 2-16 के अनुसार- नासतो विद्यते भावों न भावे विद्यते सत: अर्थात जो विद्यमान (स्थायित्व में) है, उसका क्षय (नाश) नहीं हो सकता है और जो विद्यमान नहीं है, उसका जन्म नहीं हो सकता है। उपरोक्त सिद्धांत को आधुनिकता में (कुछ ही सदियों से) लॉ ऑफ कन्जर्वेशन ऑफ एनर्जी/ माश के नाम से जाना जाता है। मनु के अनुसार प्रकृति (पराइमारडल स्टेट ग्राफ मैटर) से आकाश (ईथर); आकाश से वायुमंडल, वायुमंडल से रोशनी (लाइट); वायुमंडल व रोशनी से ऊष्मा (हीट) इनसे जल और जल से सभी जीव-जंतुओं का आविर्भाव हुआ है।
ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैगस्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जाकर उसने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिखकर भारत की तत्कालीन समृद्धि, राजनीतिक तथा प्रशासनिक परिस्‍थितियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हर्क्युलिस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देशवासियों को अवगत कराया था।
 
पांचवीं शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यान भारतीय राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा। यहां रहकर उसने कई बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उसके आलेखों से प्रेरणा पाकर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास ‘जर्नी टु दि वेस्ट’ अंग्रेजी में लिखा गया था।
 
कोपरनिकस (1473-1543) के पहले तक यूरोप में टालमी और बाइबिल का झूठा ब्रह्मांड सिद्धांत प्रचलित था, जबकि पांचवीं शताब्दी में ही नालंदा विश्‍वविद्यालय के खगोलशास्त्रियों को पता था कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर नाचती है। हिन्दू शास्त्रों में देश, काल और तत्वों को लेकर कई सिद्धांत हैं जिसे आज का विज्ञान समझने लगा है, लेकिन मध्यकाल में इन सिद्धांतों के प्रचारित होने से नए धर्मों के मूल्य गिर जाते इसलिए इनको नष्ट करने का हरसंभव प्रयास किया गया। भारतीय खगोलशास्त्र और धर्म को लेकर मुगलों और अंग्रेजों के मन में भी कटुता थी। मैकाले ने इस ज्ञान को भ्रमित और नष्ट करने के भरपूर प्रयास किए। 
 
बौद्ध और गुप्त काल में भारत ने अपने वैदिक ज्ञान के बल पर ज्ञान के चरम शिखरों को छुआ था, लेकिन मध्यकाल के बर्बर आक्रांताओं ने इन शिखरों को ध्वस्त कर इतिहास को मिटाने का भरपूर प्रयास किया लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। प्राचीन वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के अनेक बुनियादी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जिनमें पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने की अवधारणा, चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण, गुरुत्वाकर्षण बल तथा ग्रहों की गति की गणना आदि शामिल हैं।
 
ईसा पूर्व हुए सम्राट विक्रमादित्य प्रथम भारत के महान सम्राट थे। उनके काल में उज्जैन ही विश्व की राजधानी हुआ करती थी, लेकिन विक्रमादित्य के इतिहास को मिटा दिया गया। उनके द्वारा किए गए महान कार्यों के पन्नों को पहले बौद्धकाल, फिर मध्यकाल में फाड़ दिया गया। सम्राट विक्रमादित्य के काल में भारत विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, नक्षत्र आदि विद्याओं का विश्वगुरु था। बाद में चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य द्वितीय के कारण में भारत ने खगोल शास्त्र में बहुत उन्नति की।
 
गुप्त काल में विक्रमादित्य द्वितीय ने उज्जैन को धरती की कालगणना का केंद्र बनाया था। यहां के ज्योतिर्लिंग को इसीलिए महाकाल कहा जाता है। यह ठीक कर्क रेखा के ऊपर स्थित है। उज्जैन को 'मानक समय' का केंद्र बनाकर भारतीय खगोलविदों ने पूरी धरती पर वेधशालाएं बनाई थीं और ऐसे स्तंभ निर्मित किए थे जिससे सूर्य, चंद्र और नक्षत्रों की गति पर नजर रखी जा सके। उन्हीं स्तंभों में से एक था विष्णु स्तंभ जिसे आज कुतुब मीनार कहा जाता है।  
 
