क्या आप नहीं मानते हैं ईश्वर को?

अनिरुद्ध जोशी
मंगलवार, 12 मई 2020 (11:04 IST)
क्या ईश्वर को नहीं मानने वाले दुख पाते हैं और मानने वाले सुख पाते हैं? नहीं, दरअसल ईश्वर को मानने वाले कई लोग पापी हैं और नहीं मानने वाले कई लोग पुण्यात्माएं हैं। तब ऐसे में ईश्वर किसकी ओर रहेगा?
 
जिसने सभी तरह के धर्म, विज्ञान, धर्मशास्त्र, इतिहास और समाजशास्त्र का अध्ययन किया है या जिसमें थोड़ी-बहुत तार्किक बुद्धि का विकास हो गया है वह प्रत्येक मामले में 'शायद' शब्द का इस्तेमाल करेगा और ईश्वर के मामले में या तो संशयपूर्ण स्थिति में रहेगा या पूर्णत: कहेगा कि ईश्वर का होना एक भ्रम है, छलावा है। इस छल के आधार पर ही दुनिया के तमाम संगठित धर्म को अब तक जिंदा बनाए रखा है, जो कि एक-दूसरे के खिलाफ है।
 
यह तो हुई उन लोगों की बात जिन्होंने धर्म, दर्शन और अध्यात्म को जाना या पढ़ा इसके बाद यह कहा कि ईश्वर जैसी कोई शक्ति नहीं है। ऐसा उन्होंने क्यों कहां यह जानना भी जरूरी है। लेकिन हमने देखा है कि कई ऐसे लोग हैं जो चार किताबें ज्ञान व विज्ञान की पढ़कर यह मानने लग जाते हैं निश्चित ही ईश्वर नहीं होगा। अक्सर हमने साहित्य और विज्ञान के कई लोगों को देखा है जो ईश्वर को नहीं मानने का ढोंग या दावा करते हैं।
 
सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं, अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था।
छिपा था क्या कहां, किसने देखा था उस पल तो अगम, अटल जल भी कहां था।
वो था हिरण्य गर्भसृष्टि से पहले विद्यमान, वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान। -ऋग्वेद (10:129)  
 
दूसरे धर्मों में उल्लेख मिलता है कि ईश्वर एक ही है। उसका एक पुत्र है। उसने सृष्टि की रचना की। वह 7वें आसमान पर रहता है। वह सभी का न्यायकर्ता है। वह फैसला करेगा। वह पापियों को दंड और पुण्य लोगों को स्वर्ग देगा। ऐसी कई बातें हैं, जो ईश्वर को न्यायकर्ता शक्तिशाली पुरुष की तरह प्रस्तुत करती हैं। लेकिन हिन्दू धर्म में ऐसा नहीं है।
 
हिन्दू धर्मग्रंथ वेद में ईश्‍वर, परमेश्वर या परमात्मा के संबंध में बहुत ही विस्तार से लिखा हुआ मिलता है। जिसे समझना बहुत ही कठिन नहीं है यदि समझना चाहो तो। वेद 'विद' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। अनुभूत सत्य। जांचा-परखा मार्ग।
 
जब हम अनुभूत सत्य की बात करते हैं तो वेद का ज्ञान सबसे पहले 4 ऋषियों ने प्राप्त किया- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। कहते हैं कि उन्होंने इस ज्ञान को सुना, भोगा और फिर कहा। जब उन्होंने कहा तो ऋषियों ने भी सुना और फिर उसे दूसरे ऋषियों से कहा। अंत में उस ज्ञान को सुनकर लिखा गया। जिन ऋषियों ने लिखा, वे उसके मंत्रकर्ता बन गए। इसका यह मतलब नहीं कि उन्हीं ऋषियों का यह ज्ञान है जिसका उल्लेख वेद में किया गया है। खैर... वेद में ईश्वर के बारे में क्या बताया गया है, हम यह जानते हैं।
 