मानक समय वह समय है, जो किसी देश या विस्तृत भू-भाग की प्रकृ‍ति के लिए स्वीकृत होता है। यह उस देश के स्वीकृत मानक याम्योत्तर के लिए स्थानीय माध्य समय होता है। हमारे अपने स्थानों के समय 'स्थानीय समय' कहलाते हैं। इनसे हमारी समय संबंधी स्थानीय आवश्यकता तो पूर्ण हो जाती है, किंतु ये अन्य स्थानों के लिए उपयोगी नहीं होते इसीलिए 'मानक समय' की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन वर्तमान में भारत का मानक समय उज्जैन के बजाय इंग्लैंड की ग्रीनविच नामक वेधशाला से तय होता है। क्यों?
 
ग्रीनविच से किसी भी स्थान के पूर्व या पश्चिम देशांतर ज्ञात होने से हम अपने मानक समय से अन्य देशों का मानक समय ज्ञात कर सकते हैं। भारत का मानक याम्योत्तर ग्रीनविच से 82.5° पूर्व है जिसका अर्थ है कि हमारा मानक समय ग्रीनविच के मानक समय से साढ़े 5 घंटे आगे है अतः जब ग्रीनविच में दोपहर के 12 बजे हों, तो उस समय भारत में शाम के 5.30 बजेंगे। ग्रीनविच समय को मानक मानकर संसार के विभिन्न देशों में समय क्षेत्र के अनुसार समय का निर्धारण होता है।
 
आओ जानते हैं भारत के ‍उन 5 खगोलविदों के नाम जिनकी उपलब्धियों और जिनके द्वारा निर्मित वेधशालाओं को इसलिए ध्वस्त कर दिया गया जिनके विश्‍वविद्यालयों (नालंदा और तक्षशिला) को जला दिया गया, क्योंकि रोमन, अंग्रेज और अरब के लोगों को अपना नया धर्म और नया राज्य स्थापित करना था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रंथ तक्षशिला, नालंदा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अन्य जगहों पर सुरक्षित थे और उससे पूर्व वे अरबी और भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुके थे इसलिए बच गए। भारत ने आक्रांताओं से 500 वर्षों तक खुद को बचाए रखा, लेकिन वह हार गया उन लोगों से जो खुद भारतीय थे। उक्त पांच में वैदिक ऋषि शामिल नहीं है। उल्लेखनीय है कि अश्‍विन कुमार और ऋषि भारद्वाज भी अंतरिक्ष वैज्ञानिक थे।
 
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वराह मिहिर (जन्म-ईस्वी 499- मृत्यु ईस्वी सन् 587) : वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप कपिथा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम आदित्यदास था। उन्होंने उनका नाम ‍मिहिर रखा था जिसका अर्थ सूर्य होता है, क्योंकि उनके पिता सूर्य के उपासक थे। इनके भाई का नाम भद्रबाहु था। पिता ने मिहिर को भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य द्वितीय के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, इसकी सटीक भविष्यवाणी कर दी थी। 
 
इस भविष्यवाणी के कारण मिहिर को राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने बुलाकर उनकी परीक्षा ली और फिर उनको अपने दरबार के रत्नों में स्थान दिया। इस तरह विक्रमादित्य द्वितीय के नौ रत्न हो गए थे। मिहिर ने खगोल और ज्योतिष शास्त्र के कई सिद्धांत को गढ़ा और देश में इस विज्ञान को आगे बढ़ाया। इस योगदान के चलते राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान 'वराह' प्रदान किया था। उसी दिन से उनका नाम वराह मिहिर हो गया।
 