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मूलत: वेद कहते हैं कि ईश्‍वर, परमेश्वर या परमात्मा न्यायकर्ता नहीं है, सृष्टि रचयिता नहीं है और न ही वह लोगों का हिसाब-किताब रखने वाला है। आप सोचिए क्या सूर्य न्यायकर्ता है? सृष्टि रचयिता है? क्या वह सौर मंडल के सभी ग्रहों और उनके प्राणियों का हिसाब-किताब रखता है? नहीं ना? सूर्य के होने से ही यह जगत प्रकाशमान, चलायमान और जीवित है। उसी तरह उस परमेश्वर की उपस्थिति से ही सभी कुछ (ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, तारामंडल और संपूर्ण ब्रह्मांड) चलायमान और जीवित है। जिस तरह सूर्य के प्रकाश के करीब आने से सभी में जान आ जाती है, उसी तरह ईश्वर का ध्यान करने से व्यक्ति परम चेतना की ओर विकास करने लगता है। जिस तरह सौर मंडल के पिंड सूर्य से ही उत्पन्न हैं, उसी तरह सभी आत्माएं उसी परमात्मा से उत्पन्न और उसी में लीन होने वाली हैं।  
 
दुनिया के अन्य धर्मों में एकवाद, द्वैतवाद या बहुवाद दिखाई देता है। एकवाद अर्थात सभी कुछ एक ही है। द्वैतवाद अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड में दो तरह की शक्तियां हैं- ईश्‍वर है तो शैतान भी है, पुरुष है तो स्‍त्री भी है। कुछ धर्म नास्तिक हैं, तो कुछ आस्तिक, कुछ अस्तित्ववादी हैं तो कुछ नश्‍वरवादी। लेकिन हिन्दू धर्म के दर्शन को समझना जरूरी है। वेद, उपनिषद और गीता हमेशा अद्वैतवाद की बात करते हैं। अद्वैत का अर्थ ना एक और ना दो। द्वैत का अभाव। द्वैत का अर्थ है सबको अलग-अलग देखना और अद्वैत का अर्थ है अलग-अलग होते हुए भी सभी को एक देखना, क्योंकि सभी की आत्मा का कोई स्वरूप नहीं है, कोई लिंग नहीं है और कोई गुण भी नहीं है।
 
1. ईश्‍वर एक ही है:
'एकम् एवाद्वितियम' अर्थात 'वह केवल एक ही है।' -(छन्दोग्य उपनिषद्, अध्याय 6, भाग 2, श्लोक 1)... 'एकम् ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते किंचन'-यजुर्वेद। अर्थात भगवान एक ही है, दूसरा नहीं है। नहीं है, नहीं है, जरा भी नहीं है।' वह सिर्फ एक ही है बगैर किसी दूसरे के। वह अनुपम है। उसने कोई और मिला हुआ नहीं है।
 
वह न दो हैं, न ही तीन, न ही चार, न ही पांच, न ही छ:, न ही सात, न ही आठ, न ही नौ और न ही दस हैं। इसके विपरीत वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है। उसके सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है। सब देवता उसमें निवास करते हैं और उसी से नियंत्रित होते हैं। इसलिए केवल उसी की उपासना करनी चाहिए और किसी की नहीं। -अथर्ववेद 13.4. 16-21
 
2. उसका न कोई मां-बाप है और न पुत्र:
'नाकस्या कस्किज जनिता न काधिप:' अर्थात उसका न कोई मां-बाप है, न ही खुदा' (श्वेताश्वतारा उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 9) इसी श्लोक में आगे लिखा है; वही है जिसे किसी ने पैदा नहीं किया और वही पूजा के लायक है।
 
3. उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती:
'न तस्य प्रतिमा अस्ति' अर्थात उसकी कोई छवि (कोई पिक्चर, कोई फोटो, कोई मूर्ति) नहीं हो सकती। (श्वेताश्वतर उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 19)
 
4. वह अदृश्य है, देखा नहीं जा सकता:
'न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम' अर्थात उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आंखों से देखा नहीं जा सकता। -(श्वेताश्वतारा उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 20) 'वह शरीरविहीन है और शुद्ध है।' -(यजुर्वेद, अध्याय 40, श्लोक 8)
 
'जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं, वह ईश्‍वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों के द्वारा कोई सुन नहीं सकता, किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राणशक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है, उसे तू ईश्‍वर जान। प्राणशक्ति से चेष्‍टावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्‍वर नहीं है। 4, 5, 6, 7, 8।।- केनोपनिषद।
 
5. उसका कोई संदेशवाहक नहीं:
उसका कोई अभिकर्ता (एजेंट, संदेशवाहक, अवतार, देवदूत या प्रॉफेट) नहीं है। ...मा चिदंयाद्वी शंसता' अर्थात 'किसी की भी पूजा मत करो सिवाय उसके, वही सत्य है और उसकी पूजा एकांत में करो।' (ऋग्वेद किताब 8 अध्याय 1 श्लोक 1)
 
6. वहीं पूजनीय, प्रार्थनीय है:
वह परम पुरुष जो निस्वार्थता का प्रतीक है, जो सारे संसार को नियंत्रण में रखता है, हर जगह मौजूद है और सब देवताओं का भी देवता है, एकमात्र वही सुख देने वाला है। जो उसे नहीं समझते वो दु:ख में डूबे रहते हैं और जो उसे अनुभव कर लेते हैं, मुक्ति सुख को पाते हैं। (ऋग्वेद 1.164.39)
 
अंधात्मा प्रविशन्ति ये अस्संभुती मुपस्ते अर्थात वे अंधकार में हैं और पापी हैं, जो प्राकृतिक वस्तुओं को पूजते हैं, जैसे प्राकृतिक वस्तुएं- सूरज, चांद, जमीन, पेड़, जानवर आदि। आगे लिखा है- वे और भी ज्यादा गुनाहगार हैं और अंधकार में हैं जिन्होंने सांसारिक वस्तुओं को पूजा जैसे टेबल, मेज, तराशा हुआ पत्थर आदि। देव महाओसी अर्थात ईश्वर सबसे बड़ा, महान है। -अथर्ववेद, भाग-20, अध्याय-58 श्लोक-3...
 
मा चिदंयाद्वी शंसता अर्थात किसी की भी पूजा मत करो सिवाय उसके, वही सत्य है और उसकी पूजा एकांत में करो। वही महान है जिसे सृष्टिकर्ता का गौरव प्राप्त है। या एका इत्तामुश्तुही अर्थात उसी की पूजा करो, क्योंकि उस जैसा कोई नहीं और वह अकेला है। -ऋग्वेद
 
7. वह अजन्मा है:
'जो सांसारिक इच्छाओं के गुलाम हैं, उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए है...।' (भगवद् गीता 7:20)
 
'वे जो मुझे जानते हैं कि मैं ही हूं, जो अजन्मा हूं, मैं ही हूं जिसकी कोई शुरुआत नहीं, और सारे जहां का मालिक हूं।' (भगवद् गीता 10:3)
 
ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ईश्वर एक ही है, अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी ईश्वर नहीं हैं।
 
भगवान कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों के महान ईश्वर तत्व से जानते हैं, वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान हैं। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु मनुष्‍य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सबके सब न अजन्मे हैं, न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दु:ख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अप‍कीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है। -भ. गीता-10-3,4,5।
 
कौन ईश्वर नहीं है?
*ब्रह्म ही सत्य है, जो न तो पुरुष है, न ही स्त्री। वह सिर्फ ब्रह्म है।
*ईश्‍वर न तो भगवान है, न देवी है, न देवता और न ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश।
*ईश्‍वर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश भी नहीं।
*ईश्वर दुर्गा, राम, कृष्ण और बुद्ध भी नहीं है।
*ईश्वर न पिता है, न माता और न ही गुरु।
*उनका न कोई पिता है और न कोई स्वामी और न ही वह किसी का स्वामी है।
 
ईश्वर कहां है?
*ईश्वर वह है, जो समय और स्थान से प्रभावित नहीं होता है।
*ईश्‍वर न धरती पर है और न आकाश में लेकिन वह सर्वत्र होकर भी अकेला है।
*सृष्टि से पहले भी वही था और सृष्टि के बाद भी वही एकमात्र होगा।
*ईश्‍वर सभी की आत्मा में है और सभी की आत्मा ही ईश्वर है, लेकिन वह कभी किसी को महसूस नहीं होता। उसके लिए आत्मवान होना जरूरी है।
*वह दूर से दूर और पास से भी पास है।
*परमात्मा सर्वव्यापक है लेकिन माया के आवरण से परमात्मा की प्रतीति नहीं होती।
*जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। -ऋग्वेद
 
ईश्‍वर क्या है?
*ईश्‍वर शुद्ध प्रकाश स्वरूप है, लेकिन वह प्रकाश नहीं है।
*ईश्‍वर केवल एक है, उसके जैसा कोई दूसरा नहीं।
*क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से अपरामष्‍ट- जो संबंधित नहीं है वही पुरुष विशेष ईश्वर है अर्थात जो बंधन में है और जो मुक्त हो गया है, वह ईश्वर नहीं है बल्कि ईश्वर न कभी बंधन में था, न है और न रहेगा।
*ईश्‍वर निराकार, निर्विकार और निर्विकल्प है। उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती।
*ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं, वे सभी ईश्वर नहीं हैं।
*ईश्वर दयालु, प्रेमपूर्ण और जगत का रखवाला है।
 *वह सच्चिदानंद है अर्थात सत्, चि‍त् और आनंदस्वरूप है। सत् का अर्थ है- सनातन, शाश्वत, जिसका कोई प्रारंभ नहीं और अंत भी नहीं, न बदलने वाला और न समाप्त होने वाला। चित् का अर्थ है- चेतना, विचारणा, मन और बुद्धि आदि। चेतना से ही संसार का उद्भव हुआ है। तीसरा इस संसार का सबसे बड़ा आकर्षण 'आनंद' है। संसार की उत्पत्ति आनंद के लिए ही हुई है। शुद्ध आनंद की अनुभूति होना दुर्लभ है।
 *'वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएं होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं। वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्‍व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्‍व के बाहर भी हैं।' ।।4, 5।। -ईशावास्योपनिषद
 
ईश्वर क्या करता है?
*ईश्‍वर का कोई संदेशवाहक नहीं। संदेशवाहक देवी और देवताओं के होते हैं। ऋषियों ने ईश्वर के वचनों को सुना और उसकी स्तुति की जिसे वेद कहा गया। वे ईश्‍वरीय वचन है जिनमें आदेश, संदेश या आज्ञा नहीं है। 
*ब्रह्म या ईश्वर न न्याय करता है और न अन्याय करता है, लेकिन जो उसका ध्यान करते हैं उनके साथ कभी अन्याय नहीं होता।
*ईश्‍वर किसी को भयभीत करने वाला और न ही प्रेम करने वाला है। जो उससे प्रेम करते हैं, वे स्वत: ही उसके सान्निध्य में होकर सुरक्षित हो जाते हैं। जो उससे भयभीत रहते हैं, वे अपने पापों के कारण ही भयभीत रहते हैं।
*ईश्वर न आज्ञा देने वाला है और न ही उपदेश देने वाला। उपदेश और आज्ञा देने वाले ईश्वर या सत्य के मार्ग पर नहीं हैं।
*ईश्वर न सजा देता है और न ही पुरस्कार। वह न स्वर्ग में भेजता है और न नर्क में। जो लोग उसका ध्यान करते हैं और सभी को ईश्वरमय समझते हैं, वे हर तरह की सजा-पुरस्कार और स्वर्ग-नर्क से परे होकर शांति पाते हैं।
 
सृष्टि और ईश्वर का संबंध क्या है?
*ईश्वर न सृष्टि रचयिता है और न सृष्टि का रखवाला। उसके होने से ही सृष्टि हुई और उसके होने से ही सूर्य, तारे, पृथ्वी तथा दूसरे ग्रह-नक्षत्र काबू में रहते हैं। उनके काबू में रहने से ही प्राणियों का अस्तित्व विद्यमान है, तो वह ऐसा होने पर भी ऐसा नहीं है अर्थात उसकी उपस्थिति से ही सबकुछ है और उसकी इच्छा से ही सभी की सुरक्षा है और उसकी इच्‍छा से ही विध्वंस है।
 