वराह मिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सि‍द्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। इन्होंने तीनों स्कंधों के निरुपण के लिए तीनों स्कंधों से संबद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। सिद्धांत (‍गणित)-स्कंध में उनकी प्रसिद्ध रचना है- पंचसिद्धांतिका, संहितास्कंध में बृहत्संहिता तथा होरास्कंध में बृहज्जातक मुख्य रूप से परिगणित हैं।
 
कुतुब मीनार को पहले विष्णु स्तंभ कहा जाता था। इससे पहले इसे सूर्य स्तंभ कहा जाता था। इसके केंद्र में ध्रुव स्तंभ था जिसे आज कुतुब मीनार कहा जाता है। इसके आसपास 27 नक्षत्रों के आधार पर 27 मंडल थे। इसे वराह मिहिर की देखरेख में बनाया गया था।
 
अज्ञात बल : आर्यभट्ट के प्रभाव के चलते वराह मिहिर की ज्योतिष से खगोल शास्त्र में भी रु‍चि हो गई थी। आर्यभट्ट वराह मिहिर के गुरु थे। आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद 'न्यूटन' ने इस अज्ञात बल को 'गुरुत्वाकर्षण बल' नाम दिया। 
 
खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के ज्ञाता वराह मिहिर का ज्ञान 3 भागों में बांटा जा सकता है- 1. खगोल, 2. भविष्य विज्ञान और 3. वृक्षायुर्वेद। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'वृहत्संहिता' तथा 'पंचसिद्धांतिका' हैं। उन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक नामक ग्रंथ भी लिखे हैं।
 
वृहत्संहिता : वृहत्संहिता में नक्षत्र-विद्या, वनस्पतिशास्त्रम्, प्राकृतिक इतिहास, भौतिक भूगोल जैसे विषयों पर वर्णन है। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन निर्माण कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय भी सम्मिलित हैं। 
 
पंचसिद्धांतिका : पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित 5 सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं- पोलिश, रोमक, वसिष्ठ, सूर्य तथा पितामह। वराहमिहिर ने इन पूर्व प्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से बीज नामक संस्कार का भी निर्देश किया है। 
 
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।।उदयो यो लंकायां सोस्तमय: सवितुरेव सिद्धपुरे। 
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमकविषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥ -आर्यभट्टीय गोलपाद-13
 
अर्थात जब लंका में सूर्योदय होता है, तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
 
आर्यभट्ट : आर्यभट्ट का जन्म ईस्वी सन् 476 में कुसुमपुर (पटना) में हुआ था। यह सम्राट विक्रमादित्य द्वितीय के समय हुआ थे। इनके शिष्य प्रसिद्ध खगोलविद वराह मिहिर थे। आर्यभट्ट ने नालंदा विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर मात्र 23 वर्ष की आयु में 'आर्यभट्टीय' नामक एक ग्रंथ लिखा था। उनके इस ग्रंथ की प्रसिद्ध और स्वीकृति के चलते राजा बुद्धगुप्त ने उनको नालंदा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया था। आर्यभट्ट के बाद लगभग 875 ईस्वी में आर्यभट द्वितीय हुए जिन्होंने ज्योतिष पर 'महासिद्धांत' नामक ग्रंथ लिखा था। आर्यभट्ट द्वितीय गणित और ज्योतिष दोनों विषयों के आचार्य थे। इन्हें 'लघु आर्यभट्ट' भी कहा जाता था। 
 
सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने ही सैद्धांतिक रूप से यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24,835 मील है और यह अपनी धुरी पर घूमती है जिसके कारण रात और दिन होते हैं। इसी तरह अन्य ग्रह भी अपनी धुरी पर घूमते हैं जिनके कारण सूर्य और चंद्रग्रहण होते हैं। 
 
आर्यभट्ट के 'बॉलिस सिद्धांत' (सूर्य चंद्रमा ग्रहण के सिद्धांत), 'रोमक सिद्धांत' और 'सूर्य सिद्धांत' विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। आर्यभट्ट द्वारा निश्चित किया 'वर्षमान' 'टॉलमी' की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है। आर्यभट्ट के प्रयासों द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका। 
 
बीजगणित में भी सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट्ट का है। आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया। उन्होंने सबसे पहले 'पाई' (p) की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले 'साइन' (SINE) के 'कोष्टक' दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया, जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। एक के बाद ग्यारह शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। बीजगणित में उन्होंने कई संशोधन, संवर्धन किए और गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' प्रचलित किया। 
 
वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने 'आर्यभट्ट सिद्धांत' नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में रेखागणित, वर्गमूल, घनमूल जैसी गणित की कई बातों के अलावा खगोल शास्त्र की गणनाएं और अंतरिक्ष से संबंधित बातों का भी समावेश है। आज भी 'हिन्दू पंचांग' तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली जाती है।
 
आर्यभट्ट के सिद्धांत पर 'भास्कर प्रथम' ने टीका लिखी। भास्कर के 3 अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं- 'महाभास्कर्य', 'लघुभास्कर्य' एवं 'भाष्य'। खगोल और गणितशास्त्र- इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के स्मरणार्थ भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था। 
 
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
 
बुध : आर्यभट्ट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू
शुक्र : आर्यभट्ट का मान 0.725 एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू
मंगल : आर्यभट्ट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू
गुरु : आर्यभट्ट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू
शनि : आर्यभट्ट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू
 
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ब्रह्मगुप्त (ईस्वी सन् 598 में जन्म और 668 में मृत्यु) : ब्रह्मगुप्त को भारत के सबसे बड़े गणितज्ञों में गिना जाता है। वे खगोल विज्ञान में भी गहरी रुचि रखते थे। प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने इनको 'गणकचक्र चूड़ामणि' कहा है और इनके मूलांकों को अपने 'सिद्धांत शिरोमणि' का आधार माना था। उल्लेखनीय है कि भास्कराचार्य द्वितीय 11वीं सदी में हुए थे। 
 
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के भीनमाल शहर में ईस्वी सन् 598 में हुआ था।  ब्रह्मगुप्त उज्जैन की अंतरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होंने दो विशेष ग्रंथ लिखे- 1. ब्रह्मस्फुटसिद्धांत (628 ईस्वी) और 2. खण्ड-खाद्यक (665 ईस्वी)। खलीफाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद अरबी भाषा में भी कराए गए थे जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द हिन्द' और 'अल अर्कन्द' कहते थे। भारत के 'सूर्यसिद्धांत' पर आधारित अरब में भी ज्योतिष और खगोल का प्रचलन हो गया था।
 
'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' सबसे पहला ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं जिसमें शून्य का एक विभिन्न अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होंने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
 
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भास्कराचार्य प्रथम (600–680 ईस्वीं) : इतिहास में दो भास्कराचार्यों की चर्चा मिलती है। भास्कराचार्य प्रथम ने ही हिन्दू दाशमिक पद्धति में लिखना आरंभ किया था। उन्होंने आर्यभट्ट की कृतियों की टिकाएं लिखीं और उनके ज्ञान को विस्तार दिया।
 
हिन्दू दाशमिक क्या है : भारत ने गणना हेतु 9 अंकों तथा शून्य का आविष्कार किया था। वर्तमान समय में सारा संसार जिन 1 से लेकर 9 तक के अंकों के सहारे विज्ञान और गणित आदि की गणनाएं करता है, वे भारतीय अंक ही हैं जिन्हें हिन्दू दाशमिक पद्धति कहा जाता है। बाद में इसे 'हिन्दू-अरबी अंक', 'हिन्दू अंक', 'अरबी अंक' के नामों से पुकारा जाने लगा। यूनानियों ने भी यही पद्धति अंगीकार की थी। अरबी भाषा में इन अंकों को हिन्दसा कहते हैं। अरबी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती है, किंतु अरबी में अंक बाएं से दाएं लिखे जाते हैं। रोमनों की अंक प्रणाली अलग थी। भारतीयों से प्रतिस्पर्धा के चलते वे भारतीय अंक प्रणाली को स्वीकार नहीं करना चाहते थे लेकिन 12वीं शताब्दी में उनको इस प्रणाली को अपनाना पड़ा। इन अंकों के कारण ही आधुनिक विज्ञान और उद्योग में क्रांति हुई। आजकल हिन्दी या अंग्रेजी के जिन अंकों का प्रयोग हम करते हैं उनका प्रारंभ भारत में हुआ था।
 