*जड़ से बढ़कर प्राण है, प्राण से बढ़कर मन। मन से बढ़कर बुद्धि है और बुद्धि से बढ़कर विवेक। विवेक से बढ़कर चेतना है और चेतना से बढ़कर आत्मा। आत्मा ही सभी को धारण करने वाली है और इस आत्मा को धारण करने वाला परमात्मा है।
 
*धरती से बढ़कर जल है, जल से बढ़कर अग्नि। अग्नि से बढ़कर वायु है और वायु से बढ़कर आकाश। आकाश से बढ़कर महत् है और महत् से बढ़कर आत्मा। आत्मा से बढ़कर वह एकमात्र परमात्मा ही सभी को धारण करने वाला है।
 
'उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है, जो उसी प्राणरूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।' ।।2-8-1।। -तैत्तिरीयोपनिषद
 
आत्मा और ईश्‍वर का संबंध क्या है?
*यह आत्‍मा ही ब्रह्म है। ब्रह्मस्वरूप होने और ब्रह्म में से ही प्रस्फुटित होने के कारण आत्मा को भी ब्रह्म (ईश्वर) तुल्य माना गया है।
 
*संसार प्राकृतिक शक्तियों का खेल है और प्राकृतिक शक्तियां चित्त शक्तियों का खेल है और चित्त की शक्तियां आत्मा का खेल है और आत्माएं ईश्‍वर के होने से ही विद्यमान हैं।
 
*स्वयं को जानने वाला ही ईश्वर को जान सकता है।
 
*ईश्वर तक पहुंचने के दो ही रास्ते हैं- शरणागति और ध्‍यान। ये दो मार्ग अभ्यास और जाग्रति से हासिल किए जा सकते हैं।
 
*'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं, 'तत्वस्मी' अर्थात तू ही ब्रह्म है और 'एकमेव ब्रह्म सत्य' अर्थात वह ब्रह्म ही सत्य है। इसका मतलब वह ब्रह्म मुझ में, तुझ में और सर्वत्र होकर भी अकेला है।
 
*शरीर में रहकर आत्मा जाग्रत, स्वप्न और सु‍षुप्ति का अनुभव करती है। इस दौरान वह मस्तिष्क की क्षमता से अनावश्यक और निरंतर चलने वाले विचारों से प्रभावित होती रहती है। मन के भावों और गति से सुख और दुख का अनुभव करती रहती है, लेकिन वह कभी खुद को देखने और समझने का प्रयास नहीं करती। जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म है।
 
*यह आत्‍मा ही सब कुछ है अर्थात समस्त वस्तु, विचार, भाव और सिद्धांतों से बढ़कर आत्मा है। आत्मा को जानने से ही परमात्मा को जाना जा सकता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।
 
और अंत में...
वह अजन्मा और अप्रकट है। वह निराकार और निर्विकार है। वह अनादि और अनंत है अर्थात उसका न प्रारंभ है और न अंत। वह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। वह अपरिवर्तनीय और अगतिशील है। उसका देश अथवा काल की अपेक्षा से कोई आदि अथवा अंत नहीं है। उसका कभी क्षय नहीं होता, वह सदैव परिपूर्ण है। उसका अस्तित्व है। वह चेतन है। वह सर्वशक्तिमान है। वह सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। वह शुद्धस्वरूप है। वह न्यायकारी दयालु है। वह सब सुखों और आनंद का स्रोत है। वह सब से रहित है। उसी से संपूर्ण सृष्टि का पालन होता है। उसी से सृष्टि की उत्पत्ति होकर उसी में लीन हो जाती है। उसको किसी का भय नहीं है। उसका सभी जीवों के साथ सीधा संबंध है। सभी की आत्मा उसका बिम्ब मात्र है। सभी उसमें से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाते हैं। वह दूर से दूर और पास से भी पास है। वह न पुरुष है और न स्त्री। वह कालपुरुष 'परम ज्योति' है।

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