भास्कराचार्य प्रथम के आर्यभट्टीय पर उन्होंने सन् 629 में आर्यभट्टीयभाष्य नामक टीका लिखी, जो संस्कृत गद्य में लिखी गणित एवं खगोलशास्त्र की प्रथम पुस्तक है। आर्यभट्ट की परिपाटी में ही उन्होंने महाभास्करीय एवं लघुभास्करीय नामक दो खगोलशास्त्रीय ग्रंथ भी लिखे।
 
भास्कराचार्य द्वितीय (जन्म 1114- मृत्यु 1179 ईसवी) : भास्कराचार्य द्वितीय का जन्म 1114 ईस्वीं को हुआ था। उनके पिता का नाम महेश्वराचार्य था, जो खुद भी एक गणितज्ञ और खगोलविद थे। भास्कराचार्य के पुत्र लक्ष्मीधर और फिर लक्ष्मीधर के पुत्र गंगदेव भी अपने समय के एक महान विद्वान माने जाते थे।
 
भास्कराचार्य द्वितीय के जन्म स्थान के संबंध में दो प्रकार के मत हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म मध्यप्रदेश के बिदूर या बिदार नामक स्थान पर हुआ था जबकि कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार उनका जन्म बीजापुर नामक स्थान पर हुआ था, जो आजकल कर्नाटक राज्य में स्थित है। 
 
हालांकि भास्कराचार्य का कर्मक्षेत्र उज्जैन (अवंतिका) था। उन्होंने 'सिद्धांत शिरोमणि' और 'लीलावती' नामक दो महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे जिनका कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में भी मुख्यतः खगोल विज्ञान संबंधी विषयों की चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्यग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चंद्रमा को ढंक लेती है तो चंद्रग्रहण होता है। भास्कराचार्य द्वितीय का देहावसान सन् 1179 ई. में 65 वर्ष की अवस्था में हुआ।
 
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महर्षि भृगु : यदि हम ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु की बात करें तो वे आज से लगभग 9,400 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। ये विष्णु के श्वसुर और शिव के साढू थे। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान मिला है।
 
पिता : ब्रह्मा
पत्नी : ख्याति
भृगु के पुत्र : धाता और विधाता
पुत्री : लक्ष्मी (भार्गवी)
रचना : भृगु संहिता, ऋग्वेद के मंत्र रचयिता।
 
भूत, भविष्य एवं वर्तमान बताने वाले भृगुजी विश्व के अद्वितीय ज्योतिषी माने जाते हैं। उनके सदृश 'न भूतो न भविष्यति' कोई हो सकेगा। भविष्य में जन्म लेने वाले मानवों के जीवन का लेखा-जोखा भृगुजी ने हजारों वर्ष पूर्व दे दिया था अपनी अभूतपूर्व कृति 'भृगु संहिता' में। महर्षि भृगु का आयुर्वेद से भी घनिष्ठ संबंध था। अथर्ववेद एवं आयुर्वेद संबंधी प्राचीन ग्रंथों में स्थल-स्थल पर इनको प्रामाणिक आचार्य की भांति उल्लेखित किया गया है।
 
भृगु ने संजीवनी विद्या की भी खोज की थी। उन्होंने संजीवनी-बूटी खोजी थी अर्थात मृत प्राणी को जिदा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परंपरागत रूप से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। 
 
धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन करना सिखाया था। उन्होंने ही बताया था कि किस तरह अग्नि को प्रज्वलित किया जा सकता है और किस तरह हम अग्नि का उपयोग कर सकते हैं। 

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